तीखी कलम से

रविवार, 25 मार्च 2018

कुदरत का वजीफा आता है

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हालात  बदलते   जाते   हैं  यह   वक्त   उसे उलझाता  है ।
इंसान  हक़ीक़त  से अक्सर अब  रब्त  कहाँ  रख  पाता  है ।।

जो  ज़ख्म   छुपा   कर  रखते  हैं  ईमान  बचाकर  चलते  हैं ।
हिस्से में उन्हीं के ही अक्सर  कुदरत  का  वजीफ़ा आता है ।।

कुछ राज बताने लगतीं हैं माथे की शिकन आंखों की चमक ।
चेहरे  से  पता  चल  जाता  है जब  खाब  कोई  मुरझाता है ।।

जब लूट गया कोई सपना तब  होश  में  आकर  क्या होगा ।
जालिम है अभी  कितनी  दुनिया यह वक्त हमें समझाता है ।।

उस रात तुम्हारी सांसो का अहसास अभी  तक  है  जिंदा ।
चाहत का समंदर भी अब तक दरिया के लिए लहराता है।।

आबाद  मुहब्बत  क्या  होगी  हर  मोड़ पे  दुश्मन  बैठे  हैं ।
आशिक को सज़ाकर पलकों में नजरों से गिराया जाता है ।।

जो  साथ  निभाने  वाले  थे कुछ  रूठ गए  कुछ  छूट  गए ।
अब याद वो लम्हा क्या करना  जो  दर्द  हमे  दे  जाता  है ।।

         नवीन मणि त्रिपाठी 
        मौलिक अप्रकाशित

हुस्न पर पर्दा रहा

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ऐ  चाँद  अपनी  बज़्म  में तू  रात भर  छुपता  रहा ।
आखिर ख़ता क्या थी मेरी  जो हुस्न पर  पर्दा रहा ।। 

कुछ  आरजूएं  थीं  मेरी कुछ थी नफ़ासत हुस्न में ।
वो आशिकी  का  दौर था चेहरा कोई जँचता रहा ।।

मासूमियत पर दिल लुटा बैठा  जो अपना फ़ख्र से ।
उस  आदमी  को  देखिए  अक्सर यहाँ तन्हा रहा ।।

रुकता  नहीं   है  ये  ज़माना  लोग आगे  बढ़  गए ।
मैं कुछ खयालों को लिए अब तक यहां ठहरा रहा।।

था  मुन्तजिर मैं आपके वादे को लेकर आज तक ।
किसने  कहा  है  आपसे  मेरा  नहीं  रिश्ता  रहा ।।

ये  तिश्नगी  जिंदा  रही   लौटा  दिया   दरबान  भी ।
देखा  तुम्हारी महफिलों में  इश्क़  पर  पहरा रहा ।।

मैं रब्त को बस ढूढता ही रह गया अब तक सनम ।
जो थी  ग़ज़ल  तुमने  लिखी  मैं बारहा पढ़ता रहा ।।

जलती गयी दिल की वो बस्ती जल गयीं सब ख्वाहिशें।
तुमने  लगाई  आग  जो अब  तक  मकां  जलता रहा ।।

गर फिक्र होती  कुछ  उन्हें  देते  मेरे  खत का जबाब ।
मैं  इक  जमाने  से  हजारों  खत जिन्हें लिखता रहा ।।

मैं  कह  न  पाया  उम्र भर जो बात उसकी खौफ में ।
वह  नूर  मेरे  शाद  का  यह  दिल मेरा  कहता  रहा ।।

          --- नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशिय

पेंटिंग चित्र साभार गूगल

जीना भारत मे है अब आसान कहाँ

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पहले  जैसी  चेहरों  पर  मुस्कान  कहाँ ।
बदला   जब  परिवेश  वही इंसान कहाँ ।।

लोकतन्त्र में  जात पात का  विष  पीकर।
जीना  भारत  मे  है  अब आसान  कहाँ ।।

लूट  गया  है फिर  कोई  उसकी इज्जत ।
नेताओं  का  जनता  पर  है ध्यान  कहाँ ।।

भूंख  मौत  तक  ले  आती जब इंसा को ।
बच  पाता  है उसमें  तब  ईमान   कहाँ ।।

भा जाता है जिसको पिजरे का जीवन ।
उस  तोते  के  हिस्से  में  सम्मान  कहाँ ।।

दिल की खबरें अक्सर उसको मिलती हैं 
दर्दो  गम  से  वो  मेरे  अनजान  कहाँ ।

मान   गया   होगा  वह   गैरों  की   बातें ।
उसको अब तक सच की है पहचान कहाँ ।

तोड़ दिया जब  दिल मेरा तुमने हंसकर ।
बाकी  मुझमें  अब  कोई  अरमान  कहाँ ।।

          --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - फिर किसी दरिया में हम बहकर मिले

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आंधियों   के  बाद  भी  अक्सर मिले ।।
फिर किसी दरिया में हम बहकर मिले ।।

हौसले   ने  आसमाँ  तब   छू  लिया ।
आप मुझ से जब कभी हंस कर मिले ।।

हक़ जो  मांगा  इस  ज़माने  से यहां ।
दोस्तों  के   हाथ   में  ख़ंजर   मिले ।।

लूट  की  थीं   दौलतें   जिसमें  लगीं ।
वो  मकां  अक्सर  हमें  जर्जर  मिले ।।

क्या गले मिलते भी हम तुमसे सनम ।
प्यार  के  बदले  बहुत  पत्थर मिले ।।

ऐ  खुदा  इतनी   दुआ   कर  दे अता ।
तू   हमारी    रूह    के   अंदर  मिले ।।

खुद   चले   आना   हमारी   बज़्म  में ।
वक्त जब  तुमको कभी पल भर मिले ।।

और   क्या   दें  जिंदगी   के  बाद वो ।
आप  भी  कब  मुतमइन  होकर मिले ।।

जीत    लेंगे    जंग   उम्मीदों   से  हम।
क्या   हुआ  हालात  जो  बदतर मिले ।।

जब  पता  पूँछा  किसी  से  हुस्न का ।
घर   बताते   आपका   रहबर  मिले ।।

वह  ग़ज़ल   कहने  लगी  है  इश्क़  में ।
अब तो उसकी  शायरी को पर मिले ।।

आपने   कैसे    पढ़ा   हमको   हुजूर ।
आप  भी  हमसे  कहाँ  शब भर मिले ।।

तल्खियां  इतनी   कभी  अच्छी  नहीं।
आप  मुझसे  कब  यहाँ आकर मिले ।।

शायरी   उगती  है  दिल के  खेत  में ।
क्या  करेंगे  जब  जमीं  बंजर  मिले ।।

       --नवीन मणि त्रिपाठी
       मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल -दिल के हजार ज़ख्म दिखाते कहाँ कहाँ

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इस  बेखुदी  में आप  भी  जाते  कहाँ  कहाँ ।
दिल के हजार  ज़ख्म  दिखाते  कहाँ  कहाँ ।।

खानाबदोश  जैसे  हैं  हम  इस  जहान   में ।
रातें   तमाम  अपनी   बिताते   कहां   कहां ।।

मुश्किल सफर मेंअलविदा कहकर चले गए।
यूँ  जिंदगी  का  साथ  निभाते  कहाँ कहाँ ।।

चहरा हो बेनकाब न जाहिर शिकन भी हो।
क़ातिल का हम गुनाह छुपाते कहाँ कहाँ ।।

कुछ तो हमें भी फैसला लेना  था जुल्म पर।
नजरें  हया के  साथ  झुकाते   कहाँ  कहाँ ।।

आंखे किसी के, हुस्न पे हमको फिदा मिलीं ।
दरबान  इस चमन  में  बिठाते  कहाँ  कहाँ ।।

शायद अदा में दम था परिंदे कफ़स  में  हैं ।
यूँ  आसमान  सर  पे  उठाते  कहाँ  कहाँ ।।

दैरो   हरम   से  दूर  हमें  तो  खुदा  मिला।
मस्जिद में रब है लोग बताते कहाँ कहाँ ।।

हमको   नसीहतें  वों  भुलाने   की  दे गए ।
उनकी  निशानियों  को मिटाते कहाँ कहाँ ।।

बदनाम  हो न जाये ये बस्ती के हम थे चुप।
जुल्मो सितम का दर्द सुनाते  कहाँ  कहाँ ।।

उसको तो डूब जाना था आंखों में आपकी ।
उसका  वजूद  आप  बचाते  कहाँ  कहाँ ।।

जलता  मिला  है  शह्र  तुम्हारे  उसूल  पर ।
उल्फत की तुम भीआग लगाते कहाँ कहाँ।।

           --नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - आदमी फिर वही भला निकला

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जिसको  कहते  थे  बेवफा   निकला ।
आदमी   फिर   वही  भला  निकला ।।

कोशिशें    थीं    जिसे    मिटाने  की ।
शख्स  वह  दूध  का जला  निकला ।।

दिल   जलाने   की   साजिशें  लेकर ।
अपने    घर   से    बारहा    निकला ।।

रात  भर   जो  हँसा   रहा   था  मुझे ।
सब  से  ज्यादा वो  ग़मज़दा निकला ।।

दफ़्न    कैसे    हैं    ख्वाहिशें   सारी ।
आपका  दिल  तो  मकबरा  निकला ।।

जो   कभी  आपने   दिया   था हमें ।
आज  तक  जख्म  वो  हरा निकला ।।

आज  फिर  याद  बहुत  आये  जब ।
एक   खत  आपका   दबा  निकला ।।

मुंतजिर  था  मैं  जिसका  मुद्दत  से ।
चाँद  घर  से  खफ़ा  खफ़ा  निकला ।।

अब  मुहब्बत  की   बात  मत कीजै ।
इश्क़  भी   एक   हादसा   निकला ।।

देखकर   आपको   मिला  है   सुकूँ ।
आप  आये  तो   फायदा   निकला ।।

तोड़   कर   देख  आज   दिल  मेरा ।
फिर बताना कि दिल में क्या निकला।।

               नवीन मणि त्रिपाठी 
             मौलिक अप्रकाशित

आप मेरी बेबसी पर मुस्कुराते जाइये

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आज  के  हालात  पर  तुहमत  लगाते  जाइये ।
आप   मेरी   बेबसी   पर   मुस्कुराते   जाइये ।।

आंख पर पर्दा अना का खो  गयी  शर्मो  हया ।
रंग गिरगिट की  तरह  यूँ  ही  दिखाते जाइये ।।

तिश्नालब  हैं   रिन्द  सारे   मैकदा  है  आपका ।
जाम  रब  ने  है   दिया  पीते  पिलाते   जाइये ।।

इस चिलम में आग है  गम  को जलाने के लिए ।
फिक्र  अपनी  भी  धुएँ  में  कुछ  उड़ाते जाइये ।।

अश्क जो दिखता नहीं  वो शेर में छलका बहुत ।
चन्द  मिस्रे   जो   कहे   थे  वो  सुनाते  जाइये ।।

साथ सारा सिर्फ मरघट तक  रहेगा आपका ।
कुछ खुदा के साथ  भी रिश्ता बनाते जाइये ।।

लोग  सारे   आपके  हैं  आपकी  सरकार  है ।
जुल्म की यह  इंतिहा लेकिन छुपाते  जाइये ।।

रह न जाये आपसे  मेरा  कोई शिकवा गिला ।
फर्ज कुछ ऐसा  मुहब्बत का  निभाते जाइये ।।

है  बड़ी   चर्चा   में  शायद  आपकी  बेपर्दगी ।
आशिकों की है गली बस दिल जलाते जाइये ।।

है तसव्वुर  चाँद  का तो हुस्न  होगा  बेनकाब ।
बेखुदी में उस ग़ज़ल  को  गुनगुनाते  जाइये ।।

जा रहे हैं रूठ कर फिर रोकना मुमकिन कहाँ ।
दिल  से  कैसे  जाएंगे  यह  तो  बताते जाइये ।।

       ---नवीन मणि त्रिपाठी
      मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - हमें तो प्यार का सौदा नफा नहीं देता

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गुजर  गया   वो  गली  से  सदा  नहीं   देता ।
हमें  तो   प्यार   का  सौदा नफा  नहीं  देता ।।

मैं भूल जाऊं तुझे अलविदा भी कह दूं पर ।
मेरा   जमीर   मुझे   मश्विरा   नहीं   देता ।।

गवाही देतीं  हैं अक्सर ये  हिचकियाँ  मेरी ।
तू  मेरी याद को  बेशक  मिटा  नहीं  देता ।।

यकीन कर लें भला कैसे उसकी चाहत पर ।
वो शख्स घर का हमें जब पता नहीं देता ।।

नई  नई  है  जवानी  नया  नया  है   बदन ।
मगर  वो चाँद  से  पर्दा   हटा   नहीं  देता ।।

सँभल के चलना जरा शह्र यह अलग सा  है।
यहाँ   किसी   को  कोई मश्विरा  नहीं   देता ।।

अजीब बात  है  गुलशन  में  फूल  हैं  लाखों।
जो दिल को भाया वही गुल खुदा नही देता ।।

बड़े  ही नाज़  से आये  थे  तेरी  महफ़िल  में ।
मगर  तू  हमको  भी कोई सिला  नहीं   देता ।।

हो  आसमान  में  सूराख   भी   बता   कैसे ।
तेरा   जवाब   मुझे    हौसला   नहीं    देता ।।

हमें  खबर  है अदालत  खरीद  ली   साहिब ।
कोई  भी  आपको  देखो  सजा  नहीं  देता ।।

       --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल -क्या बता दूं कि उसने क्या पूछा

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मुझ से मेरा  ही  फ़लसफ़ा  पूछा ।
क्या बता दूँ कि उसने क्या पूछा ।।

डूब   जाने   की   आरजू   लेकर ।
उसने  दरिया   का   रास्ता  पूछा ।

देर  होनी  थी  हो   गयी  है  अब ।
वक्त   ने    मुझसे   वास्ता   पूछा ।

था  भरोसा   नहीं   मगर  मुझसे ।
मुद्दतों   बाद   वह   गिला   पूछा ।।

हिज्र   के   बाद   जी   रहे   कैसे ।
चाँद   ने   मेरा    हौसला    पूछा।।

सच की उसको  बड़ी  जरूरत  है ।
उसने  आते   ही  आइना  पूछा ।।

कह रहा था जो   दूरियां  ही  नहीं ।
आज वह दिल का फासला पूछा ।।

लोग    लुटते   है क्यूँ  मुहब्बत   में ।
राज  मुझसे  ये   ग़मज़दा  पूँछा ।।

दर्दे   दिल   था  उसे  मयस्सर  ही ।
कब   हकीमों  से  मसबरा  पूछा ।।

जख्म दिल में जो कर गया था मेरे।
हाल   वह   मेरा   बारहा   पूछा ।।

खूब   हैरत  हुई   मुझे   भी  तब ।
अपने  जब   मेरा   पता    पूँछा ।।

             नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

डूबा मिला है आज वो गहरे खयाल में

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डूबा   मिला   है  आज   वो   गहरे   खयाल   में ।
जिसको  सुकून  मिलता  है  उलझे   सवाल  में ।।

बरबादियों    का   जश्न   मनाते   रहे    वो   खूब ।
फंसते  गए   जो  लोग   मुहब्बत   के  जाल   में ।।

मिलना था हिज्र मिल गया शिकवा खुदा से क्या ।
रहते  मियां  हैं  आप भी  अब  क्यों  मलाल  में ।।

करता   है   ऐश   कोई    बड़े    धूम   धाम  से ।
डाका  पड़ा  है  आज  यहां   फिर   रिसाल  में ।।

शेयर   गिरा  धड़ाम   से   सदमा   लगा   बहुत।
जिसने  लिया  था  माल  को  बढ़ते  उछाल में ।।

पोंछा था अश्क़  आप का उस दिन के बाद से ।
खुशबू    बसी  है  आपकी   मेरी   रुमाल  में ।।

कुछ दिन से था सनम के जो पीछे पड़ा हुआ ।
शायद  वो   रंग   आज  लगाएगा  गाल  में ।।

माना  मुहब्बतों  का   है  ये   जश्न   आपका ।
जुड़ता  नहीं  है  दिल  यहां  गहरे  गुलाल में ।।

        -- नवीन मणि त्रिपाठी
        मौलिक अप्रकाशित

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

होली पर चन्द कुंडलियाँ

होली पर चन्द कुंडलियां

मधुशाला  में  भीड़  है , होली  का  उल्लास ।
बुझा  रहे  प्यासे  सभी अपनी अपनी प्यास ।।
अपनी  अपनी  प्यास  पड़े  नाली  नालों  में ।
लगा  रहे  अब   रंग  वही  सबके  गालों  में ।।
नशे बाज पर आप , लगा  कर रखना ताला ।
कभी  कभी  विषपान कराती है  मधुशाला ।।

सूखा   सूखा  चित्त  है , उलझा उलझा केश ।
होली  बैरन  सी  लगे  कंत   बसे    परदेश ।।
कंत  बसे  परदेश  बिरह  की  आग  जलाये ।
यौवन पर ऋतुराज ,किन्तु यह रास न आये ।।
कोयलिया का गान  लगे अब  बान सरीखा ।
सावरिया  के  बिना  लगे  हर मौसम सूखा ।।

अंगड़ाई    लेने   लगा , यौवन  पर  मधुमास ।
धूम मचाये कामिनी,हिय तक हुआ उजास ।।
हिय तक हुआ उजास सजन का होश उड़ाती।
मादक अँखियाँ खूब पिया को  भंग पिलाती।।
अद्भुद    है    संयोग,  खेलने    होरी    आई ।
भीगा तन  मन आज ,देख  करके  अंगड़ाई ।।

लहंगा  चुनरी में दिखा , भौजी  का  श्रृंगार ।
नैनो   से  करने   लगीं  रंगों   की  बौछार ।।
रंगों  की  बौछार   भिगाएं   अन्तस्   सारा ।
देवर  है  नादान  अभी  क्या करे  कुंवारा ।।
कहें  मणी कविराय  रंग है  काफी  महंगा ।
कहीं  पकौड़ा  बेचूं  तब  ये भीगे  लहंगा ।।

         नवीन मणि त्रिपाठी