तीखी कलम से

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

आग लगती है तो लग जाए बुझाते भी नहीं

2122 1122 1122 112/22

आँख मुद्दत से  मियाँ आप मिलाते भी नहीं ।
फासले  ऐसे  मुकर्रर  हैं कि जाते  भी नहीं ।।

मुल्क से बढ़ के सियासत की है कुर्सी यारो ।
बेच  आये  हैं  वो  ईमान   बताते  भी  नहीं ।।

रोज बारूद वो नफरत की  छिड़क जाते  हैं ।
आग लगती है तो लग जाए बुझातेभी नहीं ।।

डर गए आपकी मनमानियों से  हम  हाक़िम ।
जुल्म पर उँगलियाँ अब लोग उठाते भी नहीं ।।

आपको   खूब   मुबारक़  हों  फ़रेबी  जुमले ।
आप वादों को  तबीयत  से निभाते भी नहीं ।।

वोट  हमसे  भी  लिया और हमी  पर हमला ।
ज़ख़्म  संसद में हमारा वो  दिखाते भी नहीं ।।

सांप  मर  जायेगा  लाठी  भी सलामत होगी ।
राज़ अख़बार  यहाँ खुल  के बताते भी नहीं।।

कत्ल कर देते  हैं  प्रतिभा को सरे  आम  यहाँ।
और  अपराध  पे  वो   खेद  जताते  भी  नहीं।।

नौजवां भूँख से मरता है यहां पढ़  लिख  कर ।
रोजियां  आप  कभी  ढूढ़  के  लाते  भी  नहीं ।।

गिर न जाएँ कहीं अब आप भी नजरों से हुजूऱ।
हम  कसौटी  पे  खरा आपको  पाते भी नहीं ।।

         --नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें