---*** ग़ज़ल***---
बाप को बदनामियों की ,फ़िक्र क्यों खाने लगी है ।
फिर मुहब्बत आम होने की खबर आने लगी है ।।
है लबो पर यह तकाजा , हम फ़ना हो जाएंगे ।
शम्मा परवानों से मिलने ,बे अदब जाने लगी है ।।
हो गया मौसम गुलाबी और पहरे सख्त हैं ये ।
क्यों बहारें इस तरह ,शाखों पे इतराने लगी हैं।।
जिस्म की बाज़ार में वह, इश्क़ गिरवीं रख गया है ।
वो मुहब्बत के तराने, फिर यहां गाने लगी है ।।
सोचकर चलना मुसाफिर,इश्क़ की फितरत समझ।
है मुकम्मल आग चाहत घर को जलवाने लगीं है ।।
जब कभी तहजीब को जश्नो ने तोडा बे कदर।
जुर्म की शय बन कहर , वह रोज बरपाने लगी है।।
- नवीन
बहुत उम्दा ग़ज़ल ,बधाई !
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