----**ग़ज़ल**-----
वो बागवां है ,गुलिस्तां में असर रखता है।
तेरी हरकत पे निगहबान नजर रखता है।।
जहाँ रकीब भी रो कर गया है मइयत पे।पाक दामन में मुहब्बत भी कहर रखता है।।
इस आफताब की जुर्रत में तपिस साजिश है।शुकूं के वास्ते वो शख्स शजर रखता है ।।
ना तो काहिल है ना जाहिल ना निकम्मा कहना।कतल अदाओं पे होने का हुनर रखता है ।।
जो मस्जिदों में ना सजदे का सलीका सीखा।बेनमाजी भी रहमतों की खबर रखता है ।।
हार जाती है रोज फिरका परस्ती नागन ।तुम्हारा मुल्क भी बेख़ौफ़ शबर रखता है ।।
जम्हूरियत के सिपाही हैं खबरदार बहुत ।हौसला जंग का महफूज शहर रखता है ।।
ढूंढ लेती हैं मुसाफिर को मंजिले अक्सर ।इरादे साफ़ में ईमान अगर रखता है ।।
हँसा फ़कीर ठहाकों में मौत पर उसके ।मरा है वो भी जो दौलत में बसर रखता है।।
एक अदना गरीब देखकर इतराना मत।बददुआओं में वही तेज जहर रखता है।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (06-12-2014) को "पता है ६ दिसंबर..." (चर्चा-1819) पर भी होगी।
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सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जो मस्जिदों में ना सजदे का सलीका सीखा।
जवाब देंहटाएंबेनमाजी भी रहमतों की खबर रखता है ।।
..वाह...बहुत उम्दा ग़ज़ल..
बहुत सुन्दर
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