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क्या क्या ख़बर सुनाऊं तुम्हें इस जहान की ।
लगने लगी हैं बोलियां मेरे मकान की ।।
महँगाई डँस रही हो जहाँ रोज सुबहो शाम ।
हर आदमी को फ़िक्र है अपने लगान की ।।
राशन जो मुफ़्त खा रहे अस्सी करोड़ लोग ।
चर्चा करें तो कैसे करें स्वाभिमान की ।।
करना है जिसने सीखा ख़ुशामद का इक हुनर ।
छूते बुलंदिया हैं वही आसमान की ।।
घर होंगे जमीदोंज वही आजकल यहाँ ।
तिरछी नज़र पड़ेगी जहाँ हुक्मरान की ।।
ऐ हमनवा न रोज़ तू जुमलो की बात कर ।
कीमत सियासतों में कहाँ है ज़ुबान की।।
आरोप उन पे ही लगे क्यूँ लूट पाट के ।
खाई थी जिसने कस्में कभी संविधान की ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
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