तीखी कलम से

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

मैंने पत्थर जवाब में देखा

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गुल जो  सूखा किताब  में   देखा ।
आपको  फिर  से ख़्वाब  में देखा ।।

बारहा  चाँद   की   नज़ाक़त  को ।
झाँक  कर  वह  नकाब  में देखा ।।

मैकदे   में   गया  हूँ  जब  भी  मैं ।
तेरा   चेहरा   शराब    में    देखा ।।

वस्ल  जब  भी लगा मुनासिब तो।
हड्डियां   कुछ   कबाब   में   देखा ।।

तोड़   पाता   उसे   भला   कैसे ।
हुस्न  उसका   गुलाब  में   देखा ।।

डाल  कर   फूल  राह  में  सबके ।
मैंने   पत्थर   जबाब   में   देखा ।।

लुट   गईं   रोटियां   गरीबों   की ।
हादसा    इंकलाब    में    देखा ।।

तेरे  आने  का  जिक्र   होते   ही ।
रंग   आता   शबाब   में   देखा ।।

कौन कहता  है  तुम नशे  में  हो ।
मैंने   तुमको  हिसाब  में  देखा ।।

हैं मुहब्बत  बड़ी या  फिर दौलत ।
आपके    इंतखाब     में    देखा ।।

     -- नवीन मणि त्रिपाठी

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