तीखी कलम से

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

ग़ज़ल - हाँ मैंने उल्फ़त का मंजर देखा है

22 22 22 22 22 2
आंखों   में   आबाद   समंदर  देखा  है ।
हाँ  मैंने  उल्फ़त  का  मंजर  देखा  है ।।

कुछ चाहत में जलते हैं सब  रोज  यहां ।
चाँद  जला  तो जलता अम्बर  देखा है ।।

आज अना  से  हार  गया  कोई  पोरस ।
तुझमें पलता एक  सिकन्दर  देखा  है ।।

एक तबस्सुम बदल गया फरमान  मेरा ।
मैंने    तेरे    साथ   मुकद्दर   देखा  है ।।

कुछ दिन से रहता है वह उलझा उलझा ।
शायद  उसने  मन  के  अंदर  देखा  है ।।

बिन  बरसे  क्यूँ  बादल  सारे  गुज़र गए ।
मैंने  उसकी  जमीं  को  बंजर  देखा  है ।।

हो  जाते  जज़्बात  बयां  सब  बातों से ।
नाम उसी का लब पर अक्सर देखा है ।। 

खूब  दुआएं   जो   देते  थे   जीने  की ।
आज  उन्हीं  हाथों  में  ख़ंजर देखा है ।।

ज़ह्र पिये बस मीरा और सुकरात नहीं ।
मुल्क के हर इंसान में शंकर देखा है ।।

लाचारी का हाल न पूछो अब मुझसे ।।
तेरी खातिर सब कुछ खोकर देखा है ।।     

       --नवीन मणि त्रिपाठी
       मौलिक अप्रकाशित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें