तीखी कलम से

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

सावन में उमंग्यों मेरो मनवा......


मेरा यह लेख हिंदुस्तान समाचार पत्र में 21.7.14 को प्रकाशित हुआ ।



                                                                     -                                         नवीन मणि त्रिपाठी


सावन की हरियाली , मद मस्त हवाएँ ,रिमझिम फुहार , काले काले बादल  , दादुर के मीठे गीत, नाचते हुए मोर ,फलों से लदे पेड़ ,झूलों से कजरी और सावन के गीतों की मिठास , भला कौन होगा जो भाव विभोर होने से अपने आप को रोक सके ? एक चुंबकीय आकर्षण से परिपूर्ण यह मधुमास अंग अंग में नव स्फूर्ति और जादुई तरंगों से मन को रोमांचित कर जाता है । यह मॉस भगवान शिव तक को अपनी आकर्षण शक्ति से खीच लाता है । कहा जाता है भगवान शिव सावन मॉस में पृथ्वी लोक में ही विचरण करते हैं ।

     भारतीय हिंदी साहित्य में यह मधुमास जब जब आया तब तब साहित्य भी अपनी उफान पर रहा । सावन के प्रभाव से साहित्य कभी अपने आप को अछूता नहीं रख सका । प्राचीन काल से अब तक साहित्य में सावन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है । प्रणय के स्वर इस मॉस में स्वतः अपने चरम पहुँच जाते हैं । मिलान की आशाएं ऊर्जावान हो जाती हैं । संयोग और वियोग की परिभाषाएं दृष्टिगोचर हो उठती हैं । यह अद्भुद दृश्य देख कर कवियों की लेखनी का सक्रिय  होना स्वाभाविक है । सूरदास जी लिखते हैं -
प्रीती तौ  मरिबौऊ ना विचारे ।
सावन मॉस पपीहा बोले, पिय पिय करि जो पुकारे।
सूरदास प्रभु दरसन कारन ,ऐसी भाँति विचारे ॥ (सूरसागर ८८ )

    सावन मॉस में प्रीति  की पराकाष्ठा का इससे बेहतर उदहारण दुर्लभ है । विरह की उत्कृष्ट संवेदना मात्र सावन में ही जागती  है । गोस्वामी तुलसी दास जी का तो सावन से बहुत ही गहरा संबंध है । पंद्रह सै चौवन विषै कालिंदी के तीर । सावन शुक्ला सप्तमी तुलसी धरेउ शरीर॥ आपका तो जन्म ही सावन में हुआ है । गोस्वामी जी ने सावन में प्रभु के प्रति उपजे प्रेम की व्याख्या बड़े ही सरल शब्दों में कर दी है ।
वरखा रितु रघुपति भवति, तुलसी सालि सुदास ।
राम  नाम  बर  बरन  जग, सावन  भादव  मॉस ॥
         दूसरी ओर  सावन के प्रभाव के संबंध में गोस्वामी जी लिखते हैं -
उरवी   परि  कलहीन  होइ, ऊपर   कला  प्रधान ।
तुलसी देखि कलाप गति ,सावन घन पहिचान ॥
       अतः जब मोर के पंख जमीन को छूते हुए चलते हैं तब वे कलाहीन  होते हैं लेकिन सावन के बादलों को देख कर वे ऊपर उठकर कला से परिपूर्ण हो जाते हैं । सावन मॉस में गोस्वामी जी ने उक्त पंक्तियों से प्रणय के कौतूहल का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत कर दिया हैं ।

    मीरा के नारी मन की संवेदना भी सावन में अछूती नहीं रही है । उनकी लोकप्रिय रचना -
बरसे बदरिया सावन की ,
सावन की मन भावन की ।
सावन में उमंग्यो मेरो मनवा ,
भनक सुनी हरि आवन की ।

सावन की  उमंग का  जीवंत प्रभाव लेकर रचना आज भी लोगों की जुबान पर अपना अस्तित्व बनाये रखने में सफल है ।
    आधुनिक कवियों ने तो सावन की छटाओं पर खूब लेखनी चलाई है । कवि हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा है -
सिंचित सा कंठ पपीहे का ,
कोयल की बोल है भीगी सी ,
रस डूबा स्वर में उतराया ,
अब दिल बदले घड़ियाँ बदली
यह गीत नया मैंने गया ।
साजन आये ,सावन आया ॥

    कानपुर की धरती में जन्मी साहित्य जगत को महिमामंडित करने वाली पहचान आदरणीय गोपालदास नीरज जी अपने कनपुरिया अंदाज में प्रणय संवेदनाओं को सावन से जोड़ते हुए कहते हैं -

यदि मै होता घन सावन का ।
गोल  कपोलो  पर  लुढ़का  कर ,प्रथम  बूँद  वर्षा  की ।
याद दिलाता मिलन प्रात वह प्रथम प्रथम चुम्बन का ॥
यदि मै होता घन सावन का ।

   महान कवि निराला जी भी अपने अंतर मन की भावनाओं  को सावन की धारा में बहने से नहीं रोक सके । कनपुरिया अनुभूति व अभिव्यक्ति तो साहित्यिक सुरम्यता समाहित कर ही लेती है । निराला जी ने लिखा है -
फिर लगा सावन मन भावन  झूलने घर घर पड़े ।
सखि चीर साड़ी की सवांरी झूलती झोंके बड़े ।
वन मोर चारों ओर बोले पपीहे पी पी रटे ।
ये बोल सुनकर प्राण बोले ,ज्ञान भी मेरे हटे ॥


     सावन में पृथ्वी से गरजते बादलों का आलिंगन , सब कुछ प्रेम मय कर देता है चारों दिशाओं की हवाएँ शीतलता के संग गुनगुनाती से प्रतीत होती हैं । सावन का चुंबकत्व चेतना शून्य कर देता है । मन के आवेग प्राकृतिक छटाओं में लीन  हो जाते हैं । तभी तो कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने प्रणय निवेदन की पंक्तियाँ सावन में लिख गए -

जेठ नहीं यह जलन ह्रदय की ,
उठ कर जरा देख तो ले ,
जगती में सावन आया है
मायाविनी सपने धो ले ।


     हिंदी साहित्य में अनेक कवियों ने अपनी कलम से सावन की अनुभूतियों को जीवंत किया है । कल्पनाओं का ज्वार सावन में जरूर आता है । विरह वेदनाओं के स्वर तीव्र हो जाते हैं । हर ओर  प्रियतम से मिलन की अपेक्षाएं प्रकृति की रंगीनियों के साथ ताल से ताल मिला रही होती हैं । प्रकृति के कण कण में रोमांच होता है । प्रकृति की निकटता का अनुभव ही कवि व साहित्यकार का जन्मदाता बन जाता है । जब जब सावन आया साहित्य के पुरोधाओं की  लेखनी से अमर रचनाएँ बरसती रहीं हैं ।

                           इति 

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

ऐ खुदा कातिल तेरी मजहब परस्ती हो गयी है

                 गजल (इराक त्रासदी)

जिन्दगी  महँगी  यहाँ  पर  मौत  सस्ती   हो   गयी   है ।
जल   रही  इंसानियत  बदनाम   बस्ती  हो   गयी  है ।।

ये नबाबों  का  शहर भी  लाश  का  इक  ढेर है  अब ।
मिट  रहा   है  ये चमन  बरबाद  हस्ती  हो   गयी  है ।।

खुश  हैं   सौदागर   बहुत  शातिर   इरादों  को  लिए ।
असलहो  को  बेच  कर उनकी भी  मस्ती हो गयी है ।।

खून   की  नदियाँ   बहाना  बन   चुका   तहजीब  है ।
इस रियासत की  यहाँ  हालत भी  खस्ती  हो गयी है ।।

छिप  रहे   मासूम  अपनी  माँ  के  आँचल  में   यहाँ ।
शायद दहशतगर्द  की  गलियों  में  गश्ती  हो गयी है ।।

हर  तरफ   खामोसियाँ  हैं   मौत   की  आहट   बहुत ।
हर जुबाँ  के  लफ्ज   पर  बे  वक्त  शख्ती हो  गयी है ।।

डूबना    मुमकिन   बहुत   है  जंग   की    मजधार  में।
देख  जरजर   ये   पुरानी   तेरी   कश्ती  हो  गयी  है ।।

अब    तुझे    सिजदा   करे   कैसे    यहाँ    इंसानियत ।
ऐ  खुदा   कातिल   तेरी  मजहब परस्ती  हो  गयी है ।।

 .................नवीन..................