तीखी कलम से

सोमवार, 21 मार्च 2022

सब लोग मुन्तज़िर है वहाँ माहताब के

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सब  लोग  मुन्तज़िर  है  वहाँ  माहताब  के ।

चेहरे   पढ़े   गए   हैं  जहाँ   इज़्तिराब   के ।।


छुपता कहाँ  है  इश्क़  छुपाने के  बाद  भी ।

होने    लगे  हैं  शह्र   में  चर्चे   ज़नाब  के ।।


दौलत  के नाम  पर  वही  भटके हुए  मिले ।

किस्से  सुना  रहे  थे  जो मुझको सराब  के ।।


बदला  ज़माना   है  या  मुकद्दर   खराब  है ।

मिलते  नहीं  हैं यार भी अपने  हिसाब  के ।।


साज़िश  रची  गयी है वहीं देश के ख़िलाफ़ ।

नारे   जहाँ   लगे  थे   कभी   इंकलाब  के ।।


साकी उसे पिलाने की ज़िद  कर  न  बारहा ।

जो  जी  रहा  है  मुद्दतों  से  बिन शराब  के ।।


नाज़ ओ नाफ़ासतों से वो मगरूर क्यूँ  न  हों ।

जब  दाम  लग रहे हैं सनम के हिज़ाब  के ।।


है  उनकी  खुश्बुओं से मुअत्तर चमन  मेरा ।

भेजे थे तुमने फूल जो मुझको ग़ुलाब के ।।


दरिया ए आग इश्क़ है छूना सँभल के तुम ।

जलते दिखे  हैं  हाथ  यहाँ आफ़ताब  के ।।


देखा है किस निगाह से हमने  तुझे ऐ  चाँद ।

जा पढ़  तू  मेरे शेर  अदब  की क़िताब  के ।।


      -नवीन मणि त्रिपाठी

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