मुक्तक
एक नारी का जीवन भी अभिशाप है ।
जन्म लेना बना क्यों महापाप है ।।
भेडियों के लिए ,जिन्दगी क्यों बनी ।
हे विधाता तेरा ,कैसा संताप है ।।
अब तो जाएँ तो जाएँ कहाँ बेटियां ।
सर को अपने छिपायें कहाँ बेटियां ।।
इस ज़माने की नजरों को क्या हो गया।
घर में लूटी गयीं , बेजुबां बेटियां ।।
जुर्म की दास्ताँ भी लिखी ना गयी ।
लाश देखो जली-अधजली रह गयी।।
जब दरिंदों ने बारिस की तेजाब की।
वो तड़पती विलखती पडी रह गयी।।
माँ की ममता भी, कैसी पराई हुई ।
आफतें जान पर , उसकी आई हुई।।
कोख में जिन्दगी , माँगती बेटियां ।
दहशते मौत से , वो सताई हुई ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
एक नारी का जीवन भी अभिशाप है ।
जन्म लेना बना क्यों महापाप है ।।
भेडियों के लिए ,जिन्दगी क्यों बनी ।
हे विधाता तेरा ,कैसा संताप है ।।
अब तो जाएँ तो जाएँ कहाँ बेटियां ।
सर को अपने छिपायें कहाँ बेटियां ।।
इस ज़माने की नजरों को क्या हो गया।
घर में लूटी गयीं , बेजुबां बेटियां ।।
जुर्म की दास्ताँ भी लिखी ना गयी ।
लाश देखो जली-अधजली रह गयी।।
जब दरिंदों ने बारिस की तेजाब की।
वो तड़पती विलखती पडी रह गयी।।
माँ की ममता भी, कैसी पराई हुई ।
आफतें जान पर , उसकी आई हुई।।
कोख में जिन्दगी , माँगती बेटियां ।
दहशते मौत से , वो सताई हुई ।।
नवीन मणि त्रिपाठी