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कब तक सहेंगे दर्द यहाँ ख़ामुशी से हम।
करते रहे सवाल यही ज़िंदगी से हम ।।1
यूँ हिज़्र की न चर्चा करो हम से आजकल ।
निकले हैं जैसे -तैसे सनम तीरगी से हम ।।2
शंकर की तर्ह या कभी सुकरात की तरह ।
पीने लगे हैं ज़ह्र भी अब तो खुशी से हम ।।3
पाबंदियों के दौर में ये पूछिये न आप ।
कितना करेंगे सच को बयाँ शाइरी से हम ।।4
साक़ी ने जाम तक न दिया मैक़दे में तब ।
जब बेक़रार थे वहाँ तिश्ना-लबी से हम ।।5
शब भर न आई नीद हमें कोशिशों के बाद ।
आये हैं जब भी शाम को तेरी गली से हम ।।6
तीरे नज़र का था वो निशाना कमाल का ।
होते रहे तबाह तेरी आशिक़ी से हम ।।7
--नवीन
सुन्दर
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १ अप्रैल २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज बुधवार (01-04-2022) को चर्चा मंच "भारत ने सारी दुनिया को, दिया शून्य का ज्ञान" (चर्चा अंक-4387) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!बहुत खूब👌👌
जवाब देंहटाएंनवीन जी ,
जवाब देंहटाएंबहुत समय बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ ।।
खूबसूरत ग़ज़ल ....
जवाब नही मिला ज़िन्दगी से कभी ।
सहते रहे दर्द ख़ामुशी से सभी ।।
कितना करेंगे सच को बयाँ शाइरी से हम
जवाब देंहटाएंबेहतरीन/उम्दा सृजन ।
हर शेर लाजवाब 👌
बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...
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