तीखी कलम से

मंगलवार, 5 अगस्त 2025

आती है उसकी याद बुलाये बगैर ही

 ग़ज़ल

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जाती  है  नींद  ख़्वाब  के  आये  बगैर   ही ।

आती  है  उसकी  याद   बुलाये  बगैर   ही ।।1


उसको  हमारी  तिश्नगी  से  दुश्मनी थी  यूँ ।

 भेजा  वो  मैक़दे  से  पिलाये  बगैर   ही ।।2


बादल में है जुनून जमीं की तपिश को देख ।

बरसेगा  क्या  ये अब्र  भी  छाए  बग़ैर  ही ।। 3


गहरे यकीं  के साथ  हों  गर हौसले बुलंद ।

झुकती  है  कायनात   झुकाए  बग़ैर   ही ।।4


किस किस का इंतजाम करेंगे यहाँ हुजूर ।

जब  आ  रहे  हैं  लोग  बताए  बगैर  ही ।। 5


क़ातिल का शातिराना ये अंदाज  देखिए ।

करता है कत्ल  नजरें  उठाये  बग़ैर  ही ।। 6


उम्मीद  जिन से थी कि वो शब भर रुकेंगे आज ।

वो जा रहे हैं हाथ मिलाए बग़ैर ही ।।7


ऐसी सजा मिली है मुझे आशिकी में यार ।

मैं  जी  रहा  हूँ  उसको  भुलाए  बग़ैर ही ।।8


ये खासियत  या  ऐब है इस  हुस्न का  तेरे ।

जलते  तमाम  दिल  हैं  जलाए  बगैर   ही ।। 9


                - नवीन

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