तीखी कलम से

शुक्रवार, 7 जून 2019

दफ़अतन हो गई बेखुदी मुख़्तसर

212 212 212  212
कीजिये मत अभी रोशनी मुख़्तसर ।।
आदमी कर न ले जिंदगी मुख़्तसर ।

इश्क़  में  आपको  ठोकरें   क्या लगीं ।
दफ़अतन हो  गयी  बेख़ुदी मुख़्तसर ।।

नौजवां  भूख  से  टूटता  सा  मिला ।
देखिए  हो  गयी आशिक़ी मुख़्तसर ।।

गलतियां  बारहा  कर वो कहने लगे ।
क्यूँ   हुई  मुल्क़ में नौकरी मुख़्तसर ।। 

कैसे कह दूं के समझेंगे जज़्बात को ।
जब वो करते नहीं बात ही मुख़्तसर ।।

सिर्फ शिक़वे गिले में सहर हो गयी ।
वस्ल की रात होती गयी मुख़्तसर ।।

जब रकीबों से उसने मुलाकात की ।
आग दिल मे कहीं तो लगी मुख़्तसर ।।

कैसे मिलता सुकूँ आखिरी वक्त में ।
आरजू  ही  नहीं  जब हुई मुख़्तसर ।।

याद आये बहुत मुझको लम्हात वो ।
आप से इक नज़र जो मिली मुख़्तसर ।।

है  करम  बादलों  का   चले  आइए ।
बाम पर हो गयी चाँदनी मुख़्तसर ।।

आज भौरों को किसने ख़बर भेज दी ।
इक कली बाग में जब खिली मुख़्तसर ।।

शब्दार्थ - मुख़्तसर - संक्षिप्त , थोड़ा , कम, अल्प,
दफ़अतन- अचानक 
बाम - छत

          -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
          मौलिक अप्रकाशित

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