तीखी कलम से

रविवार, 4 नवंबर 2018

क्या बता दूं कि तुझमे क्या देखा

कुछ   मुहब्बत तो  कुछ  गिला देखा ।
क्या  बता  दूँ  कि तुझमें  क्या  देखा ।।

अश्क आँखों  से  कुछ  ढला  देखा ।
दिल  कहीं  आपका  फ़िदा   देखा ।।

इक   पुरानी  किताब   खोली  तो ।
खत  कोई  आपका  लिखा  देखा ।।

तेरे   चेहरे   का    नूर    लौटा   है ।
जब  भी  तूने   वो  आइना  देखा ।।

बारहा   पूँछता    है   वो    मुझसे ।
आपने   क्या   बुरा   भला  देखा ।।

हट  गया  फिर यकीन  कुदरत  से ।
कोई    तारा    जो    टूटता   देखा ।।

जख्म  जो   थे  मिले  मुहब्बत  में ।
घाव  अब  तक  नहीं  भरा  देखा ।।

रात  ये  भी  सियाह  होगी  अब ।
गेसुओं   को   तेरे   खुला   देखा ।।

इस  तरह  बेनकाब   मत   चलिए।
फिर दिलो  से  धुआं  उठा  देखा ।।

बात   कुछ  तो  है  हुस्न   में  तेरी ।
बारहा    उनको    घूरता    देखा ।।

बेच    देती   है   आबरू  अपनी ।
भूख  को   मैंने   बे   हया   देखा ।।

सारी   दुनिया   गुलाम  है उनकी ।
हुस्न  वालो   को   लूटता   देखा ।।

मांग  बैठा  जो  वफ़ा  की कीमत।
आदमी  को  बहुत  ख़फ़ा  देखा।।

            नवीन मणि त्रिपाठी

कोई ले गया मेरा चाँद है मेरे आसमाँ से उतार कर

11212 11212. 11212. 11212

हुई   तीरगी   की   सियासतें   उसे   बारहा   यूँ  निहार  कर ।
कोई  ले  गया  मेरा  चाँद  है   मेरे  आसमाँ  से  उतार  कर ।।

अभी क्या करेगा तू जान के मेरी ख्वाहिशों का ये फ़लसफा ।
 जरा तिश्नगी की खबर भी कर कोई शाम  एक गुज़ार कर ।।

मेरी  हर वफ़ा के जवाब  में  है  सिला मिला मुझे  हिज्र का ।
 ये  हयात  गुज़री  तड़प  तड़प गये दर्द तुम जो उभार कर ।।

ये  शबाब  है  तेरे  हुस्न  का  या  नज़र  का  मेरे  फितूर है ।
खुले  मैकदे  तो  बुला  रहे  तेरे  तिश्ना लब को पुकार कर ।।

हैं  विरासतों  में  तमाम  गम  मेरे  सब्र  का  न ले  इम्तिहाँ ।
जरा  मुस्कुरा  के तू  पास आ  मेरा खुशनुमा ये दयार कर ।।

जो निभा सके नहीं उम्र भर  उसे  दोस्ती का भी हक नहीं । 
वो  तो  फैसला  ये  सुना गया मुझे दुश्मनों  में शुमार कर ।।

यहां  बिक  रहीं  हैं  मुहब्बतें  है  खरीदना  तो  खरीद  ले।
तू वफ़ा की अब न तलाश में नई जिंदगी को निसार कर ।।

नये  किस्म  का  है  ये शह्र भी नए आशिकों का ये दौर है ।
 कहीं लग न जाये नज़र तुम्हें न चलो यूँ जुल्फें सँवार कर।।

- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

हम देखते ही रह गए दिल का मकां जलता हुआ

2212 2212 2212 2212

आसां कहाँ यह इश्क था मत पूछिए क्या क्या हुआ ।
हम देखते  ही  रह गए दिल का मकाँ  जलता हुआ ।।

हैरान   है   पूरा   नगर   कुछ  तो  ख़ता   तुमसे   हुई ।
आखिर मुहब्बत पर तेरी क्यों आजकल पहरा हुआ ।।

पूरी  कसक  तो  रह  गयी  इस  तिश्नगी  के  दौर  में ।
लौटा तेरी महफ़िल से वो फिर हाथ ही मलता हुआ ।।

दरिया  से  मिलने  की  तमन्ना   खींच  लायेगी  उसे ।
बेशक़  समंदर आएगा साहिल तलक  हंसता हुआ ।।

मुमकिन  कहाँ  है जख्म गिन  पाना नये हालात में ।
घायल  मिला है वह मुसाफ़िर वक्त का मारा हुआ ।।

यूँ ही ख़फ़ा क्यूँ हो गए किसने कहा कुछ आपको ।
क्यों  मुस्कुराना   आपका  बेइंतिहा  महँगा  हुआ ।।

जब  आसमाँ से चाँद उतरा था मेरे  घर  दफ़अतन ।
इस शह्र में इस बात का भी मुख़्तलिफ़ चर्चा हुआ ।।

जब सर  उठाने  हम  चले  खींचे गये  तब  पॉव  ये ।
उनको  गवारा  था  कहाँ  देखें  हमें  उठता  हुआ ।।

अब इस कफ़स के दायरे से खुद को तू आज़ाद कर।
कहता  गया  मुझसे  परिंदा फिर कोई उड़ता हुआ ।।

           --नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित
1222 1222 1222 1222
महल  टूटा  जो ख्वाबों  का बड़ा ख़तरा  नज़र  आया ।
गुलिस्ताँ  जिसको  समझा  था  वही  सहरा  नजर आया ।।

बहुत  सहमा  है  तब  से  मुल्क  फिर  खामोश  है  मंजर।
उतरते   ही  मुखौटा   जब   तेरा  चेहरा   नजर   आया ।।

अजब  क़ानून  है  इनका  मिली  है   छूट   रहजन   को ।
मगर   ईमानदारों    पर    बड़ा   पहरा    नज़र   आया ।।

सियासत   छीन   लेती   होनहारों   के   निवालों    को ।
हमारा   दर्द   कब  उनको   यहाँ  गहरा  नजर  आया ।।

वो  भूँखा  चीखता  हक   माँगता  मरता  रहा   लेकिन ।
मेरे  घर  का  कोई  मुखिया  मुझे  बहरा  नजर आया ।।

बहुत   बेख़ौफ़  होकर  अम्न  का  सौदा  किया  उसने ।
चमन में जब तलक  अम्नो सुकूँ  ठहरा  नजर  आया ।।

गरीबों   पर  शिकारी  भेड़िया  तब तब  किया  हमला ।
लहू  का  जब  उसे  कोई  कहीं  कतरा  नज़र  आया ।।

जिसे   हर   हाल  में   अपनी   बड़ी   कुर्सी  बचानी  है ।
वही  जनता  की  नजरों  से  बहुत  उतरा  नज़र आया ।।

यहाँ  तो  लोग  पढ़  लेते  हैं  साहब  आपकी  फ़ितरत ।
नये जुमलों  से  ये मंजर बहुत बिखरा नज़र  आया ।।

खुलेंगी  दर  परत  दर  साजिशें  बेशक  करप्शन  की ।
कोई  हाकिम  तुम्हारी  बात  से  मुकरा  नज़र  आया ।।

जो   चर्चा    छेड़    दी    मैंने   तुम्हारे   कारनामे   पर ।
जुबां  पर  दर्द  लोगों  का  बहुत  उभरा  नज़र  आया ।।

हजारों   कोशिशों   के   बाद  भी  पहुँचा   नहीं   कोई ।
तुम्हारे  दिल  का तो रस्ता बहुत  सँकरा  नज़र  आया ।।
          -नवीन मणि त्रिपाठी
          मौलिक अप्रकाशित

याद मुझको तेरी हर एक निशानी आई

2122 1122 1122 22

शायरी  फख्र  से  महफ़िल   में    सुनानी  आई ।
आप   आये  तो  ग़ज़ल  में  भी   रवानी  आई ।।

लौट  आयीं    हैं  तुझे    छू   के  हमारी   नजरें ।
जब    दरीचे     पे    तेरे   धूप    सुहानी   आई ।।

पूछ    लेता    है   वो   हर   दर्द   पुराना   मुझसे ।
अब  तलक  मुझको   कहाँ  बात  छुपानी  आई ।।

तीर  नजरों  से  चला  कर  के  यहां  छुप  जाना ।
नींद    मेरी    भी   तुझे    खूब    चुरानी   आई ।।

मुद्दतों  बाद  जो  गुजरा  था  गली  से   इकदिन ।
याद  मुझको   तेरी   हर   एक   निशानी   आई ।।

दर्द   पूछा  जो  किसी  ने  तो  जुबां  पर उसकी ।
बारहा   ज़ुल्म   की   तेरी   वो    कहानी   आई ।।

रह गया अब कहाँ शिकवा गिला तुझसे साकी ।
मेरे   हिस्से  में   जो   बोतल  थी  पुरानी  आई ।।

रहजनों की है नज़र अब तो सँभल कर निकलो ।
बज़्म   से   लुट  के  हर इक बार  सयानी आई ।।

हो  गए  खूब  फ़ना  ज़ुल्फ़ पर  लाखों आशिक ।
जब  भी  चेहरों   पे   कहीं  सुर्ख  जवानी  आई ।।

           नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

वक़्त इतना सिखा गया है मुझे

2122    1212   112/22
फख्र से फिर  छला  गया  है  मुझे ।
ज़ह्र   बेशक  दिया  गया  है  मुझे ।।

वो सियासत में दांव चलचल कर ।
मकतलों तक बुला गया  है  मुझे ।।

फिर  मिटाने  की  साजिशें  लेकर ।
वो  गले  से  लगा  गया  है  मुझे ।।

खूब   करता    है  रोज   तकरीरें ।
रफ़्ता रफ़्ता जो खा गया है मुझे ।।

जिंदगी   एक    तिश्नगी   भर   है ।
वो हकीकत  जता  गया  है  मुझे ।।

छेड़ना  हक़  की  बात  मत  यारो ।
फैसला  वह  सुना  गया  है मुझे ।।

फ़िक्र का जिक्र करके ज़ालिम तो।
बेख़ुदी   में  जला  गया  है   मुझे ।।

हूँ   मैं खामोश  ज़ुल्म पर  कितना ।
सब्र  करना  तो आ  गया  है मुझे ।।

अब न कीजै  यकीन  जुमलों  पर ।
वक्त  इतना  सिखा  गया  है मुझे ।।

तुम  तरक्की  पे  मत  करो  चर्चा ।
कायदा  वो  पढ़ा   गया  है  मुझे ।।

तख़्त   देते   हैं  मन्दिरो   मस्जिद ।
राज   कोई   बता  गया   है  मुझे ।।

           नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

हटा नक़ाब फ़िज़ा में ज़माल कर तो सही

1212 1122 1212 22/112
खिज़ां  के दौर में जीना मुहाल कर  तो सही ।
मेरी वफ़ा पे  तू  कोई  सवाल  कर तो सही ।।

है इंतकाम  की  हसरत अगर जिग़र  में तेरे ।
हटा नकाब फ़िज़ा में  जमाल  कर तो सही ।।

निकल  गया  है तेरा चाँद देख  छत  पे ज़रा ।
तू  जश्ने  ईद में मुझको हलाल कर तो सही ।।

बिखरता  जाएगा  वो  टूट कर शजर से यहां ।
निगाह से तू ख़लिश की मज़ाल कर तो सही ।।

मिलेंगे  और  भी  आशिक तेरे  जहां  में अभी ।
तू अपने हुस्न की कुछ देखभाल कर तो सही ।।

ऐ अब्र दम है तो  सावन सा इस जमीं पे बरस ।           
तपिश में जलते गुलों को निहाल कर तो सही ।।

यहां तो कुर्सियां मिलती हैं कातिलों को सनम ।
मुसलमां  हिन्दू  में  दंगा- बवाल  कर तो सही ।।

तुझे  खुदा भी  मैं  शिद्दत  से मान जाऊं मगर ।
सियाह  रात  है  कोई  कमाल  कर  तो  सही ।।

तिज़ारतों  का  असर  है  मुहब्बतों   पे   बहुत ।
तू  अपने  भाव  में थोड़ा  उछाल कर तो सही ।।

ज़माना  लौट  भी  सकता  है हसरतों के  लिए ।
ऐ  हुक्मरान  सितम  पर  मलाल  कर तो सही ।।

गली से निकला है तू फिर से अजनबी की तरह ।
मेरे  अज़ीज़   मेरा   भी  खयाल  कर  तो  सही ।।

        मौलिक अप्रकाशित
        नवीन मणि त्रिपाठी

नज़र से किसी को गिराने से पहले

मेरी  हर  निशानी   मिटाने   से   पहले ।
वो  रोया  बहुत  भूल  जाने  से  पहले ।।

गयी   डूब   कश्ती   यहाँ   चाहतों  की ।
समंदर  में  साहिल  को पाने  से पहले ।। 

जफ़ाओं  के मंजर  से  गुज़रा  है  कोई ।
मेरा  ख़त  गली  में जलाने  से  पहले ।।

वो  दिल  खेलने  के  लिए  मांगते   हैं ।
मुहब्बत   की  रस्मे  निभाने  से पहले ।। 

ये  तन्हाइयां   हो   न  जाएँ   सितमगर ।
चले   आइये    याद  आने   से   पहले ।।

मेरे  हाल  पर  छोड़  दे मुझको जालिम ।
मुझे   और  सपने   दिखाने  से   पहले ।।

जमाने  की  तासीर  समझा  करो  तुम ।
किसी  दिल  पे  जादू चलाने से पहले ।।

वो  देकर   गया  है  नई   इक  चुनौती ।
मेरा   हौसला   आजमाने   से  पहले ।।

बुलन्दी  पे  लाने  की  आदत  है उनकी ।
नज़र  से  किसी  को  गिराने से पहले ।।

यकीं कैसे कर लूं मैं तुझ पर ऐ  जालिम ।
शराफत   का  मंजर  दिखाने  से  पहले ।।

तस्सवुर   जवाँ    हो   गए   सब   हमारे ।
तुम्हारी   ग़ज़ल    गुनगुनाने   से   पहले ।।

है भौरों  को  पूरी  खबर  अब  कली  की ।
हवाओं    में   खुश्बू   समाने   से   पहले ।।
122 122 122 122
        नवीन मणि त्रिपाठी 
     मौलिक अप्रकाशित

ऐ अब्र ज़रा आग बुझाने के लिए आ

221-1221-1221-122.
तपती जमीं  है आज तू छाने  के  लिए आ ।
ऐ  अब्र  जरा  आग  बुझाने  के  लिए आ ।।

यूँ ही न गुजर जाए कहीं तिश्नगी  का  दौर ।
तू   मैकदे  में   पीने  पिलाने  के लिए आ ।।

ये जिंदगी तो हम ने गुज़ारी है खलिस में ।
कुछ दर्द मेरा  अब तो बटाने के  लिए आ ।।

जब  नाज़  से  आया है कोई  बज़्म में  तेरी ।
क़ातिल तू हुनर अपना दिखाने के लिए आ।।

शर्मो हया है तुझ में तो वादा निभा  के  देख ।
मेरी  वफ़ा  का कर्ज  चुकाने  के  लिए आ ।।

टूटे न मुहब्बत का भरम इस जहाँ से अब ।
मेरे  लिए  तू  छोड़ , ज़माने  के लिए आ ।।

तन्हाइयों  में  चैन  मयस्सर  तुझे  है  कब।
अम्नो  सुकूँ  से रात  बिताने  के लिए आ ।।

खो  जाए  उमीदें  न  कहीं  वस्ल  की  मेरी ।
सोया  है  मेरा ख्वाब  जगाने  के  लिए आ ।।

चर्चा   में  तेरी   खूब   रही  सख़्त   हुकूमत ।
अब  हुक्म मेरे  दिल पे चलाने के लिए आ ।।

इल्जाम   लगा  बैठे   गुनाहों  के  तरफ़दार ।
गर  हो  सके  तू  नाज़  उठाने के लिए आ ।।

आती  नहीं  है  नींद तस्व्वुर  की जमीं  पर ।
ऐ हुस्न  मेरा  होश  मिटाने  के  लिए आ ।।

              -नवीन मणि त्रिपाठी

बात ही बात में रात ढलती रही

212 212 212 212
जिंदगी   रफ़्ता   रफ़्ता   पिघलती   रही ।
आशिकी  उम्र  भर  सिर्फ  छलती  रही ।।

देखते   देखते   हो    गयी   फिर   सहर ।
बात   ही   बात   में   रात   ढलती  रही ।।

सुर्ख लब पर  तबस्सुम  तो  आया  मगर ।
कोई  ख्वाहिश जुबाँ पर  मचलती  रही ।।

इक  तरफ  खाइयाँ  इक  तरफ  थे  कुएं ।
वो   जवानी   अदा   से   सँभलती  रही ।।

जाम जब आँख से उसने छलका  दिया ।
मैकशी   बे अदब   रात   चलती   रही ।।

देखकर अपनी महफ़िल में महबूब  को।
पैरहन   बेसबब    वह   बदलती   रही ।।

यूँ  ही ठुकरा गया हुस्न जब  इश्क़  को ।
तिश्नगी   उम्र  भर   हाथ  मलती  रही ।।

उस परिंदे की फितरत  है उड़ना  बहुत ।
बे  वज्ह  आपको   बात  खलती  रही ।।

बच गए हम तो क़ातिल नज़र से सनम ।
मौत  आंगन  में  आकर  टहलती  रही ।।

रेत    मानिंद    सहरा    में   वो हाथ की ।
मुट्ठियों   से   हमारी   फिसलती   रही ।।

दिल जलाने की साजिश लिए साथ में ।
वो   हमारी  गली  से  निकलती रही ।।

         नवीन मणि त्रिपाठी 
       - मौलिक अप्रकाशित

वो नादां उसे तज्रिबा ही नहीं है

अभी तो यहाँ कुछ  हुआ  ही  नहीं है ।
वो  नादां  उसे  तज्रिबा  ही  नही  है ।।

उसे ही  मिलेगी  सजा हिज्र  की अब ।
मुहब्बत में जिसकी ख़ता ही नहीं  है ।।

अगर आ गए हैं तो कुछ  देर  रुकिए ।
अभी  तो  मेरा  दिल भरा ही नहीं है ।।

है बेचैन कितना वो आशिक  तुम्हारा ।
कहा  किसने जादू  चला ही नहीं है ।।

जिधर जा रही वो उधर जा रहे हम ।
हमें जिंदगी  से  गिला  ही नहीं  है ।।

मिलेगा कहाँ  से  हमें  कोई  धोका ।
हमें  आप  का  आसरा  ही नहीं है ।।

बताने लगा है ये नफरत का लहज़ा ।
मेरा खत वो अबतक पढ़ा ही नहीं है ।।

भरोसा न कीजै यहाँ पर  किसी  का ।
सियासत में कोई  सगा ही  नहीं  है ।।

यहाँ हाले  दिल पूछते  हैं  वो  जैसे ।
कि उनको मेरा गम पता ही नहीं है ।।

करूँ अर्ज  कैसे  ज़माना है क़ातिल ।
चमन  में  कहीं  देवता ही  नहीं  है ।।

लगी आग बेशक जली दिल की बस्ती ।
धुंआ देखिये  कुछ उठा  ही नहीं  है ।।

नवीन मणि त्रिपाठी 
मौलिक अप्रकाशित