तीखी कलम से

रविवार, 15 मार्च 2020

सुना है इस वतन को बेटियां अच्छी नहीं लगतीं

ग़ज़ल

हर इक सू से चमन में सिसकियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।
सुना  है  इस वतन को बेटियां अच्छी नहीं लगतीं ।।

न  जाने   कितने  क़ातिल  घूमते  हैं  शह्र  में  तेरे ।
यहाँ कानून की खामोशियाँ अच्छी नहीं  लगतीं ।।

सियासत के पतन का देखिये अंजाम भी  साहब ।
दरिन्दों को मिली जो कुर्सियां अच्छी नहीं लगतीं।।

वो  सौदागर  है   बेचेगा   यहाँ  बुनियाद  की  ईंटें ।
बिकीं जो रेल की सम्पत्तियां अच्छी  नहीं  लगतीं ।।

बिकेगी हर इमारत अब विदेशी बोलियों  पर  क्या ।
तुम्हें  तो  जगमगाती  बस्तियाँ  अच्छी नहीं लगतीं ।।

ये नीलामी ये पी एस यू का नाटक बन्द कर  दीजै ।
हमारे  मुल्क को  अब चोरियां अच्छी नहीं लगतीं ।।

बढ़ेगी  फीस तो बेदख्ल  हम तालीम  से  होंगे ।
अमीरों के हितों  की नीतियां अच्छी  नहीं  लगतीं ।।

खुशामद  मीडिया  बेशक करेगी आपका  लेकिन ।
वतन को आपकी चालाकियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।

बुलन्दी   छू   रहीं  अब  देश  की   बेरोज़गारी   ये ।
मेरी थाली की तुझको रोटियां अच्छी नहीं  लगतीं ।।

पढाओ मत पहाड़ा अब तुम्हें हम पढ़ चुके  इतना ।
के जुमले और तुम्हारी शेखियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।

ज़रा नज़दीकियों का फ़लसफ़ा पढ़ लीजिये साहब ।
हमारे   दरमियाँ   हों  दूरियाँ  अच्छी  नहीं  लगतीं ।।

       -- नवीन मणि त्रिपाठी

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