यह कहानी भी तेरी गजब हो गयी ।
इश्क में क्यूँ जुबां बे अदब हो गयी ।।
एक माशूक जलता रहा रात दिन ।
गैर दर पे मुहब्बत तलब हो गयी ।।
दस्तकों से मेरा ताल्लुक था बहुत ।
ख्वाहिशें बेवजह बेसबब हो गयीं ।।
चाँद अंगड़ाइयां ले गुजरता रहा ।
वक्त ही न रहा खत्म शब् हो गयी।।
सुर्ख लब पे पढे चन्द अशआर थे ।
वह ग़ज़ल भी जवां जाने कब हो गयी।।
सख्त पहरा था दरबान का हुश्न पर ।
दिल की दीवार में क्यूँ नकब हो गयी ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
इश्क में क्यूँ जुबां बे अदब हो गयी ।।
एक माशूक जलता रहा रात दिन ।
गैर दर पे मुहब्बत तलब हो गयी ।।
दस्तकों से मेरा ताल्लुक था बहुत ।
ख्वाहिशें बेवजह बेसबब हो गयीं ।।
चाँद अंगड़ाइयां ले गुजरता रहा ।
वक्त ही न रहा खत्म शब् हो गयी।।
सुर्ख लब पे पढे चन्द अशआर थे ।
वह ग़ज़ल भी जवां जाने कब हो गयी।।
सख्त पहरा था दरबान का हुश्न पर ।
दिल की दीवार में क्यूँ नकब हो गयी ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-04-2016) को "मेरा रेडियो कार्यक्रम" (चर्चा अंक-2327) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'