(शरीफ़ साहब दो शब्द मेरे भी सुन लीजिये )
------ग़ज़ल------
मुखौटा इस ज़माने में कभीअच्छा नहीं लगता ।
हकीकत हो फ़साने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।
छोड़ घर को गया था जो गुलामी दे दिया उसको ।
मुहाज़िर हो निशाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।
शरीफ़ो के लहू से हाथ हो जिसके सने अक्सर।
वो जाए फिर मदीने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।
सरीयत से तुम्हारा वास्ता मुमकिन नहीं लगता ।
तू अपने कत्लखाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।
कद्र होगी मुख़ालिफ़ की तू रख ज़ायज उसूलो को।
नियत के डगमगाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।
दुश्मनी पर वजूदे शाख़ जिन्दा हो यहां जिसकी ।
दोस्त कहकर बुलाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।
बहुत नापाक होगा ये जो तुझको पाक मैं कह दूं ।
राज दिलका छुपाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।
सपोले पालने वालों से दुनिया हो चुकी वाकिफ़ ।
उसे फिर बरगलाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।
शिकस्तों से मुहब्बत है तुम्हारे मुल्क के अच्छी ।
तुम्हें अब आजमाने में कभी अच्छा नहीं लगता।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अनोखी सज़ा - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब। दिल को छू गई आपकी रचना। कभी मेरे ब्लाग पर आइए।
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