तीखी कलम से

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

कह दूं मैं दिल की बात अगर ऐतबार हो

221 2121 1221 212

कुछ   दिन   से  देखता  हूँ   बहुत   बेकरार  हो।
कह  दूँ  मैं  दिल  की  बात  अगर  ऐतबार  हो ।।

परवाने    की  ख़ता  थी   मुहब्बत  चिराग  से ।
करिए  न  ऐसा  इश्क़  जहां  जां  निसार  हो ।।

रिश्तों   की   वो   इमारतें   ढहती   जरूर   हैं ।
बुनियाद   में   ही   गर  कहीं  आई  दरार   हो ।।

कीमत   खुली  हवा   की  जरा   उनसे   पूँछिये ।
जिनको  अभी  तलक  न  मयस्सर  बहार  हो ।।

नजरें   गड़ाए    बैठे   हैं   कुछ   भेड़िये   यहां ।
मुमकिन है आज अम्न का फिर से शिकार हो ।।

कुर्बानियां  वो  मांगते  मजहब   के  नाम  पर ।
इंसानियत  न  मुल्क  से  अब  तो  फरार हो ।।

तुझको  बता  दिया  तो  ज़रूरी  नहीं  है  ये ।
मेरे  गमों  के  दौर   का  अब  इश्तिहार  हो ।।

रखिये  जरा  ख़याल  भी  अपने  वजूद  का ।
जब  भी  जूनून  आपके  सर  पर  सवार हो ।।

बादल  बरस के चल दिए अब  देखिये हुजूऱ।
शायद  गुलों  के  हुस्न  में  आया निखार हो ।।

गुज़री   तमाम    उम्र    यहां   रौशनी   बगैर ।
अब   तीरगी   से  जंग  कोई  आर  पार  हो ।।

           -- नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें