---***ग़ज़ल***---
अब नुमाइश तक मुहब्बत के सफ़र को ले चलो ।
आसमा तक हौसलों की इस खबर को ले चलो ।।
ये परिंदे धूप की लपटों में फिर जलने लगे हैं ।
जिंदगी की ख्वाहिशों तक उस शज़र को ले चलो ।।
ये ग़ज़ल तकसीम ना हो कायदों फतबों में अब।
महफ़िलों में जश्न तक सारी बहर को ले चलो ।।
है अदब तहजीब बाकी गाँव की गलियों में देख ।
उनकी देहरी तक वहाँ अपने शहर को ले चलो ।।
हों ना जाएँ गुम समंदर में ये जजबातें कहीं ।
तुम मुकम्मल साहिलों तक हर लहर को ले चलो ।।
जिसने रोज़े की दुआ की शक्ल में माँगा तुम्हें ।
अहले जिगर की बात तक पैनी नज़र को ले चलो।।
फिर दरिंदे नाग बनकर डस रहे मासूमियत को ।
चैन आने तक यहां से इस जहर को ले चलो ।।
- नवीन मणि त्रिपाठी
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-02-2015) को "बम भोले के गूँजे नाद" (चर्चा अंक-1891) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय मयंक जी नमस्कार
हटाएंआप द्वारा उक्त अंक में मेरी इस रचना की चर्चा नहीं हुई है । शायद भूल गए आप ।