तीखी कलम से

रविवार, 25 मार्च 2018

हुस्न पर पर्दा रहा

2212 2212 2212 2212
ऐ  चाँद  अपनी  बज़्म  में तू  रात भर  छुपता  रहा ।
आखिर ख़ता क्या थी मेरी  जो हुस्न पर  पर्दा रहा ।। 

कुछ  आरजूएं  थीं  मेरी कुछ थी नफ़ासत हुस्न में ।
वो आशिकी  का  दौर था चेहरा कोई जँचता रहा ।।

मासूमियत पर दिल लुटा बैठा  जो अपना फ़ख्र से ।
उस  आदमी  को  देखिए  अक्सर यहाँ तन्हा रहा ।।

रुकता  नहीं   है  ये  ज़माना  लोग आगे  बढ़  गए ।
मैं कुछ खयालों को लिए अब तक यहां ठहरा रहा।।

था  मुन्तजिर मैं आपके वादे को लेकर आज तक ।
किसने  कहा  है  आपसे  मेरा  नहीं  रिश्ता  रहा ।।

ये  तिश्नगी  जिंदा  रही   लौटा  दिया   दरबान  भी ।
देखा  तुम्हारी महफिलों में  इश्क़  पर  पहरा रहा ।।

मैं रब्त को बस ढूढता ही रह गया अब तक सनम ।
जो थी  ग़ज़ल  तुमने  लिखी  मैं बारहा पढ़ता रहा ।।

जलती गयी दिल की वो बस्ती जल गयीं सब ख्वाहिशें।
तुमने  लगाई  आग  जो अब  तक  मकां  जलता रहा ।।

गर फिक्र होती  कुछ  उन्हें  देते  मेरे  खत का जबाब ।
मैं  इक  जमाने  से  हजारों  खत जिन्हें लिखता रहा ।।

मैं  कह  न  पाया  उम्र भर जो बात उसकी खौफ में ।
वह  नूर  मेरे  शाद  का  यह  दिल मेरा  कहता  रहा ।।

          --- नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशिय

पेंटिंग चित्र साभार गूगल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें