तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

                 प्रायश्चित  
                                                          -नवीन मणि त्रिपाठी 

      उन दिनों जमशेद पुर में फैक्ट्री में फोर्जिंग प्लांट पर मेरी ड्यूटी थी  फोर्जिंग  प्लांट अत्यंत व्यस्त हो चुके थे। मार्च के महीने में टार्गेट पूरा करने प्रेशर जोरो पर था । बिजली के हलके फुल्के फाल्ट को नजर अंदाज इसलिए कर दिया जाता था क्यों कि सिट डाउन लेने का मतलब था उत्पादन कार्य को बाधित करना जिसे बास कभी भी बर्दास्त नहीं कर सकते थे । फिर कौन जाए बिल्ली के गले में घण्टी बाँधने । जैसा चल रहा है चलने दो बाद में देखा जायेगा । सेक्शन में लाइटिंग की सप्लाई की केबल्स को बन्दरों ने उछल कूद करके अस्त व्यस्त कर रखा था । कई जगह से केबल्स के इंसुलेशन भी उधड़ चुके थे । ये केबल्स सेक्शन के एक पिलर से होकर जाती थीं । वहीँ एक एंगल के किनारे गिलहरियों ने अपना घोसला बना रखा था । सेक्शन में एक ओवर हेड क्रेन भी चलती थी  । क्रेन चलाने के लिए तीन फेज सप्लाई की जरुरत होती थी यह सप्लाई नंगे ओवर हेड तारों से ली जाती थी तारों पर कोई इन्शूलेशन नहीं होता  क्यों कि इन्ही तारों पर क्रेन की सप्लाई के टर्मिनल में लगे रोलर  घूम कर चलते थे । इन्ही तारों की वजह से कई बार बन्दरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। एक बार तो एक बन्दर के बच्चे ने गलती से तार को छू लिया और चिपक गया था फिर उसकी माँ  उसे बचाने की कोशिस में चिपक गयी और बाकी दो और भी चिपक गये थे जो शायद उनकी सहायता में पहुचे थे । इस तरह चार बन्दरों की मौत एक साथ होना एक दुःखद हादसा था  । उनके चिपकने से एक फेज का फ्यूज उड़ गया था । अतः लाइन काट कर उन्हें उतारा गया था उसके बाद फिर सप्लाई चालू कर दी गयी थी । इन मशीनों के बीच में रहते रहते हम भी कितने मशीन बन चुके थे इस बात का आकलन तब हुआ था जब बॉस के चेहरे पर बन्दरों की मौत के बजाय सप्लाई चालू होने की ख़ुशी देखी थी । सप्लाई चालू होते ही वे मुस्कुराते हुए ऑफिस में चले गए थे । संवेदनाये इतनी निष्ठुर भी हो सकती हैं ये बात सोचते सोचते मैं भी मशीनों के बीच काम में गुम हो गया था ।
      उस दिन कुछ महीनो बाद मेंटिनेंस के लिए मेरी सन्डे ड्यूटी लगाई गयी थी । सन्डे के दिन उत्पादन कार्य नहीं होता था सिर्फ प्लांट का मेंटिनेंस का कार्य होता था उस दिन बिजली की सप्लाई कांटेक्ट मोटरें और पैनल के अन्य पुर्जो की जाँच और मरम्मत का कार्य होता। दिए गए कार्य पूरे हो चुके थे । शाम 4 बजे तक कार्य पूरा हो चुका था । ऑफिस में इसी बीच मैकेनिकल ग्रुप के इंचार्ज कौसर अजीज भाई फुरसत के क्षणों में गप शप करने के वास्ते कमरे में दाखिल हो गए ।
  " अरे भाई तिरपाठी ! का हाल चाल  है यार " ।
" आओ कौसर भाई चाय आ रही है । अभी काम से फुरसत मिली है । और अपना सुनाओ ? "
मैंने कौसर भाई को बैठने का इशारा किया।
कौसर भाई बैठ तो गए लेकिन सामान्य से हट कर कुछ शांत थे और विचार मन्थन करते नजर आये ।
  " क्या हुआ भाई जान आज इतना शांत क्यों "।
" अरे यार चिंता हो गयी है "।
"किस बात की चिंता कौसर भाई? मैंने उत्सुकता बस उनसे पूछ लिया ।
   अरे ऊ पिलर पर गिलहरी जो घोसला लगाये है । उसके दो बच्चे हैं और कल ऊ बच्चवन की माँ बिजली वाले तारो में फंस गयी थी । "
" फिर क्या हुआ ?" मैंने पूछा ।
" फिर का भड्ड से हुआ । जइसे दग गयी हो । नीचे गिरी तो देखा जल के मर गयी ...... लेकिन ज्यादा बुरा ई हुआ उके लेदा  जइसन बच्चवन का का होगा ? वहीँ चिचियां रहे हैं कल से । मर तो जाएंगे ही ............
तिरपाठी यार कुछ सोचो उनके लिए .....।
    कौसर अजीज इतना कहते कहते कुछ गम्भीर हो गए ।
" ई के इंचार्ज तुम ही हो कितना पाप करोगे यार ? रोज बेचारे निर्दोष पशु पक्षी इसमें मरते हैं ......... तुम लोग गीदड़ होइ गए हौ ... बॉस के सामने मुँह से आवाज ही गायब हो जाती है । ये पाप झेलोगे भी तुमही लोग ।"
    कौसर भाई की बातों में दम था । वे मुस्लिम परिवार में पले बढे थे । बे मिशाल करुणा भाव के स्वामी थे । वह बहुत अच्छे गायक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति थे। कलाकार मन वाकई बहुत सरल होता है। उनकी यह धिक्कार मेरे अंतर्मन को झकझोर गयी थी और मैं अपने आप को अपराध बोध से नहीं बचा सका था। सहसा मेरे मानस पटल पर वह पुरानी बात किसी सिनेमा रील की तरह घूम गयी थी जब मेरी मोटर सायकल के नीचे एक गिलहरी दब कर मर गयी थी । मुझे उसके बारे में तरह तरह के ख्याल आये थे मैं काफी चिंतित हुआ था। गलती मेरी ही थी मोटर सायकल की स्पीड तेज थी और गिलहरी तेजी के साथ सड़क को पार करते समय पाहिये के नीचे आ गयी थी। जब यह दुर्घटना हुई तो मैं काफी दिनों तक मानसिक संत्रास झेलता रहा था । मुझे लगा था कि गिलहरी जब मरी थी तो वह मुह में दबाये हुए कुछ ले जा रही थी शायद बच्चों के लिए । वो बच्चे उसका इंतजार किये हुए होंगे ....फिर उन बच्चों का क्या हुआ होगा ......। ये सारी बातें आज भी मुझे व्यथित कर जाती थीं । बार बार सोचता था प्रभु मेरा यह पाप कैसे उतरेगा ।
     मन में विचार आने लगे शायद भगवान ने मुझे प्रायश्चित करने का अवसर दिया है । अचानक तन्द्रा टूटी और पत्नी का ख़याल आया । वह आधात्मिक विचारधारा से युक्त है जीवों के लिए दया भाव तो है पर उन्हें पलना पोषना वह पाप की परिधि में लाती हैं। उनका मनना है कि इस से जीवों की स्वच्छंदता प्रभावित होती है और मनुष्य में आसक्ति पनपती है । यह आसक्ति पाप की परिचायक है । वह जीवन भर कुत्ता बिल्ली तोता खरगोश आदि के पालने की विरोधी रही हैं  । मैं जनता था वह किसी भी कीमत पर बर्दास्त नहीं करेंगी और मुझे इन बच्चों को वापस लाना ही पड़ेगा ।
     चाय आ चुकी थी कौसर भाई ध्यान मग्न होकर चाय की चुस्की ले रहे थे तभी उन्होंने फिर कहा -
"अरे भाई तिरपाठी ये देखो कुछ सुना ".........
"मैं कुछ समझ नहीं पाया भाई आपने क्या सुना ?  " मैंने कौसर भाई से पूछा ।
" ई उनही गिलहरी के बच्चवन की आवाज है। कितनी दूर तक ई आवाज पहुच रही है । आओ चलौ हमरे साथ हम दिखाते हैं ।"
    इतना कहते ही वह चल पड़े । वहां पहुँच कर वह पिलर पर चढ़ गए घोसले में से चार बच्चों को निकाला । दो भोजन पानी के आभाव में मर चुके थे दो जीवित बचे थे ।
"ई देखो तिरपाठी ई दोनों भी आज कल मा मरि जइहैं ।
   ऐसा करो इनका तुम घर लइ जाओ रुई से दूध ऊध पिलाइहौ तौ जी जइहैं । "
     बच्चे बेहद कोमल थे परंतु मुरझाये हुए थे । काफी क्षीण अवस्था में थे । अगर उन्हें उसी घोसले में फिर रख देते तो उनकी मृत्यु निश्चित थी । अतः मैंने फैसला कर ही लिया था कि कुछ भी हो इन्हें जिन्दा रखने की  कोशिस जरूर करूँगा । उन्हें टेबल पर रख कर देखा तो थोडा बहुत चल लेते थे । भूखे होने की वजह से बहुत कमजोर हो गए थे । कुछ देर तक हथेली पर रख कर ध्यान से देखता रहा । ड्यूटी ख़तम हो चुकी थी , ईश्वर का नाम लेकर उन्हें घर ले आया ।
     घर लाते ही पत्नी ने पूछा ये डिब्बे में क्या है ? मैंने एक साँस में गिलहरी के बच्चों की कहानी सुना डाली । पत्नी के चेहरे पर एक अजीबो गरीब आकृति उभर आयी । आवेशित होकर बोल पड़ी
"आखिर ये जो महाशय आपको रास्ता दिखाए हैं वो क्यों नहीं ले गए इन्हें अपने घर ? आप ही बेवकूफ मिले थे ये पाप कमवाने के लिए । ये छोटे छोटे बच्चे कैसे जिएंगे, मर जाएंगे । मैं तो इस पाप के किनारे नहीं जाउंगी । आप जानो आप का काम जाने ।"
   उनका यह उपदेश चल ही रहा था तब तक मेरे दोनो बच्चे भी आ गए । गिलहरी के बच्चों को देखकर वे काफी खुश और उत्साहित नजर आए ।
बड़े बेटे ने प्रतिवाद किया -
" तो क्या" क्या हुआ मम्मी ..... वैसे भी मर जाते  कोशिस करने में क्या जाता है । थोड़े बड़े हो जाएंगे तो छोड़ देंगे ।इनकी जान बच जायेगी तो सबको ख़ुशी होगी । "
   छोटा बेटा पुनीत भी समर्थन में उतर आया ।
"मम्मी आप मान भी जाओ बच्चों को मरने नहीं देंगे हम लोग । "
   "ठीक है जैसी मर्जी हो करो हम किनारे नहीं जाएंगे  । हमें नहीं कमाना है कोई पाप ।" पत्नी ने झुंझलाते हुए कहा ।
"आप चिंता मत करो हम सब लोग मिलकर पाल लेंगे ।"
विनीत ने उन्हें सांत्वना दिया ।
  एक कटोरी में विनीत गाय का दूध ले आया । बच्चों के मुह को कई बार दूध तक लाया गया । दूध में मुह भी डुबोया गया लेकिन वे बच्चे दूध पीना ही नहीं जानते थे । फिर कौसर भाई की बात याद आयी  । रुई की बाती दूध से भिगो कर उनके मुह पर रखोगे तो पिएंगे ।  बाती को दूध से भिगो कर जब बच्चों के मुह तक लाया गया तो वे बच्चे माँ का थन समझ बाती को चूसने लगे  । इस तरह उनके दूध पीने का श्री गणेश हो चुका था। उन्हें जब लगातार हर दो घण्टे तक पर दूध दिया गया तब वे दो तीन दिनों के बाद स्वस्थ नजर आने लगे । उनके जीवित रहने की उम्मीद भी जाग गयी । उन्हें स्वस्थ होते देख पत्नी भी काफी खुश दिखने लगीं ।
    एक सप्ताह बाद अब वे बिस्तर पर चलने फिरने लगे थे । बच्चों ने उनके लिए गत्ते के एक डिब्बे में रुई डालकर घोसला बना दिया था । गत्ते में पेन से कई छोटे छोटे छेद कर दिया था जिससे हवा आती जाती रहे । एक बिल्ली का भी कभी कभी घर में आना जाना होता था इस लिए उसको ध्यान में रखकर मजबूती को पहले ही परखा जा चुका था। कोई बिल्ली उसे खोल ना सके इसलिए गत्ते में एक लाक की भी व्यवस्था की गयी थी । उनका बिस्तर पर टहलना चीं चीं चिक चिक करना । फिर एक दूसरे को ढूढ़ना सब कुछ बहुत मनोरंजक हो गया । बच्चों की चंचलता उनका खेलना कूदना देख कर पत्नी मन्त्र मुग्ध हो जातीं थी । अब वह बच्चों की स्पेशल केअर टेकर बन चुकीं थीं । मोहल्ले के बच्चे भी उन्हें देखेने अपने पापा मम्मी को साथ में लेकर आने लगे   । मेरी फैक्ट्री के एक अधिकारी महोदय भी उन्हें देखने गए । बच्चों का दूध पीते वीडियो भी बनाया।
   एक दिन एक बच्चे का पेट फूल आया काफी सुस्त हो गया । किसी ने कहा सबको मत दिखाया करो । नज़र लग जाती है । बस तब से सावधानी बरती जाने लगी । हाजमा सही करने के लिए दूध को पतला कर दिया गया । दो दिन वह बच्चा स्वस्थ हो गया ।
    लगभग 15 दिन बीत चुके थे । वे बच्चे अब बिस्तर के बजाय फर्श पर टहलने लगे थे । उनके चाल में गति आ गयी थी चिक चिक चीं चीं की आवाज से अब पूरा घर गूँज उठता था । सुगमता से पकड़ में नहीं आते थे । आवाज देकर बुलाने पर वे करीब आ जाते और पैरो पर चढ़ जाते  फिर कन्धों तक पहुच जाते
फिर उतर कर भाग जाते । वे दूध अभी भी पीते थे । कभी बिस्तर पर आ जाते कभी तकिये के पीछे छिप जाते तो कभी परदे पर चढ़ जाते । बहुत ही मनोरंजक दृश्य उत्पन्न हो जाता था । पूरा परिवार अब टी वी के बजाय इनके खेल से आनंदित होने लगा था   । मेरे सामने चुनौतियाँ  बढ़ गयीं थी ।
अब इन्हें इनके मूल प्राकृतिक वातावरण की ट्रेनिग देनी थी । अब मैं इन्हें दरवाजे की फुलवारी में टहलाने लगा था । गुड़हल के पेड़ पर चढ़ जाना और उतर आना ये सब करतब ये सीख चुके थे । वहां अन्य गिलहरियां भी आती थी । चावल के कुछ दाने मैं जान बूझ कर वहाँ फेक देता था जिस से अन्य गिलहरियां वहां आकर रुके और बच्चों को अपनी कंपनी में शामिल कर लें   । और दूसरा उद्देश्य ये था कि बच्चे शायद देख कर अनाज के दाने खाने प्रारम्भ कर देंगे । गिलहरियां आने लगी थोडा बच्चों के करीब आतीं और फिर वापस चली जाती । इन बच्चों के प्रति उनके मन में कोई विशेष आकर्षण नहीं देखा गया  और ना ही दाना चुनते देख ये बच्चे उनसे प्रेरित ही हुए । यह क्रम भी एक सप्ताह तक चलता रहा ।
     रविवार के दिन मेरी छुट्टी थी । सवेरे बच्चों को बाहर निकाला । उनमे से एक बहुत सुस्त नजर आया । ध्यान से देखा तो उसे दस्त आ रहा था । घोसला बदला गया । दूसरे घोसले की डेटॉल से सफाई की गई । बच्चे की भी सफाई की गयी । मेडिकेटेड रुई घोसले में डाली गयी । बच्चे को मिनिरल वाटर दिया गया । उसने पानी काफी तेजी से पिया ऐसा लगा जैसे उसके शरीर में पानी की काफी कमी हो गयी हो । थोड़ी सुस्ती कम हुई लेकिन समाप्त नहीं हुई । पानी मिला दूध भी दो बार दिया गया । थोड़ी सी चैतन्यता आयी। पता नहीं क्यों  जिस दूध को पीने के लिए वह प्रतिस्पर्धा रखता था आज वही दूध पीना उसे पसंद नहीं आ रहा था । दूसरे दिन सोमवार को वह बिलकुल सुस्त हो गया ।


             दस्त की समस्या अनियंत्रित होती जा रही थी । विकल्प के तौर पर मेरे पास ओ आर एस का घोल था हम उसे दे रहे थे । हर पांच मिनट पर एक दो बूँद घोल उसके मुह में डाल देते । कुछ पीता कुछ उगल देता । इसी बीच दूसरे बच्चे की हालत भी ख़राब हो गयी । वह कापने लगा थोड़ी देर बाद उसे भी वही समस्या तेज दस्त से उसकी भी स्थिति चिंता जनक होने लगी । पहले वाले बच्चे की स्थिति अब ज्यादा ख़राब हो गयी थी । पत्नी उसके लिए महा मृत्युंजय का जप कर रहीं थी । शाम सात बजे तक उसके हाथ पैर ऐठने लगे थे । अब बेहोशी की स्थिति में पहुच चुका था । दूसरा वाला भी काफी कमजोर हो गया था उसे मेट्रोजिल का सीरप भी  दिया गया । कोई सुधार नही हो पा रहा था ।
     घर पर पूरा परिवार दुखी था । क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था । दूसरे बच्चे के इलाज की भी वही प्रक्रिया चल रही थी। मेरी नाइट शिफ्ट ड्यूटी थी ड्यूटी जाना जरुरी था क्यों कि बाकी लोग छुट्टी पर थे । मैं ड्यूटी चला आया । रात भर उन बच्चों की चिंता मन में छाई रही । ईश्वर से प्रार्थना करता रहा। सवेरे पौने छः बजे छुट्टी होते ही घर पंहुचा तो देखा सब सो रहे थे । पत्नी ने बताया रात तीन बजे तक सब लोग उसके इलाज में लगे रहे एक तो लगभग बेहोश ही रहा दूसरा रात में तेज तेज कापने लगा था । विनीत उसका घोसला फ्रिज पर स्टेप लाइजर के पास रख आया था जिससे थोड़ी गरमी बनी रहे । मैं तुरंत फ्रिज के पास उनके घोसले तक गया । घोसला खोल कर देखा तो वे दोनों चेतना शून्य हो चुके थे । आँखे भर आईं । मैं पुनः अपराध बोध से ग्रसित हो गया । मेरी आत्मा ईश्वर से पूँछ रही थी हे ईश्वर अब इसका प्रायश्चित किस रूप में कराओगे ।
                                                 -नवीन मणि त्रिपाठी     

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

भगवान् परशुराम को समर्पित कुछ छंद

---***भगवान् परशुराम को समर्पित छंद***---

स्वाभिमान  सर्वथा  प्रतीक   बन  जाता  यहॉं ,
न्याय  पक्ष   के   प्रत्यक्ष   पूर्ण   परिणाम  हैं ।
मातृ शीष काट के प्रमाण जग  को  है  दिया ,
सिद्ग  साधना  के   प्रति   प्रभु   निष्काम  हैं ।।
सर्वनाश पापियों  का वीणा वो उठा के चले ,
फरसे  में   लहू  के  ना   दिखते   विराम  हैं ।
अभिमान  चूर  किया राजवँशियो  का  सदा,
दण्ड  की  प्रचण्डता  में   वीर  परशुराम  हैं।।


नीति के  नियंता  हैं अत्याचारियो  की  मृत्यु ,
निर्बल   मनुज   के   ढाल    बन   जाते   हैं ।
भृगु  के  प्रपौत्र  जमदग्नि   के  लाल   आज ,
न्याय  हेतु   क्रुद्ध  विकराल   बन  जाते  हैं ।।
दुष्ट  व्   लुटेरों   पे   प्रत्यंचा   को  खीचकर ,
पापियों  के  मन  का  मलाल  बन  जाते  हैं ।
राज  तन्त्र  चोर  व्   निरकुंश   नीतियां   तो ,
प्रकट  हो  परशुराम   काल   बन   जाते  हैं ।।



शिव  के  शिष्य पर  स्वयं शिव  अंश  भी  हैं ,
विष्णू   के   षष्ठ   अवतार    में    महान   हैं ।
धर्म     स्थापना    के    हेतु      है    समर्पित ,
परशुराम    संहार    के    ही    भगवान   हैं ।।
नीचता के  वंशज  को  गर्भ  में  मिटाने  वाले ,
असहाय  प्राणियो   के  मुख्य  अभिमान  हैं ।
एक  दन्त   नाम  गणपति का  उन्होंने  दिया,
माँ  के  जीवनदान  के  वो  पूर्ण  वरदान  हैं ।।




देता   सन्देश   आज   परशुराम   वंशज   को ,
अत्याचारी   शासकों  को  जड़  से  मिटाइये ।
जाति पाँति राजनीति जो भी  आज  करते  हैं ,
उनकी    निकटता    से   दूर    हट   जाइए ।।
हक  रोजगार   का  वो   छीनते   लुटेरे  आज ,
बच्चों  के   ना   हाथ  में   कटोरा  पकडाइये ।
हक  के  लिए ये  बलिदान  मांगता   है   कौम ,
फरसा   उठा    के   परशुराम    बन   जाइए ।। 

                                             -नवीन मणि त्रिपाठी

ये जिन्दा बोल मेरा है

गोलियों  से  तेरे  जज्बात  को  हम  फोड़ सकते हैं ।
बमो  से  हम  तेरी औकात  को  भी  तोल सकते हैं।।
ऐ मसरत जेल में सड़ के ही मरना है तेरी  फितरत।
हम सुबहो शाम जूतों  से  तेरा मुह  तोड़  सकते हैं ।।

देश  द्रोही  सजा  ए  मौत  का   हकदार  अब  तू  है ।
जो  गद्दारी  लिए  फिरता  वतन  का भार अब तू  है।।
ये  फांसी  का  तखत  है  देख ले पहचान  ले ढंग से ।
जिंदगी  बच  नही सकती  यहाँ  दिन चार अब  तू है ।।

जो  बैठे    हैं  तेरे  आँका   उन्हें   इतना  बता  देना ।
बाप   की  है  नहीं   जागीर  ये   कश्मीर   कह  देना।।
अगर दम है तो गीदड़ की  तरह  छुपते भला क्यों हैं।
नजर आते  नहीं  है  क्यों  खड़ा  हूँ  तानकर  सीना ।।

भूल   जाना   यहां   कश्मीर  अब   लाहौर  मेरा  है ।
बलूचिस्तान   में   जा   देख   ले   माहौल   मेरा  है ।।
जो  बाकी  है  बचा  कश्मीर  वो   मेरी  अमानत  है।
जला  दूंगा  तुझे  जिन्दा  ये  जिन्दा  बोल  मेरा  है।।

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

लोग चर्चा कर गए ये इश्क था उसका धरम

---***ग़ज़ल***---

जख़्म जिन्दा  हो  गए, जब से  हुआ  उनका  करम ।

तोड़  कर  वो  आ  गए,  मेरी   मुहब्बत   का  भरम।।

खैरियत  में   मांगता  था , मैं   दुआ   जिनके  लिए ।

वो  सजाएँ  लिख  गए , होना  मेरे सर  का  कलम।।

जब   कली   में   बन्द   भौरा,  मौत  से  था   रुबरु ।

लोग  चर्चा  कर   गए , ये  इश्क  था  उनका  धरम ।।

जिनका कातिल नाम, बख्सा है ज़माना अब तलक।

हम   हिमाकत  कर गए, हैं मांग  कर  उनका  रहम।।

ख्वाहिशों  की  जिद  ने  ढूढ़ा  आशनाई  का  चमन ।

ख़ाक में  मिलते गए ,फिर  मिट गया तन का जनम।।

इस  महल में  महफ़िलों की  शान था वह शख्स भी ।

ढ़ूढ़ते   ही   रह   गए ,   कैसे   जला   उसका  हरम ।।

 यूं  गुजरना  इस  गली  से  था  नहीं  वह  इत्तिफ़ाक ।

साजिशें   कर  के गए  ,  वो दिल   जलाने  का सनम।।

             -नवीन मणि त्रिपाठी

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

पल दो पल के मीत वेदना क्या समझेंगे

वे  अंतस   की  पीर   चेतना   क्या  समझेंगे ।
पल  दो  पल  के  मीत  वेदना  क्या  समझेंगे।।

सागर  के अंतर में  जब हो अग्नि प्रज्ज्वलित।
मेघों  को  मधुमास  करे जब  भी  आमन्त्रित।।
जब धरती  भी गहन तपन से अति अकुलाए ।
जब  पुष्पों  की  गन्ध  भ्रमर को मद में लाए ।।

फिर  नयनो  से   तीर  भेदना  क्या   समझेंगे।
पल दो  पल  के मीत  वेदना  क्या   समझेंगे ।।

पगडण्डी  पर  पथिक भटकता रोज  यहाँ  है।
सुखमय  मायावी  अवनी  की  खोज  यहां है।।
नित  चिरायु का  राज  ढूढ़ने  चला  मुसाफिर।
विमुख  हो  गया  जीवन उत्सव जीने खातिर।।

प्रेम   राग   का   गान   छेड़ना  क्या  समझेंगे ।
पल  दो  पल  के  मीत  वेदना  क्या  समझेंगे ।।

पंखहीन   पंछी    है   मत   अभिलाषा   पूछो।
अंतहीन  इच्छा   की   मत   परिभाषा   पूछो।।
तरुणाई  अब   बिक   जाती  चौराहो   पर  है।
फिर  सौंदर्य  परखा  जाता  श्रृंगारों   पर   है।।

वे  नैनो   की   रीत    देखना   क्या  समझेंगे।
पल  दो  पल  के  मीत  वेदना  क्या समझेंगे ।।

मनुहारों   का   वेग   स्वप्न   को  तोड़  गया है ।
अनुरागों  का   प्रश्न   हवा  को  मोड़  गया है।।
बन प्रस्तर  की  मूर्ति  निरंतर  पस्त  पड़ा   हूँ।
गरल  हो  गयी  चाह निरूत्तर  मौन  खड़ा हूँ।।

वे  अलकों   पर  हाथ  फेरना  क्या  समझेंगे।
पल  दो  पल के मीत  वेदना  क्या  समझेंगे ।।

          -नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

कत्ल की एक शाम हो जाए

             ग़ज़ल
चलो   उनसे   सलाम   हो  जाए ।
इस   तरह   इंतकाम  हो  जाए ।।


चाँद  से  डर  था   बेवफाई   का ।
उसका  किस्सा  तमाम हो जाये ।।


बहुत   लम्बी    है  दास्तां   तेरी ।
कुछ  अधूरा  कलाम  हो जाए ।।


बे वजह  जिद है रूठ  जाने  की ।
अब   तेरा   इंतजाम   हो   जाए ।।


टूट के गिरना ही उसकी  फितरत ।
बेवफा   उसका  नाम   हो  जाए ।।


बड़ी   सहमी  अदा  तबस्सुम  की ।
कत्ल  की   एक   शाम  हो  जाए।।


         नवीन