तीखी कलम से

सोमवार, 18 जून 2018

सदायें बुलातीं रहीं घुघरुओं की

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जरूरत  नहीं अब तेरी रहमतों की ।
हमें भी पता है डगर  मंजिलों  की ।।

है फ़ितरत हमारी  बुलन्दी पे  जाना ।
बहुत नींव गहरी यहाँ हौसलों  की ।।

अदालत में अर्जी लगी  थी  हमारी ।
मग़र खो गयी इल्तिज़ा फैसलों की ।।

भटकती रहीं ख़्वाहिशें उम्र भर तक ।
दुआ कुछ रही इस तरह रहबरों की ।।

उन्हें जब हरम  से  मुहब्बत  हुई  तो ।
सदाएं  बुलाती   रहीं  घुघरुओं  की ।।

न  उम्मीद  रखिये  वो गम  बाँट  लेंगे ।
यहाँ फ़िक्र किसको रही आंसुओं की ।।

चुनौती अंधेरों से जब  भी  मिली  तो ।
लगी  कीमती  रौशनी  जुगनुओं  की ।।

नदारद  तबस्सुम  है चेहरों  से  सबके ।
है  तादात  लम्बी   यहां  गमजदों  की ।।

कहीं खो  गयी आज इंसानियत  फिर।
खबर ही नहीं आदमी  को  हदों  की ।।

बिछे   जो   यहां  दागियों  की  डगर  में ।
ये ख्वाहिश नहीं थी चमन के गुलों की ।।

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