तीखी कलम से

बुधवार, 29 जून 2016

कातिलों के हर मसीहा की इनायत जान ले

अब  कैराना  और  मथुरा से  उसे  पहचान  ले ।
इस रियासत की  सराफत को यहीं से मान ले ।।

घाव गहरे  हैं  मुजफ्फर के दिलों में आज भी ।
कातिलों के हर  मसीहा की इनायत जान ले ।।

वक्त आया है शिकस्तों का इसे जाया  न कर ।
कुछ सबक के  वास्ते बेहतर  इरादा  ठान ले ।।

हैं  बहुत  जालिम  मुखौटा  डाल के बैठे  यहाँ ।
फिर लुटी हैं बस्तियां  उनसे  नया  फरमान ले ।।

है ठगा  सा फिर  खड़ा अदना  बहुत मायूस है ।
वोट देकर जो गया  था घर  बहुत अरमान  ले ।।

जब खुदा की ही नज़र से गिर गयी सरकार ये ।
मौलवी  निकले  दुआ  करने यहां लोबान  ले ।।

खो के अस्मत शाख पर हैं झूलती यह बेटियां ।
आज तक रोता बदायूं  दाग  का अपमान ले ।।

कब तरक्की क्या तरक्की हो गयी ढूढो  जरा ।
गाँव जलता ही मिला अक्सर कोई तूफ़ान ले ।।

जात के हमदर्द वो  उनकी सियासत जात की ।
बिक  रही  है  नौकरी चलती  हुई  दूकान  ले ।।

                --नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 26 जून 2016

नियत न मेरी ख़राब कर दे

तमाम  नाजो   नफासतों  से   मिरा   गुलिस्तां   तबाह  कर  दे ।
रहम अगर कुछ बचा हो दिल में इधर भी थोड़ी निगाह कर दे ।।

अजीब  चिलमन  की  दास्ताँ है नजर ने भेजा  सलाम  तुझको ।
नकाब  इतना उठा  के मत  चल  नियत  न मेरी गुनाह  कर दे ।।

है  चाहतों  का  कसूर  इतना  न जाने  कब  से  हैं मुन्तजिर  ये ।
हो तेरी जुल्फों  का  शामियाना  झुकी  पलक में पनाह  कर  दे ।।

ऐ  चाँद  तुझको   भरम   हुआ   है  हुस्न  कहाँ   बेदाग  है  तेरा ।
अगर  उजालों  की   है  तमन्ना  तो  रात  पूरी  सियाह  कर दे ।।

तुझे  दुश्मनो  से  है  मुहब्बत   मुझे  रोकना  कहाँ  है  मुमकिन ।
मिरे  रकीबो  की  खैरियत  में तू  जा के अपनी  सलाह कर दे ।।

सितम  तुम्हारा  जख़्म  हमारा  हुआ  है  रोशन  शहर  में  चर्चा ।
जुलम को अपनी  वफ़ा समझकर  ग़मों  से मेरे  निकाह  कर दे ।। 

                       - नवीन मणि त्रिपाठी

शनिवार, 18 जून 2016

हम भी हुए तमाम तुझे देखने के बाद

****ग़ज़ल****

मैंने  किया  सलाम  तुझे  देखने  के  बाद ।
दिल को मिला मुकाम तुझे देखने के बाद ।।

शरमा  गया  है  चाँद  तुम्हारे  शबाब  पर ।
 खत में लिखा पयाम तुझे देखने के बाद ।।

आवाज आ  रही  तिरे  कूचे से रूह तक ।
ये  चैन   है  हराम  तुझे  देखने  के  बाद ।।

शायद  हवा  की रुख  में नई फेर बदल हो ।
है  वक्त  बे  लगाम तुझे  देखने  के  बाद ।।

घर से  निकल पड़ी  कोई  खुशबू  नई नई ।
गुजरी  हसीन  शाम  तुझे  देखने  के  बाद ।।

मेरी ग़ज़ल  की आबरू  में सिर्फ  तू  ही तू ।
लिखता  रहा  कलाम तुझे  देखने के बाद ।।

छलकी  शराब  आँख  से मुद्दत के बाद है ।
है  कुछ तो  इंतजाम तुझे  देखने  के बाद ।।

कातिल  तेरी  निगाह से बचना मुहाल था ।
हम  भी  हुए तमाम तुझे  देखने  के बाद ।।

    -----नवीन मणि त्रिपाठी

बुधवार, 15 जून 2016

बे अदब कलमा पढ़ा जाता नहीं

दर्दे दिल  से दम निकल  पाता नहीं ।
अब सितम हमसे  सहा जाता नहीं ।।

घर  मिरा  जलता  रहा  वर्षो  से है ।
आग अब  कोई  बुझा  पाता नहीं ।।

तंज कर  जातीं  तुम्हारी  शोखियां ।
बे अदब कलमा पढ़ा  जाता  नहीं ।।

लिख  रहा  था  जो  हमारी  दास्ताँ ।
मुद्दतो  से  वो   नज़र  आता  नहीं ।।

ऐ  सितमगर है तिरे सर  की कसम ।
मैं  कभी  झूठी  कसम खाता नहीं ।।

रहनुमाई   ने   सिला  ऐसा   दिया  ।
डाकिया भी  खत नया लाता नहीं ।।

डंस  रहीं   नागन  बनी   तन्हाइयां ।
यार  ने  जबसे   कहा   नाता  नही।।

तल्खियों की अब कवायद बन्द हो ।
साथ   मेंरा  अब  उसे  भाता  नही ।।

बादलों  का  है बहुत  तुझपे  करम ।
जुल्म  सावन  भी  वहां  ढाता नहीं ।।

          नवीन

सोमवार, 13 जून 2016

बुलबुल नई हवा में चहकती जरूर है

बेशक  वो  आइने  में  संवरती  जरूर   है ।
पर रिन्द  मैकदों   में  बहकती  जरूर   है ।।

हुश्नो  शबाब में है अदाओं का सिलसिला ।

बनके कवल फिजां में महकती जरूर है ।।

आने लगी है याद कोई  मुद्द्तों  के  बाद ।

शायद वो तिश्नगी में  सिसकती जरूर है ।।

शिकवे  शिकायतों  में गुजारी तमाम रात ।

ज़ज़्बात  बेरुखी  में  छलकती  जरूर है ।।

कैसे भुला दूँ  हुश्न  के  हर  इंतकाम  को ।

वो  बात  मेरे  दिल में  ठहरती  जरूर है ।।

सहमे शजर की शाख मुनासिब कहाँ उसे ।

बुलबुल  नयी  हवा में  चहकती जरूर है ।।

है मुन्तजिर वो सिम्त मुहब्बत के दरमियाँ ।

बेख़ौफ़  जफ़ाओं  में  निकलती  जरूर है ।।

परदों  में  रख  तू  बात  है  दीवार बेवफा ।

कुछ  बात  जमाने  में  सुलगती  जरूर है ।।

परवाने  शबे  वस्ल  में  कुरबान  हो   गए ।

इक आरजू  शमा  में  मचलती  जरूर  है ।।

इतना गुमां न कर कभी मिट्टी के ज़ार पर ।

हर शय तो जिंदगी में बिछड़ती जरूर है ।।

       -नवीन मणि त्रिपाठी

मंगलवार, 7 जून 2016

जंगल का है राज खूब मनमानी कर

कुर्सी  पर  तू  बैठ  के  ना  शैतानी  कर ।
जातिवाद  से  थोड़ी आना  कानी  कर ।।

साम्राज्य  का  अंत  तुम्हारे  निश्चित  है ।

 काशी  मथुरा  में  ना  तू  नादानी कर ।।

निर्दोषो  का   लहू  पिलाकर  गुंडों  को ।

रुतबा अपना  धूम से पानी  पानी कर ।।

माँग  रही   है  न्याय  बदायूं  की  बेटी ।

बचे न कोई साक्ष्य बहुत निगरानी कर ।।

काशी  के  सन्तों  की  हड्डी  तोड़  चुके ।

अखलाकों के घर जाकर अगवानी कर ।।

सड़कें  टूटी  बिखरी  तुझ  पर  रोती हैं ।

जा  जनता से झूठी  गलत बयानी कर ।।

समाजवाद  की  हत्या  के आरोपी तुम ।

नई   सफाई   देकर  नई  कहानी  कर ।।

हे  दंगो   की   राजनीति   के  महारथी ।

जनता  भोली  भाली है  कुर्बानी  कर ।।

बनी   सैफई  अय्यासों   का   अड्डा  है ।

नचा  हिरोइन बैठ  के राजा रानी कर ।।

गोमांस  को  बकरा  कहने  वाले  तुम ।

भरी अदालत में जा बात जुबानी कर ।।

ओबीसी  के नाम दिखा  बस  यादव है ।

बची  खुची  भर्ती  में नई  निशानी कर ।।

घोटालो  से  लूट  तिजोरी भर  डाली   ।

जंगल  का है राज खूब  मनमानी कर ।।

         नवीन मणि त्रिपाठी

सोमवार, 6 जून 2016

छत से तेरे चाँद निकलना जारी है

तूफानों  का  हद से  गुजरना  जारी  है ।
छत  से तेरे चाँद   निकलना  जारी  है ।।

ज्वार  समन्दर   में  आया  बेमौसम  है।
नदियों का  बेख़ौफ़ मचलना  जारी है ।।

मुद्दत  गुजरी  होश  गवां कर  बैठा  हूँ ।
शायद   मेरा  पाँव  बहकना  जारी  है ।।

लुका छिपी में इश्क दफन न  हो जाए ।
उससे मिलकर रोज बिछड़ना जारी है।।

उसे   खबर  पुख्ता  है  मेरे  आने  की ।
रह रह कर यूँ जुल्फ संवरना  जारी है ।।

खुशबू  लातीं  तेज हवाएँ  गुलशन से ।
कलियों में कुछ रंग बिखरना जारी है ।।

चली गयी  परदेश बहुत  खामोशी  से ।
खत में लिखा बयान तड़पना जारी है ।।

आँखों से तस्दीक मुहब्बत महफ़िल में ।
किसी  जुबाँ  से बात मुकरना जारी है ।।

दिल के पन्ने खोल खोल के मत पढ़ना ।
अरमानों  से  दर्द   पिघलना  जारी  है ।।

तेरी गली से वो पगला फिर गुजर गया ।
उसका  सुबहो  शाम  टहलना जारी है ।।

       --नवीन मणि त्रिपाठी

गजल

लिखी ग़ज़ल है  वो मेरी  कहानियां  लेकर ।
जुदा हुई थी जो  हमसे  निशानियाँ  लेकर ।।

बेवफा  कहके  मुकद्दर  जला  दिया  जिसने ।
 नज़र  आयी है जनाजे पे सिसिकियां लेकर।।

बड़ी उम्मीदआशियाँ की फकत थी जिससे ।
वही  नीलाम  की  निकले मुनादियाँ लेकर ।।

कुछ तबीयत मचल  गयी  तो बड़ा  हंगामा ।
हरम  में हूर  मिलीं  जब  जवानियाँ लेकर ।।

जाम  शब् भर  चले  होंगे  सबूत  हासिल है।
नई शबनम  है नजर  में  खुमारियां  लेकर ।।

दे  सकी  एक तबस्सुम न  लबो पर उसके ।
जिंदगी  जिसने  गुजारी  उदासियां  लेकर ।।

          नवीन मणि त्रिपाठी

      नवीन

शुक्रवार, 3 जून 2016

गीत

नित अम्बु नयन से है बरसा ।
मधुमास बिना निज घन तरसा ।
क्षण भंगुर तन बहका बहका ।
है अनल व्यथित दहका दहका ।
अंतर के लव से भष्म हुआ
अवशेष ढूढ़ता जाता हूँ।
मैं पथिक विषम जीवन पथ का ।
अनुबन्ध तोड़ता जाता हूँ ।।

पीयुष प्याले बदले बदले ।
विष तीक्ष्ण मिले उजले उजले ।
धारा में नित बहते बहते ।
तन क्षीण हुए सहते सहते ।
संघर्षो ने कुछ छंद रचा 
वेदना गीत में गाता हूँ ।
हूँ ठगा  बटोही  इस जग  का 
सम्बन्ध जोड़ता जाता हूँ ।।
मैं पथिक विषम जीवन पथ का 
अनुबन्ध तोड़ता जाता हूँ ।।

ये लोभ मोह गहरे गहरे ।
अवचेतन तक ठहरे ठहरे ।
सब लक्ष्य लगे बिखरे बिखरे ।
तन स्वार्थ यहां उभरे उभरे ।
श्वासों से जहाँ विछोभ हुआ ।
नव वस्त्र पहन कर आता हूँ ।
मैं प्राण वायु मनुहारो का 
प्रिय गन्ध छोड़ता जाता हूँ ।।
मैं पथिक विषम जीवन पथ का ।
अनुबन्ध तोड़ता जाता हूँ ।।

      -- नवीन मणि त्रिपाठी