तीखी कलम से

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

ग़ज़ल - तेरे ज़हान से क्यूँ सिसकियाँ नहीं जातीं

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गरीब    खाने   तलक   रोटियां    नहीं   जातीं ।
तेरे  जहान  से  क्यूँ   सिसकियाँ  नहीं  जातीं ।।

कतर रहे हैं वो पर ख्वाहिशों के  अब  भी बहुत।
नए    गगन   में   अभी , बेटियां  नहीं   जातीं ।।

वो तारे  तोड़ तो सकता है  आसमाँ  से  मग़र ।
मुसीबतो  की   ये   परछाइयां   नहीं   जातीं ।।

यकीं  करूँ मैं  कहाँ तक  जुबान  पर साहब ।
लहू  से   आपके   खुद्दारियाँ    नहीं   जातीं ।।

तमाम  दे  के   रियायत  हुजूर  देख   लिया ।
खराब   कौम   से   गद्दारियाँ   नहीं   जातीं ।।

सियासतों  का  ये  मंजर  न पूछ अब हमसे ।
सियासतों  से  यहाँ  खामियाँ  नहीं   जातीं ।।

नए  निज़ाम   से  उम्मीद  और  क्या  करना ।
चमन से  आज  भी  दुश्वारियां  नहीं  जातीं ।।

नज़र  का फेर  था या फिर  था हादसा कोई ।
दिलो   दिमाग  से   रानाइयाँ   नहीं   जातीं ।।

न जाने  क्या  हुआ  है आपकी  निगाहों को ।
मेरे   वजूद    से    रुस्वाइयाँ    नहीं   जातीं ।।

जरा  सँभल  के  रहो  दुश्मनों की फितरत से ।
मिले   तो   हाथ  मगर  खाइयां  नहीं  जातीं ।।

मैं भूल  जाऊं  सभी  जख़्म कोशिशें  हैं मेरी ।
मगर ज़िगर की  ये  मजबूरियां  नहीं  जातीं ।।

चले  गए  हैं मेरी  जिंदगी   से  जब  से  वो ।
मेरे  दयार   से    खामोशियाँ   नहीं  जातीं ।।

           -- नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

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