उन्हें नहीं दिखाई देता ..............
दो जून की रोटी के लिए
तरसता इंसान
फटे चीथड़े कपड़ों में लिपटी हुई माँ ।
बेटी की शादी के लिए
नीलाम होता घर
दवा के आभाव में दम तोड़ता परिवार ।
भूख की आग में झुलसती मानवता ।
एक एक रूपये के
लिए विखरता स्वाभिमान ।
वह नही देखना चाहते ................
शिक्षा के लिए तरसती हमारी बेटियाँ
रोजगार के लिए दरदर की ठोकरें खाती
हमारी सन्तानें
उन्हें मतलब ही कहाँ है ....................
हमारी योग्यता से
हमारी परायणता से
हमारी कर्तव्य निष्ठा से ।
प्राप्त हो चुकी है हमे दोयम दर्जे की नागरिकता ।
व्यर्थ हो चुकी हैं
देश की आजादी के लिए
हमारी कुर्बानियां ।
सवर्ण कुल में जन्म लेते ही
हम बन जाते हैं
घोषित आपराधी
आजीवन संतापी
छीन लिया जाता है
हमारा रोजगार
जीवन का उपहार
पोषण का आहार
और मौलिक अधिकार ।
शर्मनाक है ऐसा लोकतन्त्र ............
जो पोषित करता है दलित आतंकवाद का तन्त्र ।
वैशाखियों के सहारे राज करता अश्रेष्ठ
देश विकलांगता के सापेक्ष
डार्विन
काल मार्क्स की परिकल्पना
हो चुका है संघर्ष का श्री गणेश
विजय अवश्य संभावी
सनद रहे प्रकृति श्रेष्ठ के साथ होती है ।
---नवीन मणि त्रिपाठी
दो जून की रोटी के लिए
तरसता इंसान
फटे चीथड़े कपड़ों में लिपटी हुई माँ ।
बेटी की शादी के लिए
नीलाम होता घर
दवा के आभाव में दम तोड़ता परिवार ।
भूख की आग में झुलसती मानवता ।
एक एक रूपये के
लिए विखरता स्वाभिमान ।
वह नही देखना चाहते ................
शिक्षा के लिए तरसती हमारी बेटियाँ
रोजगार के लिए दरदर की ठोकरें खाती
हमारी सन्तानें
उन्हें मतलब ही कहाँ है ....................
हमारी योग्यता से
हमारी परायणता से
हमारी कर्तव्य निष्ठा से ।
प्राप्त हो चुकी है हमे दोयम दर्जे की नागरिकता ।
व्यर्थ हो चुकी हैं
देश की आजादी के लिए
हमारी कुर्बानियां ।
सवर्ण कुल में जन्म लेते ही
हम बन जाते हैं
घोषित आपराधी
आजीवन संतापी
छीन लिया जाता है
हमारा रोजगार
जीवन का उपहार
पोषण का आहार
और मौलिक अधिकार ।
शर्मनाक है ऐसा लोकतन्त्र ............
जो पोषित करता है दलित आतंकवाद का तन्त्र ।
वैशाखियों के सहारे राज करता अश्रेष्ठ
देश विकलांगता के सापेक्ष
डार्विन
काल मार्क्स की परिकल्पना
हो चुका है संघर्ष का श्री गणेश
विजय अवश्य संभावी
सनद रहे प्रकृति श्रेष्ठ के साथ होती है ।
---नवीन मणि त्रिपाठी
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