तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

ग़ज़ल -याद आया फिर मुझे गुजरा ज़माना शुक्रिया

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मिल गया है आपका  वह  ख़त  पुराना शुक्रिया ।
याद  आया  फिर  मुझे  गुज़रा ज़माना शुक्रिया ।।

ढल  गई  चेहरे  की रौनक ढल गया वह चाँद  भी ।।
हुस्न  का  अब  होश   में आकर  बुलाना शुक्रिया ।।

कुछ अना के साथ में नज़रों की वो तीखी क़सिस।
बाद मुद्दत के  तेरा यह  दिल  जलाना ,शुक्रिया ।।

मुस्तहक़ थी आरजू पर हो सकी कब मुतमइन ।
वक्त  पर  आवाज  देकर  यूँ  बुलाना  शुक्रिया ।।

जिक्र  कर लेना मुनासिब  है नहीं  इस  दौर  में ।
फिर गमे उल्फ़त का देखो लौट आना, शुक्रिया ।।

यह   गुलाबी  पंखुड़ी  खत  में मिली सूखी  हुई ।
दे दिया है इश्क  का फिर  से  फ़साना  शुक्रिया ।।

थी  कहीं  मजबूरियां  तो  सच  बता  देती  उसे ।
आसुओं  का  सुन  लिया सारा  तराना शुक्रिया ।।

चुप रहा  क़ातिल  की बस्ती में सराफत  देखिये ।
गैर  के  पहलू  में  जाकर  मुस्कुराना  शुक्रिया ।।
           नवीन

ग़ज़ल - इक ग़ज़ल मेरी सुनाकर देखिये

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चाँद को, महफ़िल में आकर देखिये ।
इक   ग़ज़ल मेरी  सुनाकर  देखिये ।।

गर   मिटानी  हैं जिगर की ख्वाहिशें ।
इस तरह मत छुप छुपाकर देखिये ।।

ये   रकीबों  का  नगर  है  मान  लें।
इक  रपट  मेरी  लिखाकर  देखिये ।।

हुस्न   पर   पर्दा  मुनासिब  है  नहीं ।
बज़्म में चिलमन  उठाकर  देखिये ।।

क्यों  फ़िदा हैं लोग शायद कुछ तो है ।
आइने   में   हुस्न  जाकर   देखिये ।।

हैं    हवाएँ   गर्म    कुछ्  बेचैन  मन ।
तिश्नगी   थोड़ी   बुझा  कर  देखिये ।।

आप  के  कहने  से तौबा कर लिया ।
मैकदा   से   रूह   लाकर   देखिये ।।

फेसबुक  से  यूँ   हटाना  बस में था ।
अब जरा  दिल  से हटाकर  देखिये ।।

सिर्फ  इल्जामो  का  चलता कारवाँ ।
फर्ज कुछ अपना निभाकर देखिये ।।

आप मेरे  इश्क़  के  काबिल तो  हैं ।
हो सके तो  दिल  मिलाकर देखिये ।।

दीन  हो  जाए   न  ये  बर्बाद  अब ।
मत  हमें  नज़रें  झुकाकर  देखिये ।।

कत्ल   होने   का  इरादा  था  मेरा ।
बेवजह  मत  आजमाकर  देखिये ।।

धड़कने   देंगी  गवाही  फ़िक्र   की ।
खत मेरा दिल से लगाकर  देखिये ।।

जख़्म का होता कहाँ मुझपर असर ।
तीर  जितने  हों  चलाकर  देखिये ।।

ताक   में   बैठे   सभी  ओले   यहाँ ।
दम  अगर है  सर  मुड़ाकर  देखिये ।।

दर्द   ये   काफूर   हो   जाए   मिरा ।
कुछ रहम में  मुस्कुरा  कर  देखिये ।।

              -- नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 25 दिसंबर 2016

ग़ज़ल-थी मिली पहली दफ़ा तो क्या हुआ - 50 अशआर के साथ मेरी सबसे लम्बी ग़ज़ल

50 अशआर के साथ मेरी जिंदगी की सबसे लम्बी ग़ज़ल । 

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तू न  मेरा  हो   सका  तो  क्या  हुआ ।
हो गया है फिर  जुदा तो  क्या  हुआ ।।

हम  सफ़र  था  जिंदगी  का  वो  मिरे ।
बस यहीं तक चल सका तो क्या हुआ।।

मैकदों  की  वो  फ़िजा  भी  खो  गई ।
वक्त पर वो चल दिया तो क्या हुआ ।।

फिर यकीं का खून  कर  के वह गयी ।
दर्द दिल का कह लिया तो क्या हुआ।।

सुर्ख लब पे  रात भर  जो  हुस्न  था ।
तिश्नगी में  बह  गया तो क्या  हुआ ।।

डर  गया   इंसान  अपनी   मौत  से ।
खो गया वो हौसला तो  क्या  हुआ ।।

फिर हक़ीक़त  खुल गयी चेहरे से है ।
हो  गयी  तू  बेवफा  तो  क्या हुआ ।।

चन्द  मिसरे  थे  ग़ज़ल   में  दर्द  के ।
उम्र  भर  पढ़ता  रहा तो क्या हुआ ।।

थी  बहुत  चर्चा  मिजाजे  इश्क़ की ।
हो गई  हम पर फ़िदा तो क्या हुआ ।।

आसुओं  में   फिर  बहे  हैं   हौसले ।
वह नही कुछ मानता तो क्या हुआ ।।

खर्च  हो  जाती  है  अक्सर  जिंदगी ।
है नहीं  हासिल नफा  तो क्या  हुआ।।

रेत   पर  था  वो   घरौंदा   भी   बना ।
गर  लहर से वह मिटा तो क्या हुआ ।।

था   बहुत   अंजाम  से  वह  बेखबर ।
घर नया उसका  बिका तो क्या हुआ।।

जर्द   पत्तों  की  तरह वह  गिर  गया ।
थी बड़ी  हल्की  हवा तो  क्या  हुआ ।।

ढह  गयी  दिल  की  इमारत शान  से ।
नाम था  लिक्खा  हुआ तो क्या हुआ।।

कुछ   दुआएं  माँ  की उसके साथ थीं ।
कुछ उसे तोहफ़ा मिला तो क्या हुआ ।।

भूंख  से   बच्चे    ने   तोडा  दम  यहाँ ।
दूध  शंकर   पर  चढ़ा  तो क्या  हुआ ।।

उम्र  भर   तरसा  जो   रोटी  के  लिए ।
लाश   पर  चंदा  हुआ  तो  क्या हुआ ।।

हैं   बहुत  हाजी  नगर  में  आज   भी ।
है   गरीबो   से  जफ़ा  तो  क्या  हुआ ।।

पी  गया  है  वह  समन्दर   उम्र  तक ।
अब सड़क पर आ गया तो क्या हुआ ।।

जीत    जाएगा    वही   शातिर   यहाँ ।
है  रगों   में   भ्रष्टता   तो  क्या   हुआ ।।

जेब    अपनी     गर्म    होनी   चाहिए ।
रुपया  है   गैर   का  तो   क्या   हुआ ।।

लुट     रहा   है  मुल्क   वर्षो  से  यही ।
अब  कोई लड़ने  चला  तो क्या हुआ ।।

फिर   बदायूं  और   यमुना   वे   मिले ।
है  यही   उसकी अदा  तो  क्या  हुआ ।।

क्यों   उसे   खुजली   हुई   कानून  से ।
नोट  आया  गर   नया  तो  क्या  हुआ ।।

 है   इलेक्शन  से  उसे  शिकवा  बहुत ।
धन  नही  काला  बचा  तो क्या  हुआ ।।

बुन  रहें   हैं  साजिशें   सब  जात  की ।
वह   तरक्की  मांगता  तो  क्या  हुआ ।।

आ  गई   जो   बज्म   में   उल्फत  नई ।
गर  कोई  दिल  टूटता   तो  क्या  हुआ ।।

हाँ   पता   मालूम   था   घर   का   उसे ।
खत  नहीं  कोई  लिखा  तो क्या  हुआ ।।

बेबसी    का    लुत्फ़    सब    लेते  रहे ।
सिर्फ  वो  मुझको  पढ़ा  तो  क्या  हुआ।।

आईने   से    हर    हक़ीक़त   जानकर ।
रात   भर   रोता   रहा  तो  क्या  हुआ ।।

वह    रिहाई    बाँटती   थी  इश्क़   की ।
हो   गया  तू  भी  रिहा  तो  क्या  हुआ ।।

बेखुदी    में    डूब    जाने    के   लिए ।
दिल मेरा तुझसे मिला  तो  क्या हुआ ।।

बिन हुनर  वह आग  के  दरिया  में  है ।
फिर मुहब्बत में  जला  तो क्या हुआ ।।

था  कहाँ  वह  इश्क़  के काबिल कभी ।
अक्ल पर पत्थर पड़ा  तो  क्या हुआ ।।

इस ताल्लुक़ का भी  गहरा  सा  असर ।
बोझ अब  लगने  लगा  तो क्या  हुआ ।।

डस गयी नागन हो जिसके  जिस्म को ।
फिर भी वो हँसता मिला तो क्या हुआ ।।

यह तबस्सुम  है    तेरा  जालिम  बहुत ।
मैं  सलामत  बच  गया  तो क्या हुआ ।।

फिर  हवा  से  क्यों  दुपट्टा  उड़   गया ।
साजिशों  की  थी अदा  तो  क्या हुआ ।।

चाँद  शरमाया   हुआ    है  आजकल ।
इश्क़  की अर्जी  दिया  तो क्या हुआ ।।

जुर्म   है   सच    बोलना    यारों  यहां ।
झूठ   पर   पर्दा    किया    तो   हुआ ।। 

कत्ल    खानो   से   तेरा   था   वास्ता ।
बन  गया  मकतूल  सा  तो क्या  हुआ ।।

थी   तरन्नुम   में   पढ़ी   उसने   गजल ।
 दिल  उसी पे आ  गया  तो क्या हुआ ।।

शक की ख़ातिर लुट  गई इज्जत सभी ।
आदमी   ठहरा   भला  तो  क्या  हुआ ।।

है    बहुत   लाचार   यह   इंसान   भी ।
जिस्म का सौदा किया तो  क्या  हुआ ।।

हारता   पोरस    सिकन्दर   से    यहां ।
वक्त  से शिकवा  गिला तो  क्या हुआ ।।

हुस्न  की  तारीफ   लिख  आई  कलम।
हो  गई   हमसे  खता  तो  क्या  हुआ ।।

तुम   दगा   दोगे   न   ये   उम्मीद    थी।
हो  गया  कुछ हादसा  तो  क्या  हुआ ।।

इस   सुखनवर   में  नए  आलिम  मिले ।
मैं   नहीं   इसमें  ढला   तो  क्या  हुआ ।।

ले  गई   दिल  को  हरम  से    छीनकर ।
थी  मिली  पहली  दफ़ा  तो क्या  हुआ ।।

                        - नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

वो सुर्खरू चेहरे पे कुछ आवारगी पढ़ने लगी

----------*****  ग़ज़ल ******-------

बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम 
मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन
2212   2212   2212   2212 

शर्मो  हया  के   साथ   कुछ  दीवानगी   पढ़ने  लगी।
वो  सुर्खरूं  चेहरे  पे  कुछ  आवारगी  पढ़ने   लगी ।।

हर  हर्फ़  का  मतलब  निकाला जा रहा खत में यहां ।
खत के लिफाफा पर वो दिल की बानगी पढ़ने लगी ।।

वह  बेसबब  रातों में आना और  वो पायल की धुन ।
शायद  गुजरती  रात  की  वह  तीरगी  पढ़ने   लगी ।।

गोया  के  वो महफ़िल में आई  बाद  मुद्दत के  मगर ।
ये क्या  हुआ  उसको जो  मेरी  सादगी  पढ़ने  लगी ।।

कुछ  हसरतों  को दफ़्न कर देने पे ये तोहफा मिला ।
वो  फिर  तबस्सुम  को  लिए  मर्दानगी  पढ़ने  लगी ।।

बहकी  अदा  तो  वस्ल  के  अंजाम  तक  लाई  उसे ।
पैकर  पे  आकर   फिर  नज़र  शर्मिंदगी  पढ़ने लगी ।।

नज़दीकियों  के  बीच   में  पर्दा  न  कोई   रह   गया ।
मेरी   जलालत   में    मेरी    बेपर्दगी    पढ़ने    लगी ।।

सहमी  हुई  थी आँख  वो  सहमा मिला था दिल  तेरा ।
कुछ  हिज्र   पर  गमगीन  था नाराजगी  पढ़ने  लगी ।।

खामोशियाँ  थीं लफ्ज पर जज्बात फिर  भी  थे जवाँ ।
नज़रों से  निकली हुस्न की  वो  बन्दगी  पढ़ने  लगी ।।

ये  आधियों  का  जुर्म , पर  झंडा वहीँ   कायम  रहा ।
अब   वो   हमारे इश्क़ की  हर तिश्नगी   पढ़ने  लगी ।।

            -- नवीन मणि त्रिपाठी

हरम में घुंघरुओं से कुछ तराने छूट जाते हैं

----*********** "ग़ज़ल "***********----
        ( 25 शेरों से युत ग़ज़ल।पहली बार )
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अदा के   साथ  ऐ  ज़ालिम,   ज़माने  छूट  जाते  हैं ।
मुहब्बत  क्यों  ख़ज़ानो   से  ख़ज़ाने  छूट  जाते  हैं ।।

तजुर्बा   है   बहुत  हर  उम्र  की   उन  दास्तानों   में ।
तेरीे   ज़द्दो  ज़ेहद   में  कुछ  फ़साने   छूट  जाते  हैं ।।

बहुत चुनचुन के रंज़ोगम को जो लिखता रहाअपना।
सनम   से   इंतक़ामों   में   निशाने  छूट   जाते   हैं ।।

रक़ीबों  से  मुसीबत का कहर बरपा  हुआ  तब  से  ।
हरम   में  घुंघरुओं  से  कुछ   तराने  छूट  जाते  हैं  ।।

वो  कुर्बानी   है  बेटी  की  जरा  ज़ज़्बात  से  पूछो ।
नए   घर   को   बसाने   में   घराने   छूट  जाते   हैं ।।

गरीबों  की  खबर  से  है  कमाई   का  कहाँ   नाता । 
 के  चैनल  पर  कई  आंसू  दिखाने  छूट  जाते   है ।।

नहीं  साँसे  बची   हैं  अब   सबक़  के  वास्ते   तेरे ।
वफ़ा के  फ़र्ज  भी  अक्सर  बताने   छूट  जाते  हैं ।।

मुखौटे  ओढ़  के  बैठे  हुए  जो  ख़ास  है  दिखते ।
कई   रिश्ते   सुना  है  आज़माने   छूट  जाते  हैं ।।

यहां  सावन नहीं बरसा  वहां  फागुन  नहीं  आया।
ये  रोटी-दाल  में   मौसम  सुहाने   छूट  जाते  हैं ।।

गरीबी   आग   में  झुलसे   हुए  इंसान   से   पूछो।
हवा  के  साथ  कुछ  सपने  पुराने  छूट  जाते हैं ।।

मकाँ लाखो बना कर बेअदब सी सख्सियत जो हैं ।
बड़े   लोगों  से  अपने  घर  बनाने   छूट  जाते  हैं ।।

परिंदों  का भरोसा  क्या  कभी  ठहरे   नही   हैं वो ।
बदलते  ही  नया   मौसम   ठिकाने   छूट  जाते  हैं ।।

न औकातों  से  ऊपर  उठ  मुहब्बत  ज़ान  लेवा  है ।
यहां  लोगो   से   कुछ  वादे  निभाने  छूट  जाते  हैं ।।

सियासत  लाश  पर  करके  वो  रोटी  सेंक लेता है ।
सियासत  दां  से क्यूँ  मरहम  लगाने  छूट जाते  हैं ।।

खुशामद  कर  अनाड़ी   पा  रहे  सम्मान  सत्ता  से ।
ये   हिन्दुस्तान   है   प्यारे   सयाने   छूट  जाते   हैं ।।

जो खुशबू की तरह  बिखरे फ़िजा से रूबरू होकर  ।
नई   महफ़िल  में  वो  शायर बुलाने  छूट  जाते  हैं ।।

न कर साकी से तू  यारी उसे  दौलत  बहुत  प्यारी ।
यहाँ   तिश्ना  लबों  को  मय  पिलाने  छूट जाते हैं ।।

अदालत  में  सुबूतो  पर  है लग  जाती  सही बोली ।
कई   मुज़रिम  भी  दौलत  के  बहाने  छूट जाते हैं ।।

है क़ातिल  का शहर  यह ढूढ़ मत  अपनी  वफादारी ।
मुहब्बत   से  बचो  तो   क़त्ल  खाने   छूट  जाते  हैं ।।

बयां  करके  गया  है ख़त भी तेरे  हुस्न  का  ज़लवा ।
तुम्हारे   हाथ  से  कुछ  ख़त  ज़लाने  छूट  जाते  हैं ।।

बहुत  मुद्दत  से  वो  लिखता  रहा  है  नाम  रेतों  पर ।
समन्दर   से   सभी   अक्षर   मिटाने   छूट  जाते   हैं ।।

मिला  है   वह  गले   मेरे  मगर  ख़ंजर   छुपा  करके ।
वो  नफ़रत  के   किले  उससे  ढहाने   छूट  जाते  हैं ।।

हवाला   उम्र    का   देकर   दरिंदे   फिर  बचे   देखो ।
लिखी  तहरीर   में   क्यों   ज़िक़्रख़ाने  छूट  जाते  हैं ।।

वो   चौराहे   पे  बैठी  थी  नकबो  से  अलग  हटकर ।
सुना  है   उम्र  पर   फैशन   दिखाने   छूट  जाते   हैं ।।

ग़ज़ल  की   तिश्नगी  है  बेकरारी  का सबब  आलिम ।
बिना   शबनम   स्वरों   में  गुनगुनाने   छूट   जाते  हैं ।।

                          
                                    --नवीन मणि त्रिपाठी 

(मित्रो ग़ज़ल कम से कम 5 शेर और अधिकतम 25 शेरो तक लिखी जाती है मैंने पहली बार इतनी बड़ी ग़ज़ल लिखी है आपको कैसी लगी।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

मौत का जारी कोई फरमान कर

2122   2122  212

 मौत  का   जारी  कोई  फरमान   कर ।
हो   सके  तो  ऐ  ख़ुदा  एहसान   कर ।।

जिंदगी  तो  काट दी मुश्किल  में अब।
रास्ता  जन्नत  का  तो  आसान   कर ।।

जी  रहा  है  आदमी  किस्तों  में  अब ।
धड़कनो  की  बन्द  यह  दूकान  कर ।।

टूट   जाती    हैं   उमीदें    सांस   की।
 खत्म तू बाकी  बचा  अरमान  कर ।।

हसरतें   सब   बेवफा  सी   हो  गईं ।
आसुओं  के  दौर से अनजान  कर ।।

हार   जाता   है   यहां    हर  आदमी।
क्या करूँगा मौत  को पहचान कर ।।

है   गरीबी    से  मेरा   रिश्ता   बहुत ।
बेबसी का  मत  मेरी  अपमान  कर ।।

फूट  कर   वो   रात   भर  रोता  रहा ।
क्यूँ  बहुत खामोश है सब  जानकर ।।

जब  अँधेरे  ही  मेरी   किस्मत  में  हैं ।
रौशनी  से  मत  खड़ा  तूफ़ान  कर ।।

         -- नवीन

ग़ज़ल

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करप्शन  पर  अपोजीशन  से  होती रोज गलती   है ।
सड़क  पर  आ, वतन के  साथ नाइन्साफ करती है ।।

है  गर   कुर्बान  होने  का  नहीं  कुछ  हौसला तुझमें । 
तो अच्छे दिन की ख्वाहिश भी तुझे नापाक करती है।।

बड़ी   गहरी   हुई   है  चोट   इन  हाथी  नसीनों  पर ।
लगी चेहरों पे जो स्याही बड़ी मुश्किल से धुलती  है ।।

है  पैरोकार  काले धन  के जो  चैनल   बहुत  ज्यादा ।
छलकता   दर्द   आँखों  में   नहीं  तश्वीर  दिखती  है ।।

ख़जाने   का  असर  देखो  हुए  बेचैन   कुछ  हाकिम ।
कोई  हँसता  हुआ मिलता किसी  की नींद उड़ती है ।।

रुका जब रथका वो पहिया लगाकुछ अपशकुन होगा।
यहाँ  तो  सायकल  भी  अब  नई  सूरत बदलती  है ।।

बड़ा  अम्बार  नोटों  का  फंसा  बैठी  हैं मोहतरमा ।
नहीं  नोटों  की माला है नहीं  अब शाम  ढलती है ।।

हवाला   की   तिजोरी  में  लगाता  रोज   जो  झाडू ।
बहुत    बीमार  दिखता  है  नई  खांसी पकड़ती  है ।।

लगा   कर  सेंध चिट फंडों  में दौलत मन्द है  काफी ।
वो  अक्सर  होश खो देती जुबाँ उसकी फिसलती है ।।

बड़ा   सुन्दर   नज़ारा  है  अजब  है खौफ  का  मंजर ।
दिखाने जश्न का मौसम बहुत पब्लिक  निकलती है ।।

                                   --    नवीन मणि त्रिपाठी

अजीब मंजर है बेखुदी का अजीब मेरी सहर रही है

121  22  121 22 121 22 121 22

न वक्त का कुछ पता ठिकाना 
न  रात  मेरी   गुज़र  रही   है ।
अजीब  मंजर  है  बेखुदी का ,
अजीब   मेरी  सहर   रही  है ।।

ग़ज़ल के मिसरों में  गुनगुना के ,
जो दर्द लब  से  बयां  हुआ था ।
हवा   चली  जो  खिलाफ  मेरे ,
जुबाँ वो  खुद से मुकर  रही है ।।

है  जख़्म अबतक  हरा हरा ये ,
तेरी  नज़र  का सलाम क्या लूँ ।
तेरी  अदा  हो   तुझे  मुबारक ,
नज़र   से   मेरे  उतर  रही  है ।।

मिरे   सुकूँ  को  तबाह  करके ,
गुरूर  इतना  तुझे  हुआ  क्यूँ ।
तुझे  पता  है   तेरी  हिमाकत ,
सवाल बनकर  अखर रही है ।।

न वस्ल को तुम भुला सकी हो, 
न  हिज्र  को मैं भुला ही पाया ।
यहाँ  रकीबों  की  वादियों   में ,
तेरी  ही  खुशबू बिखर रही है ।।

हमारे   दिल  में  हमी  से  पर्दा ,
गुनाह  कुछ  तो  छुपा गई  हो ।
है  दिल का  कोई नया  मसीहा , 
तू जिसके दम पे निखर रही है ।।

किसी  तबस्सुम  की  दास्ताँ  पे ,
फ़ना  हुआ  है गुमान  जिसका ।
है  कत्ल  खाने  में जश्न  इसका,
कज़ा की महफ़िल गुजर रही है ।।

हुजूर    चिलमन   से    देखते  हैं ,
गजब  का  मौसम है कातिलाना ।
ये इश्क भी क्या अजब का फन है 
नज़र   नज़र  पे   ठहर  रही   है ।।

तमाम  रातो  के   सिलसिलों   में ,
खतों  से  अक्सर  पयाम  आया ।
जो  चोट मुझको मिली थी तुझसे 
वो  फ़िक्र  बनकर  उभर रही है ।।

             ----- नवीन मणि त्रिपाठी

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

टूट जाए जो मेरा दिल तो ख़ता क्या दोगे

2122 1122 1122 22 
अश्क  आए  तो  निगाहों  को सजा  क्या दोगे ।
है  पता  खूब  वफाओं  का  सिला  क्या  दोगे।।

खत जो आया था मुहब्बत की निशानी लेकर ।
लोग   पूछें  तो  जमाने  को   बता  क्या  दोगे ।

सुन  लिया  मैंने   तेरे   प्यार  के  किस्से  सारे ।
टूट  जाए  जो  मेरा  दिल  तो  खता क्या दोगे ।।

मेरी किस्मत  ने  मुझे  जब भी  पुकारा  होगा ।
मुझको  मालूम  मेरे  घर  का पता क्या दोगे ।।

आशियाँ जब भी  उजाड़ोगे  तो मुश्किल होगी ।
तेरी  हस्ती  ही  नही  मुझको  हटा  क्या  दोगे ।।

सो  गया  रात  अधूरी  सी  कहानी  लिखकर ।
चन्द मिसरों  के  लिए और  जफ़ा  क्या दोगे ।।

पाक   कहते   हैं  उसे   लोग  बड़ी   है  चर्चा ।
साफ़  दामन  है  नया  दाग़  लगा  क्या  दोगे ।।

लिख   रही  नाम  तेरा  रेत पे  कब से पगली ।
उसकी आदत है वो  जज्बात  मिटा क्या दोगे ।।

बाद  मुद्दत  के   हमें  इश्क  में  जीना  आया ।
दर्द  बढ़ने  के  सिवा  और  दुआ  क्या  दोगे ।।

ऐ  मुसाफ़िर  तू  हवाओं से  कहाँ  है  वाक़िफ़ ।
इन  चिरागों  को  हकीकत  में बुझा क्या दोगे ।।

                 -- नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

कितने ज़ालिम हैं अदाओं से जलाने वाले

2122 1122 1122 22 
मांग  इनसे  न  दुआ  जख़्म   दिखाने  वाले ।
दौलते   हुस्न    में   मगरूर   ख़जाने   वाले ।।

जो निगाहों  की गुजारिश से खफा  रहता है ।
कितने जालिम हैं अदाओं से  जलाने  वाले ।।

एक   मुद्दत  से  तेरी  राह  पे   ठहरी  आँखें ।
क्या मिला तुझ को हमे  छोड़ के जाने वाले ।।

था  रकीबों  का  करम  शाख  से टूटा  पत्ता ।
यूं    निभाते  है  यहां   फर्ज  ज़माने    वाले ।।

टूट  जाते  है  वो  रिश्ते  जो  कभी थे चन्दन ।
 इश्क़  क्यों जुर्म  है मजहब को चलाने वाले ।।

मेरी उल्फत के जनाजे को उठाया जिस दिन ।
कुछ   नकाबों   में   मिले  तेरे   घराने   वाले ।।

चाँद देखोगे तो इस चैन का  जाना  मुमकिन ।
रुख  से  महबूब   के  पर्दे  को  हटाने  वाले ।। 

है फरेबों  का चलन  दिल न  लगाना  इतना ।
लूट    जाते   हैं   हमें  रोज   फ़साने   वाले ।।

पूछ हमसे न कभी नींद का  आलम  क्या है ।
रात   यादों    में   सताते   है  जगाने   वाले ।।

रूठ  जाए  तो  उसे  प्यार से सज़दा करना ।
याद  रखना   हैं   कई  और   मनाने   वाले ।।

               नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

यकीन बेच के आई है हुक्मरानों का

1212  1122  1212  22(112)

असर दिखा है जमाने में  खास बातों का ।
मिटा  है  खूब  खज़ाना  रईश जादों का ।।

है फ़िक्र उस को नसीहत रुला गई  यारों ।
गया  है  चैन , सुना  है तमाम  रातों का ।।

लुटे थे  लोग जो  अपने  गरीबखानों  से ।
हिसाब  मांग  रहे  है  वही  हजारों  का ।।

न पूछिए की चुनावों में  हाल  क्या होगा ।
बड़ा अजीब  नज़ारा है इन  सितारों का ।।

सफ़ेद   पोश   से  पर्दा   हटा  गया  कोई ।
पता चला है लुटेरों के  हर  ठिकानों  का ।।

गरीब हक़ का  निवाला  पचा नही सकते ।
दिया जबाब है तुझको  तेरे फसानों  का ।।

बिका टिकट तो वो दूकान  खोल  के बैठी।
यकीन  बेच  के आयी  है  हुक्मरानों  का ।।

गए  हैं  भूल मनाना  वो  जन्मदिन अपना ।
बड़ा हिसाब  भी  देना है बन्द खातों  का ।।

जो पत्थरों  से  मदरसों  पे जुल्म  ढाते  थे ।
बने शिकार  वही  मुल्क  के निशानों  का ।।

तमाम  चोर   हुए  एक  जुट  मुसीबत   में ।
बुरा  हुआ है यहां  हाल  सख्त  थानों का ।।

                         -- नवीन मणि त्रिपाठी

कुछ तितलियों के फेर में अक्सर फ़िदा मिले

221 2121 1221 212

ये सिलसिले भी इश्क के  हमसे  खफा  मिले । 
अक्सर   मेरे  रकीब   जमानत   रिहा   मिले ।।

किस्मत  की  बेवफाई   जरा  देखिये  हुजूर ।
जितने सनम  मिले  सभी शादी  सुदा मिले ।।

जब  भी  उठे नकाब हिदायत के  नाम  पर ।
क्यों लोग आईने  में  हक़ीक़त  ज़ुदा  मिले ।।

चर्चा , लिहाज़   उम्र  का , उसको  नही  रहा ।
कुछ तितलियों के फेर में अक्सर फ़िदा मिले।।

अक्सर  हबस  के नाम पे मरता  है  आदमी ।
मासूम   सी   अदा  में  ढ़ले   बेवफा   मिले ।।

कहना  पड़ा  है  आज  उसे  बार  बार यह ।
वाजिब  कहाँ  है  बात मुझे ही सजा मिले ।।

इतना तो  मानता  था  हमारी भी  बात को ।
कुछ  तो  जरूर  था  जो  कई मर्तबा मिले ।।

बिकता   यहां   ज़मीर   ये   हिन्दोस्तान  है ।
बिकने लगे हैं लोग  कहीं  कुछ  नफ़ा मिले ।।

बाजार  में  सजे  हैं  नए   जिस्म  आजकल।
उसको खबर नही है तिजारत में क्या मिले ।।

बदला  किया  वो  यार  फ़क़त  इन्तजार  में ।
शायद किसी नसीब में कुछ तो लिखा मिले ।।

           ----नवीन मणि त्रिपाठी

मत कहो उसे ज़ालिम , बेवफा नहीं लगता



212 1222 212 1222



ये हवाओं की थी साजिश शजर नहीं कहता ।

अलविदा हो के क्यूँ जाएगा शाख से पत्ता ।।




बात कुछ तो तेरी महफ़िल में लग गई होगी ।

दर्द यूं ही कोई चेहरा बयां नहीं करता ।।




याद आएगी मेरी शाम तक नही उसको ।

कब शराबी भी कोई बात होश में कहता ।।




क्यूँ यकीं नही होता है उसे किसी पर भी ।

आग गर न हो तो घर से धुआँ नही उठता ।।




फिर कहा जमाने ने मैंकदों का आँका हूँ ।

गर शराब सस्ती हो रिन्द फिर कहाँ डरता ।।




वो उसूल रखता है हुस्न की हिफ़ाज़त में ।

मत कहो उसे जालिम बेवफ़ा नहीं लगता ।।




-- नवीन मणि त्रिपाठी

थी हराम की जो रकम मिली उसे वक्त पे न खपा सका

11212   11212   11212   11212
नए  हादसों  का  ये  दौर है कई जख़्म थे न बता  सका ।
है  तिजोरियों पे  मुसीबतें मैं सुकूं अमन भी न ला सका ।।

पली मुद्दतों से जो ख्वाहिशें  वो चली गयीं  हैं  गुमान से ।
थी हराम की जो रकम मिली उसे वक्त पे न खपा सका ।।

ये अजीब मुल्क परस्तियाँ  ये  नया नशा भी  कमाल है ।
तू उजाड़ दे न ये घर मेरा तुझे  मुल्क  से  न  हटा सका ।।

बड़ी कोशिशें पे नज़र हुई वो न कुर्सियों पे सभंल सकें । 
वो मुकाबलों का निजाम है न मिटा सका न हरा सका ।।

तेरे  फैसलों  ने  सितम  किये  मेरी आबरू भी जुदा हुई ।
है चुनाव सर पे खड़ा हुआ मैं हिसाब तक न लगा सका ।।

          ---नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222

 वफ़ा की सब  फिजाओं में हमारा जिक्र आएगा ।
घिरी  काली  घटाओं  में हमारा  जिक्र  आएगा ।।

पुराने  खत  जला  देना  बहुत  मायूस  कर देंगे ।
खतों  की  वेदनाओं  में  हमारा  जिक्र  आएगा ।।

खुदा से पूछ लेना तुम  खुदा  तस्लीम कर लेगा ।
खुदा की उन दुआओं  में हमारा  जिक्र आएगा ।।

बहारें जब भी आएँगी तेरी  दहलीज़ पे अक्सर ।
महकती सी हवाओं  में  हमारा  जिक्र आएगा ।।

कोई तारीफ़  में तेरे  अगर  कुछ शेर कह जाये ।
तो उसकी भी अदाओं में हमारा जिक्र आएगा ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

बड़ी शिद्दत से मैं दिल में दफ़न हर खार करता हूँ

---------------******ग़ज़ल******-------------

तेरे जलवे  से  वाकिफ  हूँ  तेरा  दीदार  करता  हूँ ।
मुहब्बत मैं तुझे  सज़दा  यहां  सौ  बार  करता हूँ ।।

नज़र बहकी फिजाओं में अदाएं भी हुई कमसिन ।
बड़ी  मशहूर   हस्ती  हो  नया  इकरार  करता  हूँ ।।

न  जाने  कौन सी  मिट्टी  खुदा ने फिर  तराशा  है ।
है  कारीगर बड़ा बेहतर  बहुत  ऐतबार  करता हूँ ।।

नई आबो हवा में वो  कली  खिल जायेगी  यारों ।
गुलाबी रोशनाई  से  लिखा  इजहार करता  हूँ ।।

यहां  बेदर्द  ख्वाहिश  है वहां  कातिल  निगाहें  हैं ।
बड़ी शिद्दत से मैं दिल में दफ़न हर खार करता हूँ ।।

जमाने  में  रकीबों  ने बड़ी  कीमत  लगा  दी  है ।
है नीलामी  का  ये  मंजर नया व्यापार  करता हूँ ।।

कोई तश्वीर है धुँधली , है  जिंदाबाद  ये  कोशिश ।
अधूरे अक्स को  लेकर  उसे  साकार  करता  हूँ ।।

तमन्ना  रूठ  मत  जाए  तेरे  कूचे  में  दाखिल  है ।
शिक़ायत  वक्त  करता  है उसे  बेकार  करता  हूँ ।।

बहुत नजदीक से गुज़री है तेरे  हुस्न की  खुशबू ।
हवाओं की अदावत  से ज़िगर  लाचार करता हूँ ।।

                 --- नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

बड़ा सदमा लगा है दर्द ये किस से कहें भाई

बड़ा  सदमा  लगा  है  दर्द  ये  किस से  कहें  भाई ।
गए   काले    ख़जाने   हाथ  से   कैसे   रहें  भाई ।।

हमे तो लूटने का  हक़ दिया जनता ने बढ़ चढ़ कर ।
तेरी पैनी  हिमाकत  को भला हम  क्यों  सहें भाई ।।

गढ़े मुद्दत की मेहनत से  करप्शन के किले हमने ।
वो  तेरी  बेरूखी  से  ये  किले भी क्यों  ढहें  भाई ।।

इलक्शन के  लिए कुछ तो रहम  करते  मेंरे आँका ।
बहुत  बोरों  में  दौलत  थी  कहाँ  लेकर  बहें भाई ।।

न  जाने  कौन  सा  जादू  चला बैठे  हो लोगों  पर ।
हमारी  कौन  है सुनता  सभी  तुमको   चहें  भाई ।।

बनी  हैं सिर्फ  घोटालो  के  बल  पर  कुर्सिया मेरी ।
करो  थोडा   जतन   मेरे   निशाने  भी   लहें भाई ।।

1222 1222 1222 1222
                   -- नवीन मणि त्रिपाठी

शनिवार, 5 नवंबर 2016

याद शब् भर कई दफा आई

-------******ग़ज़ल******---------

2122 1212 22
कोई   खुशबू   भरी   हवा  आई ।
याद  शब्  भर  कई  दफ़ा  आई।।

दर्द  दिल  का  नही  मिटा  पाया।
जब से  हिस्से  में  बेवफा  आई ।।

कौन  कहता  है  नासमझ  है वो ।
दुश्मनी  वक्त   पर  निभा  आई ।।

उम्र    गुजरी   जिसे   मनाने   में ।
आज  लेकर  नई   फ़िज़ा  आई ।।

कुछ तो  नीयत  में  फासले  होंगे ।
वो  अदब  में  नजर  झुका आई ।।

चन्द  लम्हे   थे   जिंदगी   खातिर ।
बेरहम  हो  के  फिर  क़ज़ा  आई।।

है  अलग   बात   भूल   जाने  की ।
काम   उसके   मेरी   दुआ  आई ।।

ये मुसीबत  भी  क्या  बुरी  शय है ।
जब भी आई  ख़फ़ा  खफा आई ।।

रूठ जाने की जिद के क्या कहने ।
मुद्दतो   बाद    फिर   रज़ा  आई ।।

खूब   चर्चा   है   शहर   में   देखो ।
क्यूँ  रकीबों  से  दिल  लगा आई ।।

उस की किस्मत बुलन्द  थी  यारों ।
उसकी महफ़िल में दिलरुबा आई ।।

लोग    हैरान    हो    गए  तब  से ।
आग  पानी  में  जब  लगा  आई ।।

थी  अदा   इंतकाम   के  काबिल ।
हौसला   फिर  कहीं  डुबा  आई ।।

       --नवीन मणि त्रिपाठी

है जिस पे कत्ल का इल्जाम वो मासूम लगता है

1222 1222 1222 1222
तू बचकर चल, जमाना ये बड़ा मरहूंम लगता है ।
है जिस पे कत्ल का इल्जाम वो मासूम लगता है ।।

पढ़ी है कुछ लकीरे जब से वो तकदीर की मेरी ।
मुझे हंसकर कहा  उसने कोई  मादूम  लगता है ।।

गुलामी पर बहस अब  बन्द होनी  चाहिए  यारों ।
सुना है  कह रही है वो , मेरा  मख़्दूम  लगता है ।।

ये राजे ग़म न तुम पूछो,बयां करना भी मुश्किल है।
इरादा   क्यों  मुझे   तेरा  यहां  मक्तूम  लगता  है ।।

न जाने क्यूँ उसे हर बार शक़  होता  रहा हम पर ।
नई फ़ितरत का आशिक़ है जरा मग्मूम लगता है ।।

शराफ़त से अदावत है उसे  परवाह ही  किसकी ।
हैं उसकी  हरकतें ऐसी कि वो  मज्मूम लगता है ।।

बिसातें बिछ चुकी हैं चाल  का अंदाज शातिर है ।।
बदलना इस तरह लहजा सही मजऊम लगता है ।।

 नवीन मणि त्रिपाठी 

शब्दार्थ

मा'दूम....(फ़ना)
मख़्दूम  ....स्वामी, आका
मक्तूम .....छिपा हुआ
मज्ज़ूम   ...निश्चित
मरहूम  ... स्वर्गवासी
मग्मूम   ...दुखित, रंजीदा
मज़्ऊम  ..विचारा हुआ, सोचा हुआ
मज़्मूम    ..अश्लील निंदित

तेरी बदसलूकियों पर मुझे रूठना न आया

ग़ज़ल

1121 2122  1121 2122
था नसीब  का  तकाजा  वो  बना  ठना  न आया ।
मेरे  गर्दिशों  का  आलम  तुझे  देखना  न आया ।।

कई जख़्म  सह  गए  हम ये  निशान  कह रहे  हैं ।
तेरी  बदसलूकियों   पे , मुझे   रूठना   न  आया।।

ये वफ़ा की थी तिज़ारत,मैं समझ सका न तुझको ।
है सितम  का  इन्तिहाँ ये , मुझे  टूटना  न   आया ।।

हुए हम  भी बे खबर  जब,वो नई  नई  थी  बंदिश।
वो  ग़ज़ल  की  तर्जुमा  थी , हमे  झूमना न आया ।।

था  सराफ़तों   का  मंजर ,वो   झुकी  हुई  निगाहें ।
बड़ी  तेज  आंधियाँ  थीं , कभी  लूटना  न आया ।।

ऐ बहार  मत  गुमां  कर,तू  खुदा  की  रहमतों  पर ।
मैं शजर हूँ उस खिजाँ का, जिसे सूखना न आया ।।

ये है मनचलों की बस्ती,न उठा के चल तू चिलमन।
यहां   बेअदब    ज़माना , तुझे   घूमना   न  आया ।।

न सुना तू  वो कहानी ,जो  थी  मैकदों  पे  गुजरी ।
वो शराब थी  नज़र  की, जिसे  घूटना  न आया ।।

है गिरफ्त में  नशेमन , हैं  जमानतें  भी   ख़ारिज ।
ये तो इश्क की सजा है  कभी  छूटना  न  आया ।।

रहे  देखते   किनारे , वो   नदी    की   तिश्नगी  थी ।
था जो गफलतों  में  सागर ,उसे  ढूढ़ना  न  आया ।।

जो तड़प तड़प के लिक्खी न वो मिट सकी इबारत।
हैं  गमों  के हर्फ़ जिन्दा  हमें भूलना ना  न  आया ।।                            

                       -- नवीन मणि त्रिपाठी

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

जाती तेरे मिज़ाज से क्यूँ बेरुख़ी नहीं

221 2121 1221 212 
बुझते    रहे   चिराग   गई    तीरगी   नही ।
फिर  भी हवा के रुख से मेरी दुश्मनी नही ।।


आ  जाइए   हुज़ूर   मुहब्बत   के    वास्ते ।
दैरो   हरम  में  आज  कहीं  बेबसी  नहीं ।।


बहकी  अदा  के  साथ बहुत आशिकी हुई ।
गुजरी  तमाम  रात  मिटी   तिश्नगी   नहीं ।।


कब से नज़र को फेर के बैठी है वो सनम ।
शायद  मेरे  नसीब  में  वो  बात ही नहीं ।।


माना कि गैर से है ये वादा भी वस्ल का ।
उल्फ़त की बेखुदी में कहीं रौशनी नही ।।


तेरा वजूद  है तो  सलामत  है  ये  शहर ।
वरना  मेरी  किसी  से  क़ोई बन्दगी नहीं ।।


मुझको  मिले  हैं  दर्द  वफ़ा की तलाश में ।
जाती  तेरे  मिजाज  से  क्यूँ  बेरुखी  नहीं ।।


मुमकिन है मैकदों में रकीबों की शाम हो ।।
यह बात सच नही कि वहां मयकशी नही ।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

तुम बेखुदी में बस ज़फ़ा पढ़ते गए

‌2212  2212 2212 
दीवानगी   में  हम  वफ़ा   लिखते  गए । 
तुम बेखुदी  में  बस  जफ़ा  पढ़ते  गए ।।

पूछा   किया  वो  आईने   से   रात  भर ।
आवारगी  में   हुस्न   क्यूँ  ढलते   गए ।।

आयी तबस्सुम जब मेरी दहलीज पर ।
देखा  चिराग़े  अश्क  भी  जलते  गए ।।

नादानियों   में   फासलो   से  बेखबर ।
बस जिंदगी भर  हाथ  को  मलते गए ।।

तालीम  ले  बैठा था जब  इन्साफ  की ।
क्यूँ   मुज़रिमो  के  फैसले  रुकते गए ।।

जिसकी    बेबाकी   के  चर्चे  थे   बहुत ।
तहज़ीब  को  अक्सर  वही  छलते  गए ।।

लफ्जों  की  रंगत  दर्द  से  फीकी  लगी ।
पर्दे   में  आए   नाग  जब   डसते   गए ।।

नाज़ो नफ़स के साथ था महफ़िल गया ।
शिकवे  गिले  सब रात भर सुनते गए ।।

आई   हुई   है  तिश्नगी   जिस  रोज  से ।
बहकी  नज़र  की  धार  में  बहते  गए ।।

काटे  गए  जंगल थे  जिसकी  खौफ  में ।
वो  भेड़िये   फिर  गाँव  में  पलते  गए ।।

आबाद  हो   जाती   मुकम्मल   तीरगी ।
बुझती  शमा   के   हौसले  बढ़ते   गए ।।

         नवीन मणि त्रिपाठी

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

हर मयक़शी के बीच कई सिलसिले मिले

221 2121 1221 212

हर मयकशी के बीच कई  सिलसिले मिले ।
देखा  तो  मयकदा  में  कई मयकदे  मिले ।।

साकी शराब डाल के हँस  कर के यूं  कहा।
आ   जाइए    हुजूर   मुकद्दर  भले   मिले ।।

कैसे   कहूँ   खुदा  की  इबादत  नहीं  वहां ।
रिन्दों के  साथ में भी नए  फ़लसफ़े  मिले ।।

यह बात और  है की  उसे  होश  आ  गया ।
वरना   तमाम  रात  उसे   मनचले   मिले ।।

जिसको फ़कीर जान के करता था एहतराम।
चर्चा  उसी  के  घर  में   ख़ज़ाने  दबे  मिले ।।

मुझ से न पूछिए कि  ज़माने  से क्या मिला ।
बदले  मिज़ाज़ ले  के  यहाँ  सिरफ़िरे  मिले ।।

पीना गुनाह  था  तो शराफ़त क्यूँ  छोड़ दी ।
कुछ   दाग  उसूलों  में  बड़े    बेतुके  मिले ।।

बेचैनियाँ     सबूत     हजारों    बता   गयीं ।
अक्सर  ही  सिलवटों  में  तेरे  बिस्तरे मिले ।।

क़ातिल तेरी निगाह में कुछ ख़ासियत तो है ।
दीवानगी    में   लोग   बहुत   गमज़दे   मिले ।।

हुस्नो शबाब भर  के जो बोतल  उछाल  दी ।
साकी   शरीफ़  लोग  शराफ़त  कटे   मिले ।।


                 --- नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल -- ये बात और है तेरा ख़याल आज भी है

1212  1122  1212  112

किसी की याद में जलती मशाल आज भी है ।
इन आँसुओं में सुलगता सवाल आज भी है ।।

न पूछ मुझसे मुहब्बत के दौर का वो सफर ।
ये बात और  है  तेरा  ख़याल आज भी है । 

वो इश्क बेच  के आया  है रात  भर के लिए ।
तेरे  दयार  में  रहता  दलाल  आज  भी  है ।।

तमाम दर्द का  लिक्खा  पयाम पढ़ तो सही ।
खतों के साथ में जिन्दा मिशाल आज भी है ।।

यहाँ खुली  हैं  दुकानें   तिज़ारतों  की  मगर ।
नई  बज़ार   में  देखा  उछाल  आज  भी  है ।।

शरीफ़   लोग  हैं  इनको  न  बे  इमान  कहो  ।
शराफ़तों  में   ठहरता  मज़ाल आज  भी  है ।।

नज़र  नज़र  की  वो  रंगीनियाँ  न  भूल  सके ।
वो  रंगतों  की  निशानी  गुलाल आज भी  है ।।

बहुत  जुदा है इबादत  की  रौशनी  का असर।
बड़ा यतीम था  कायम  धमाल आज  भी  है ।।

हरेक जख़्म को   मैंने  ग़ज़ल के साथ पढ़ा ।
अदा अदा में कशिश है कमाल आज भी है ।।

पड़ी  जो   एक   नज़र  हुस्न  वो  शराब  हुई ।
ये होश खो के वो  होता हलाल आज भी है ।।

सबूत   माँग   न  मुझ  से   मेरे  हबीब  ठहर ।
मेरे  नसीब में  भीगी  रुमाल  आज   भी  है ।।

वो मैंक़दों  का  चलन  तिश्नगी के साथ चलो ।
अजीब  इश्क़ था  मुझको मलाल आज भी है ।।

             -- नवीन मणि त्रिपाठी

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

जिंदगी है ढलान पर भाई

2122 1212 22
आज  मुद्दा  ज़ुबान  पर  भाई ।
गोलियां क्यूँ  जवान पर भाई ।।

उठ रहीं  बेहिसाब उँगली क्यूँ ।
इस लचीली कमान  पर भाई ।।

कुछ  वफादार  हैं अदावत  के।
तेरे  अपने  मकान  पर  भाई।।

बाल बाका न हो सका  उनका।
खूब  चर्चा  उफान  पर  भाई ।।

मरमिटे हम भी तेरी  छाती पर।
चोट  खाया  गुमान  पर  भाई ।।

बिक रही दहशतें  हिमाक़त में ।
उस की छोटी दुकान पर भाई ।।

गीदड़ो का फसल पे  हमला है ।
बैठ  ऊँचे   मचान   पर  भाई ।।

यार   देता  हुनर   उसे   जंगी ।
क्या मिला है उड़ान पर भाई ।। 

प्याज बिक जाएगी अठन्नी में ।
जुल्म कैसा किसान पर  भाई ।।

मजहबी  कत्ल भी  इबादत  है ?
दिख गया कब कुरान पर भाई ।।

कुछ हकीकत से वास्ता रख लो ।
जिंदगी   है  ढलान   पर   भाई ।।

           -नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 25 सितंबर 2016

ग़ज़ल - हज़ार दर्द सुनाना है बात क्या करना

ग़ज़ल --बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महजूफ़
मुफाइलुन्  फइलातुन्  मुफाइलुन्  फेलुन
1212  1122  1212   22

बड़ा   खराब   ज़माना  है  बात  क्या  करना ।
मेरी  ग़ज़ल  पे  निशाना  है बात क्या करना ।।

नहीं है नज्म की तहजीब जिस मुसाफिर को ।
उसी से दिल का फ़साना है बात क्या करना ।।

अजीब  शख़्स  यूँ  पढ़ता  उन्हीं  निगाहों  को ।
किसी  को  वक्त गवाना  है बात क्या  करना ।।

बिखर  गए  है  तरन्नुम  के  हर्फ़ महफ़िल में ।
नजर नज़र से मिलाना  है बात क्या  करना ।।

हुजूर   जिन  से  दुपट्टे   कभी   नही   सँभले ।
उसे भी घर  को  बसाना  है बात क्या करना ।।

दिखी है आग  जो  दरिया में  तेज लपटों सी ।
वहीं से डूब  के आना  है  बात  क्या  करना ।।

नया  नया  है  वो  शायर  उसे  न  छेड़ो  तुम ।
हजार  दर्द   सुनाना   है  बात   क्या  करना ।।

घनी  है जुल्फ बहकती  सी  शोख़  नजरें  हैं ।
मियाँ  नकाब  उठाना  है  बात  क्या  करना ।।

गुजर न रोज़ अदाओ  के  साथ बन ठन कर ।
तुझे  तो  आग  लगाना  है  बात  क्या  करना ।।

ये   हाशिये   जो   मुकद्दर  के  दरमियां  मेरे ।
फ़ना  का फर्ज  निभाना है बात क्या करना ।।

              --नवीन मणि त्रिपाठी