" नवगीत "
हो गयी बिम्बित किसी अनुबन्ध की अभिव्यक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
मेघ अभिशापित धरा को देखता है ।
क्यों कुमुदिनी पर भ्रमर की रिक्तता है ।
स्फुटित स्वर में प्रणय संलिप्तता है ।
मौन पर स्थिर हुई स्निग्धता है ।।
फिर उपेक्षित सर्जना कुंठित लगी परित्यक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
कुछ विहग की रीति में भी द्वन्द होगा ।
चिर व्यथाओ में छिपा आनंद होगा ।।
कुछ क्षुधा का वेग किंचित मन्द होगा ?
वाटिका में क्या सुलभ मकरन्द होगा ?
हिमखण्ड से निकली नदी बहने लगी अनुरक्ति सी।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
बाँसुरी की प्रीति अधरों से सदा है ।
राग का स्वर किन्तु प्रहरों से बंधा है ।।
सेतु का विस्तार लहरों से सजा है ।
ज्वार का उन्माद कब किसको पता है ।।
रक्तिम आभा को लिए तुम नेह की निष्पत्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
व्योम में अनुनाद की आवृत्ति जीवित ।
कण्ठ से अनुराग के है गीत मण्डित ।।
हो रही कोई बसन्ती गन्ध मुखरित ।
हाँ किसी मधुमास का यौवन सुशोभित ।।
अब घटा समदृश्य अलकें हो गयीं आसक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी।।
उर के अंतर में लिखी तुम कामना हो ।
सिद्ध जीवन मन्त्र की तुम साधना हो ।।
छंद की कल्पित समर्पित भावना हो ।
तुम निशा की जीत की प्रस्तावना हो ।।
है दृष्टि से तेरी छुवन अब पीर की उन्मुक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
हो गयी बिम्बित किसी अनुबन्ध की अभिव्यक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
मेघ अभिशापित धरा को देखता है ।
क्यों कुमुदिनी पर भ्रमर की रिक्तता है ।
स्फुटित स्वर में प्रणय संलिप्तता है ।
मौन पर स्थिर हुई स्निग्धता है ।।
फिर उपेक्षित सर्जना कुंठित लगी परित्यक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
कुछ विहग की रीति में भी द्वन्द होगा ।
चिर व्यथाओ में छिपा आनंद होगा ।।
कुछ क्षुधा का वेग किंचित मन्द होगा ?
वाटिका में क्या सुलभ मकरन्द होगा ?
हिमखण्ड से निकली नदी बहने लगी अनुरक्ति सी।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
बाँसुरी की प्रीति अधरों से सदा है ।
राग का स्वर किन्तु प्रहरों से बंधा है ।।
सेतु का विस्तार लहरों से सजा है ।
ज्वार का उन्माद कब किसको पता है ।।
रक्तिम आभा को लिए तुम नेह की निष्पत्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
व्योम में अनुनाद की आवृत्ति जीवित ।
कण्ठ से अनुराग के है गीत मण्डित ।।
हो रही कोई बसन्ती गन्ध मुखरित ।
हाँ किसी मधुमास का यौवन सुशोभित ।।
अब घटा समदृश्य अलकें हो गयीं आसक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी।।
उर के अंतर में लिखी तुम कामना हो ।
सिद्ध जीवन मन्त्र की तुम साधना हो ।।
छंद की कल्पित समर्पित भावना हो ।
तुम निशा की जीत की प्रस्तावना हो ।।
है दृष्टि से तेरी छुवन अब पीर की उन्मुक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
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