तीखी कलम से

रविवार, 15 मार्च 2020

मैं तो सियाह शब में सहर ढूढता रहा

221 2121 1221 212

ता-उम्र रोशनी का सफ़र ढूढ़ता रहा ।
मैं तो सियाह शब में सहर ढूढ़ता रहा ।।

मुझको मेरा मुकाम मयस्सर हुआ कहाँ ।।
घर अपना तेरे दिल में उतर ढूढ़ता रहा ।।

रुसवाइयों के दौर से गुजरा हूँ इस तरह ।
बस एक इश्क़ वाली नज़र ढूढ़ता रहा ।।

तुमको अना के दौर में इतनी खबर नहीं ।
कोई तुम्हारे दिल की डगर ढूढ़ता रहा ।।

इन साहिलों को छू के गयी थी जो एक दिन ।
सागर की मैं वो उठती लहर ढूढ़ता रहा ।।

लूटा है कुर्सियों ने तेरे देश को मगर ।
अखबार में छपी ये  ख़बर ढूढ़ता रहा ।।

अक्सर उसे मिली हैं  ये नाकामियां कि जो ।
आसान रास्तों का सफ़र ढूँढता रहा ।।

शायद नहीं था इल्म जो तुमको समझ सकूँ ।
नादां था राख में जो शरर ढूढ़ता रहा ।।

सारा चमन लगा है बियाबां मुझे हुजूऱ ।
सहरा में मुद्दतों से बसर ढूढ़ता रहा ।।

       नवीन मणि त्रिपाठी

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