तीखी कलम से

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

ग़ज़ल

2212 2212 2212 12
शायद  तेरी नज़र  को  मिला  इंतखाब   है ।
उगने  लगा  मगरिब  में कोई  आफताब  है ।।

उड़ते  परिंदे   खूब  हैं  इस  जश्ने  प्यार  में ।
छाया   मुहब्बतों   में   कोई   इन्क्लाब   है ।।

मुद्दत  से  मैं था मुन्तज़िर अपने सवाल पर ।
ख़त में किसी का आज ही आया जबाब है ।।

कुछ दिन से वह भी होश में मिलता नहीं मुझे।
कैसा  नशा  है  इश्क़  में  कैसा  शबाब   है ।।

फितरत नई  है आपकी  बहकी  शबा मिली ।
चेहरा नया  जो आपका खिलता  गुलाब है ।।

इतनी जफ़ा के  बाद  भी  कायम वफ़ा रही ।
मेरे  लिए  क्या  आपने  रक्खा  ख़िताब  है ।।

देता  कहाँ   है  साथ   कोई  उम्र  भर   यहाँ ।
सच  मानिए  ये  जिंदगी   होती   हबाब  है ।।

पर्दे  हजारों  ओढ़  के  मिलता  है आजकल ।
किसने  कहा  है  आदमी   वह  बेनकाब  है ।।

अमनो  सुकूँ  के साथ मे  जीना हराम अब ।
इस शह्र में हर शख्स की सुहबत खराब है ।।

यूँ  ही नहीं वो आपकी   तारीफ़  कर  गया ।
वह शख्स पढ़केआपको लिखता किताब है।।

बैठे  दिखे  हैं रिन्द भी लम्बी   कतार   में ।
शायद सनम की आंख से छलकी शराब है ।।

               - नवीन मणि त्रिपाठी 
            मौलिक अप्रकाशित

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