तड़पी है नीर बिन वो ,मछली की तरह अक्सर |
वह साँस ले न पाई, अहले चमन में खुलकर ||
पर्दें की जिंदगी में , ता उम्र घुटन देखी |
वह दर्द को बयां भी , करती रही है डरकर ||
ये अस्थियां हैं उसकी लिखती कहानियां हैं |
इस वक्त के सफ़र में चुभती निशानियां हैं ||
शदियों से धधकती हैं अबला की ये चिताएं |
शोषण की आग पर ये ,जलती जवानियाँ हैं ||
सैलाब है जुलम का, पिजरों में वो पली है |
लुटती है जिस्म उसकी, कैसी हवा चली है ||
असहाय द्रौपदी सी , जो पुकारती है नारी |
तूफां की कहर से क्यूँ ,दुनियां नहीं हिली है ||
बहसी हुए दरिंदे, हालत बहुत बुरी है |
माँ के भी पेट में अब चलने लगी छुरी है ||
आना ना देश लाडो ,कातिल हुआ जमाना |
गिद्धों की नजर तेरे बिस्तर पे जा गड़ी है ||
पाबंदियों का झूठा , मजबून देखती है |
मजहब के नाम पर वो, कानून देखती है ||
हिम्मत व हौसलों से जब बे नकाब आई |
फतबों में जिंदगी का वह खून देखती है ||
नारी स्वतंत्रता का , बस ढोल पीटते हैं |
रूढ़ि परंपरा का , विष रोज घोलते हैं ||
मतलब परस्त हैं वो कानून बनाने में |
शोषित दलित बताकर , बस वो खीचते हैं ||
घुघरू की खनक से जब मिटती है भूख उसकी |
बाजार में भी कीमत लगती है खूब उसकी ||
मजबूरियों को देखों वो मांस बेचती है |
वे गोश्त खा रहे है ,उम्मीद थी ना जिसकी ||
- नवीन मणि त्रिपाठी
घुघरू की खनक से जब मिटती है भूख उसकी |
जवाब देंहटाएंबाजार में भी कीमत लगती है खूब उसकी ||
मजबूरियों को देखों वो मांस बेचती है |
वे गोश्त खा रहे है ,उम्मीद थी ना जिसकी ||
वाह बहुत बढ़िया नवीन जी ...नारी जीवन की व्यथा को कविता के रूप में ही बहुत खूबसूरती से उकेरा है आपने...सार्थक भाव लिए सशक्त अभिव्यक्ति।
अपने ही बनाये आवरण से बाहर आना होगा नारियों को
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार भाई जी-
नारी स्वतंत्रता का , बस ढोल पीटते हैं |
जवाब देंहटाएंरूढ़ि परंपरा का , विष रोज घोलते हैं ..
सहमत हूँ आपकी बात से .. नारी आज भी उतनी ही सताई जाती है जितना की सदी पहले ... बदलाव की गति बहुत महीन है ...
दर्दनाक सत्य है. बहुत बढ़िया लिखा है.
जवाब देंहटाएंवाह...क्या सुन्दर भावपूर्ण रचना है ! बहुत बढ़िया प्रस्तुति...आप को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-कुछ हमसे सुनो कुछ हमसे कहो
वाह जी वाह
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