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इस बेखुदी में आप भी जाते कहाँ कहाँ ।
दिल के हजार ज़ख्म दिखाते कहाँ कहाँ ।।
खानाबदोश जैसे हैं हम इस जहान में ।
रातें तमाम अपनी बिताते कहां कहां ।।
मुश्किल सफर मेंअलविदा कहकर चले गए।
यूँ जिंदगी का साथ निभाते कहाँ कहाँ ।।
चहरा हो बेनकाब न जाहिर शिकन भी हो।
क़ातिल का हम गुनाह छुपाते कहाँ कहाँ ।।
कुछ तो हमें भी फैसला लेना था जुल्म पर।
नजरें हया के साथ झुकाते कहाँ कहाँ ।।
आंखे किसी के, हुस्न पे हमको फिदा मिलीं ।
दरबान इस चमन में बिठाते कहाँ कहाँ ।।
शायद अदा में दम था परिंदे कफ़स में हैं ।
यूँ आसमान सर पे उठाते कहाँ कहाँ ।।
दैरो हरम से दूर हमें तो खुदा मिला।
मस्जिद में रब है लोग बताते कहाँ कहाँ ।।
हमको नसीहतें वों भुलाने की दे गए ।
उनकी निशानियों को मिटाते कहाँ कहाँ ।।
बदनाम हो न जाये ये बस्ती के हम थे चुप।
जुल्मो सितम का दर्द सुनाते कहाँ कहाँ ।।
उसको तो डूब जाना था आंखों में आपकी ।
उसका वजूद आप बचाते कहाँ कहाँ ।।
जलता मिला है शह्र तुम्हारे उसूल पर ।
उल्फत की तुम भीआग लगाते कहाँ कहाँ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
इस बेखुदी में आप भी जाते कहाँ कहाँ ।
दिल के हजार ज़ख्म दिखाते कहाँ कहाँ ।।
खानाबदोश जैसे हैं हम इस जहान में ।
रातें तमाम अपनी बिताते कहां कहां ।।
मुश्किल सफर मेंअलविदा कहकर चले गए।
यूँ जिंदगी का साथ निभाते कहाँ कहाँ ।।
चहरा हो बेनकाब न जाहिर शिकन भी हो।
क़ातिल का हम गुनाह छुपाते कहाँ कहाँ ।।
कुछ तो हमें भी फैसला लेना था जुल्म पर।
नजरें हया के साथ झुकाते कहाँ कहाँ ।।
आंखे किसी के, हुस्न पे हमको फिदा मिलीं ।
दरबान इस चमन में बिठाते कहाँ कहाँ ।।
शायद अदा में दम था परिंदे कफ़स में हैं ।
यूँ आसमान सर पे उठाते कहाँ कहाँ ।।
दैरो हरम से दूर हमें तो खुदा मिला।
मस्जिद में रब है लोग बताते कहाँ कहाँ ।।
हमको नसीहतें वों भुलाने की दे गए ।
उनकी निशानियों को मिटाते कहाँ कहाँ ।।
बदनाम हो न जाये ये बस्ती के हम थे चुप।
जुल्मो सितम का दर्द सुनाते कहाँ कहाँ ।।
उसको तो डूब जाना था आंखों में आपकी ।
उसका वजूद आप बचाते कहाँ कहाँ ।।
जलता मिला है शह्र तुम्हारे उसूल पर ।
उल्फत की तुम भीआग लगाते कहाँ कहाँ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
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