तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

मंगलवार, 24 मार्च 2020

ग़ज़ल - ख़ुदा ख़ैर करे

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उसकी आँखें हैं ख़ता वार ख़ुदा ख़ैर करे'
दिल किया मेरा गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

जमीं की तिश्नगी को देख रहा है बादल ।
आज बारिस के हैं आसार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

नाम आया है मेरा जब से सनम के लब पर 
पूरी बस्ती हुई बेज़ार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

हर तरफ़ उनकी अदाओं पे शोर बरपा है ।
जिंदगी जीना है दुश्वार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

बिजलियाँ रोज़ गिराते हैं नशेमन पे सनम ।
सब्र  की  टूटे  न दीवार  ख़ुदा  ख़ैर करे ।।

कास आएं तो सही आप मेरी महफ़िल में ।।
बज़्म हो जाए ये गुलज़ार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

अब तो मासूम दिलों पर है उन्हीं का कब्जा ।
हुस्न की चल रही सरकार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

लोग उल्फ़त की तिज़ारत का तक़ाज़ा लेकर ।
खुद ब खुद आ रहे बाज़ार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

अपनी ताक़त पे जो इतरा रहे थे दुनियाँ में ।
आज  वो मुल्क भी लाचार ख़ुदा खैर करे ।।

वो क़यामत है क़रोना की तरह छूते ही ।
हो गया दिल कोई बीमार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

क़ैद हैं घर में मिलें भी तो भला कैसे हम ।
याद तड़पाये बहुत बार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

         --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 15 मार्च 2020

कि मैं रिंद हूँ मैकदा चाहता हूँ

***ग़ज़ल ***

रहे   तू   जहाँ   वो   फ़िज़ा  चाहता  हूँ ।
मैं दैर-ओ-हरम  का  पता  चाहता हूँ ।।1

तेरी  खुशबुओं  से   मुअत्तर  चमन  में ।
महकती   हुई   इक  सबा चाहता  हूँ ।।2

मेरी चाहतों  से  है  वाकिफ़ ख़ुदा जो ।
उसे  क्या  बताऊँ  मैं  क्या चाहता हूँ ।।3

है दोज़ख़ या जन्नत बताने की  ख़ातिर ।
तेरे   इश्क़   का  फ़लसफ़ा  चाहता हूँ ।।4

सलामत   रहे   बेख़ुदी   उम्र   भर  ये ।
न  उतरे  कभी  वो  नशा  चाहता हूँ ।।5

समझ ही न पाया मैं मज़मून ख़त का ।
सनम का ही अब तर्जुमा  चाहता हूँ ।।6

मुझे  यूँ  ही  तन्हा ही  रहने दो यारों ।
अभी   हिज्र  का  तज्रबा  चाहता   हूँ ।।7

विसाले सनम को ख़बर मेरी ख्वाहिश ।
के  मैं  रिंद  हूँ  मयक़दा  चाहता  हूँ ।।8

जो बीनाई में हैं मुहब्बत के मंजर ।
उन्हीं पर तेरा तब्सिरा चाहता हूँ ।।9

रक़ीबों की महफ़िल में जाने से पहले ।
तेरा हाले दिल पूछना चाहता हूँ ।।10

मैं शाइर हूँ मेरे कलम को न रोको ।
ग़ज़ल से नया सिलसिला चाहता हूँ ।। 11

     - नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

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परिंदे  को  गुल  पे  फुदकने  दो  यारो ।
इसे  इश्क़  में  कुछ  बहकने  दो यारो ।।

अभी क्या  बताऊँ  है  रुख़सार  कैसा ।
हया  का  ये  पर्दा  सरकने  दो  यारो ।।

जलूँगा वो इक दिन मुहब्बत में  बेशक़ ।
लगी  आग  थोड़ी  दहकने  दो  यारो ।।

सुना   है  वो  महफ़िल  आने  लगे   हैं ।
ज़रा दिल को अब तो धड़कने दो यारो ।।

यूँ शरमा के प्यारा  क़मर  छुप न  जाये ।
मेरा  चाँद  छत पे  चमकने  दो  यारो ।।

वो कमसिन शरारत अजब शोख नजरें ।
उन आंखों से मय को छलकने दो यारो ।।

बड़ी नासमझ  है  वो   पगली  दिवानी।
उसे  दर  बदर  अब भटकने  दो यारो ।।

कली  शाख  पर  मुस्कुराने   लगी   है ।
फ़िज़ा में  उसे कुछ महकने  दो यारो ।।

अगर डर  है उनको मेरी  चाहतों  से ।
उन्हें अपने चेहरे को ढकने  दो यारो ।।

हमारे दिल से नया इन्तिक़ाम किसका है

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हमारे दिल से नया इन्तिक़ाम किसका है ।।
तुम्हारे हुस्न पे ताज़ा कलाम किसका है ।।

बिछीं हैं राह में पलकें, ज़िगर, उमीदें सब ।
सनम के वास्ते ये एहतिराम किसका है ।।

न दीन का  ही पता और पता न ईमां  का ।
बताऊं क्या तुझे क़ातिल अवाम किसका है ।।

मेरी क़िताब में गुल मिल रहे हैं कुछ दिन से ।
पता करो ये मुहब्बत का काम किसका है ।।

मैं मुन्तज़िर हूँ, मयस्सर कहाँ मुलाकातें ।
तुम्हारे ख़त में ये लिक्खा पयाम किसका है ।।

मिलो रक़ीब से लेकिन तुम्हें ख़बर ये रहे ।
सुकूनो चैन अभी तक हराम किसका है ।।

नज़र झुका के किया है कबूल तुमने जो  ।
मेरे हबीब बताओ सलाम किसका है ।।

हयात तेरा भरोसा ही नहीं पल भर का ।
तमाम उम्र का यह इंतिज़ाम किसका है ।।

हरेक ज़र्रे में तुझको मिला ख़ुदा ज़ाहिद ।
अभी भी शक है तुझे अहतिमाम किसका है ।।

            -- नवीन मणि त्रिपाठी

बेख़ुदी में आपको क्या क्या समझ बैठे थे हम

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गुल ,सितारा ,चाँद का टुकड़ा समझ बैठे थे हम 
बेख़ुदी में आपको क्या क्या समझ बैठे थे हम ।।

यहभी इक धोका ही था जो धूप में तुझको सराब।
तिश्नगी के वास्ते दरिया समझ बैठे थे हम।।

अब मुहब्बत से वहाँ आबाद है इक गुलसिताँ ।
जिस ज़मीं को वक्त पर सहरा समझ बैठे थे हम ।।

याद है तेरी अना ए हुस्न और रुसवाइयाँ ।
इश्क़ को यूँ ही नहीं महंगा समझ बैठे थे हम ।।

जब बुलन्दी से गिरे बस सोचते ही रह गए ।
इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम ।।

इस तरह रोशन हुई आने से तेरे बज़्म वो ।
स्याह शब में शम्स का जलवा  समझ बैठे थे हम ।।

बारहा झुक कर हुआ वह नाग का हमला ही था ।
कल तलक जिसको तेरा सज़दा समझ बैठे थे हम ।।

ये भी क्या किस्मत रही सागर वही उथला मिला ।
जिस समुंदर को बहुत गहरा समझ बैठे थे हम ।।

        डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
शब्दार्थ -
बेख़ुदी - होश में नहीं होना 
सराब - मृग मरीचिका
सहरा - रेगिस्तान
तिश्नगी - प्यास 
दरिया - नदी
स्याह शब - काली रात 
शम्स - सूरज 
रोशन - प्रकाशित
बज़्म - महफ़िल
अना ए हुस्न - सुंदरता का अहं 
सज़दा - नमस्कार, नमन

इक ग़ज़ल गुनगुनाओ सो जाओ

***** ग़ज़ल *****

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इक  ग़ज़ल  गुनगुनाओ  सो  जाओ ।
फ़िक्र  दिल  से  उड़ाओ  सो जाओ ।।

शमअ   में  जल  गए   पतंगे   सब ।
इश्क़  मत  आज़माओ  सो जाओ ।।

यादें   मिटतीं   नहीं  अगर  उसकी ।
ख़त  पुराने  जलाओ  सो   जाओ ।।

रात  काफ़ी   गुज़र  चुकी  है  अब ।
चाँद  को  भूल  जाओ  सो जाओ ।।

उसने  तुमको  गुलाब  भेज   दिया ।
गुल को दिल से लगाओ सो जाओ ।।

उल्फ़तें   बिक  रहीं  करो  हासिल ।
दाम  अच्छा  लगाओ  सो  जाओ ।।

ख़ाब   में  वस्ल   है   मयस्सर  अब ।
रुख़ से चिलमन हटाओ सो जाओ ।।

बेवफ़ा   की    तमाम    बातों   का ।
यूँ  न  चर्चा   चलाओ  सो  जाओ ।।

बारहा   माँगने    की   आदत   से ।
काहिलों  बाज़ आओ  सो जाओ ।।

है  सियासत  का  फ़लसफ़ा  इतना ।
आग  घर  में   लगाओ  सो जाओ ।।

इतनी  जल्दी  भी  क्या मुहब्बत में ।
तुम  ज़रा  सब्र  खाओ  सो जाओ ।।

स्याह   रातों   में  बेसबब  मुझको ।
आइना  मत  दिखाओ  सो  जाओ ।।
         --नवीन मणि त्रिपाठी

नौजवां के हाथ बस तीरों कमां रह जायेगा

*** ग़ज़ल***

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गर बिकी ये सल्तनत फिर क्या यहाँ रह जायेगा ।
चाहतें मिट जाएँगी ख़ाली गुमाँ रह जाएगा ।।

छीन लेगी अब किताबें ये सियासत फ़ख्र से ।
नौजवां के हाथ बस तीरों कमां रह जायेगा ।।

गोलियां उसने चला दी अम्न के सीने पे जब ।
फिर हमारे सब्र का तो इम्तिहाँ रह जायेगा ।।

खेलिए मत आग से यूँ कुर्सियों के वास्ते ।
शह्र जल जाएगा साहब और धुवाँ रह जायेगा ।।

इस तरह तोड़े गये हैं दिल फ़ज़ा में दोस्तों ।
फ़ासला कुछ तो हमारे दरमियाँ रह जायेगा ।।

कुछ भी कहना है बहुत मुश्किल सुनो इस दौर में ।
देश का अम्नो सुकूँ कितना यहाँ रह जायेगा ।।

कौन सी साज़िश रचोगे ये बता दो तुम हमें ।
जब तुम्हारा फ़लसफ़ा भी रायगां रह जाएगा ।। 

दर्द पर खामोश रहना है गुनाहों का सबब ।
फिर कोई महरूम हक़ से बेजुबां रह जायेगा ।।

वक्त तूफां ही बताएगा परिंदे को कभी ।
इस शज़र पर कब तलक ये आशियाँ रह जायेगा ।।

शौक़ से तू मुफ़लिसों की हसरतों का क़त्ल कर ।
पर यहां आबाद इनका कारवां रह जाएगा ।।

चाहता पढ़ना नहीं जो नब्ज़ जनता की यहाँ ।
एक दिन गफ़लत में कोई हुक्मरां रह जायेगा ।।

अर्थ - रायगां - व्यर्थ

             -नवीन मणि त्रिपाठी

अच्छे दिनों का साथ दुआ में नहीं मिला

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कोई दरख़्त खुश तो फ़ज़ा में नहीं मिला ।।
फिर भी सितम का जिक्र सदा में नहीं मिला ।। 

उम्मीद क्यूँ लगाएं सियासत से आप जब ।
अच्छे दिनों का साथ दुआ में नहीं मिला ।।

नफ़रत की राजनीति बहुत हो चुकी हुजूर ।
अम्नो शुकूँ किसी को जफ़ा में नहीं मिला ।।

दहशत है लाइलाज नहीं मुल्क में मगर ।
बेफ़िक्र  मन रहे ये शिफ़ा में नहीं मिला ।।

यूँ तो पुकारा उसने कई बार है हमें ।
चाहत का इक असर भी निदा में नहीं मिला ।।

चलकर कदम ये रुक गए उल्फ़त की राह पर ।
अहसासे इश्क़ तेरी अदा में नहीं मिला ।।

ऐ बेवफ़ा न पूछ मेरा हाले दिल अभी ।
मुझको यकीं भी तेरी रज़ा में नहीं मिला ।।

बेमौत मर रहे हैं वो मज़हब के नाम पर ।
मौला तेरा  सवाब  दया में नहीं मिला ।।
(इस शेर में तनाफुर जानबूझ कर लिखा है )

अब बन्द हो फ़साद ख़ुदा के सवाल पर ।
जब रब किसी को यार क़ज़ा में नहीं मिला ।।

मत ढूढिये उन्हें जो जहाँ से चले गए ।
उनका कोई सुराग़ हवा में नहीं मिला ।।

इस बात पे बदल गये मुंसिफ़ के फैसले ।
क़ातिल का जब सबूत हया में नहीं मिला ।।

     --नवीन मणि त्रिपाठी

कितने हुज़ूर आपके लहज़े बदल गए

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जब से शबाबे हुस्न के साँचे में ढल गये ।
कितने हुज़ूर आपके लहज़े बदल गए ।।

निकलो न बेनकाब उसूलों के शह्र में 
नीयत से बहुत लोग सुना है फिसल गए ।

एहसान कौन मानता है आजकल यहाँ ।
करने चला हवन तो मेरे हाथ जल गए ।।

सय्याद तेरी बज़्म में मक़तल को देखकर ।
सारे कफ़स को तोड़ परिंदे निकल गए ।।

साकी को है मलाल इसी बात का सुना ।
हम मैकदे में उसके जो पीकर सँभल गए ।।

पढ़ने लगा हूँ आपके लफ्जों के हुस्न को ।
जिस दिन से आप मुझको सुनाकर ग़ज़ल गए ।।

रिश्वत न मांगिये अभी मजबूर हूँ हुजूर ।
इतनी सी बात क्या कही , साहब उछल गए ।।

शोषण के खूँ पसीने पे बुनियाद जिनकी थी ।
अक्सर उसी निज़ाम के तोड़े महल गए ।।

देखी है कहकशां में मुहब्बत की इंतिहा ।
चंदा को देख करके सितारे मचल गए ।।

ज़ख्मी ज़िगर का यार ज़रा राज़ कर बयां  ।
किसकी निगाहे नाज़ से ये तीर चल गए ।।

मुंसिफ करेगा कौन सा इंसाफ तू बता ।
जब दाम पर गवाह सदाक़त निगल गए ।।

       -- नवीन मणि त्रिपाठी

दिल मिल सका न हाथ मिलाने के बावज़ूद

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महफ़िल में उसकी बारहा जाने के बावजूद ।
दिल मिल सका न हाथ मिलाने के बावजूद ।।

तूफां तू अपना हश्र दिलों में तो जा के देख ।
रोशन चराग़े  इश्क  बुझाने  के बावजूद ।।

ऐ इश्क़ उसकी नींद उड़ाने की बात कर ।
सोता रहा जो हुस्न जगाने के बावजूद ।।

अब तिश्नगी भी रिन्द की चर्चा में आ गयी ।
होशो हवास में है पिलाने के बावजूद।।

तुम तो मिटा सके भी न छोटा सा इंकलाब ।
जुल्मो सितम दयार में ढाने के बावजूद ।।

सबको दिखा है अक्स तेरा इस निगाह में ।
क़ातिल तेरा गुनाह छुपाने के बावजूद ।।

हालात मुफ़्लिसी का किया जब से मैं बयां ।
आते नहीं हैं लोग बुलाने के बावजूद ।।

दौलत से जिंदगी का कोई ताल्लुक नहीं ।
भूखे मरे हैं लोग ख़जाने के बावजूद  ।।

मैं दफ़्न कर सका न उसे मुद्दतों के बाद ।
मिटती नहीं है याद मिटाने के बावजूद ।।

हासिल न हो सकी है कोई नौकरी उन्हें ।
ये आसमान सर पे उठाने के बावजूद ।।

नाकामियों  का  दर्द  सितारों से पूछिए ।
निकला नहीं जो चाँद मनाने के बावजूद ।।

      --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

तेरी छत पे कबूतर आ रहे हैं

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जो   बीनाई  में  मंज़र  आ  रहे  हैं ।
नज़र वो बद  से  बदतर आ  रहे हैं ।।

किताबें  हाथ  मे  होनी  थी जिनके ।
उन्हीं  के  हाथ  ख़ंजर आ  रहे  हैं ।।

भरोसा जिसको खुद पर ही नहीं है ।
उसी  के  साथ  रहबर  आ  रहे  हैं ।।

यकीं करना बहुत मुश्किल है उन पे ।
पहन कर जो भी खद्दर आ रहे हैं ।।

जरा  बच  के  रहो   रानाइयों  से ।
सुना है अब सितमगर आ रहे हैं ।।

बनाऊंगा उन्हीं से घर मैं इक दिन ।
मेरे घर तक जो पत्थर आ रहे हैं ।।

किये थे वस्ल पर जो प्रश्न तुमने ।
सनम के ख़त में उत्तर आ रहे हैं ।।

तू कर साहिल पे अब नजरे इनायत ।
जहाँ   तूफ़ां  निरन्तर  आ  रहे  हैं ।।

वही  जख़्मी  हुए  तीरे  नज़र  से ।
जो  तेरी  ज़द में अंदर  आ रहे  हैं ।।

जो दाने  डाले  थे उल्फ़त  के  तूने ।
तेरी  छत  पे  कबूतर  आ  रहे   हैं ।।

तेरी  बस्ती  में   देखो   हुस्न   वाले ।
तेरा  लेकर   मुकद्दर  आ   रहे   हैं ।।

        -- नवीन मणि त्रिपाठी

बेवफ़ा दूर तलक साथ निभाया भी नहीं

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साफ़ दामन  है वो ,इल्ज़ाम का साया भी नहीं ।
और क़ातिल ने कोई राज़ छुपाया भी नहीं ।।

फ़तह  कर लेते यहां मंजिले मक़सूद मगर ।
बेवफ़ा दूर तलक साथ निभाया भी नहीं ।।

कैसे ज़ख्मी हुए हैं दिल तेरी महफ़िल में सनम ।
तीर नजरों से कोई तुमने चलाया भी नहीं ।।

तेरे चहरे की उदासी को पढा है  मैंने ।
हाले दिल तू ने मुझे अपना बताया भी नहीं ।।

लड़खड़ाए थे कदम मेरे जो मधुशाला में ।
जाम साक़ी ने मुझे तब से पिलाया भी नहीं ।।

बद्दुआ बारहा देता है वही क्यूँ मुझको ।
जिसको ताउम्र यहाँ मैंने सताया भी नहीं ।।

क्या बताएगा तुझे दर्दे जुदाई अब वो ।
हिज्र में फूट के जो शख्स था रोया भी नहीं ।।

फ़लसफ़ा जिंदगी का मेरे है इतना यारो ।
कुछ गंवाया भी नहीं और कमाया भी नहीं ।।

          नवीन मणि त्रिपाठी

रात भर यादें सताएं तो ग़ज़ल होती है

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दिल को छू जाएं अदाएं तो  ग़ज़ल होती  है ।
रात  भर  यादें  सताएं  तो  ग़ज़ल होती  है ।।

हुस्न का जलवा दिखाएं तो ग़ज़ल होती है ।
रुख़  से  पर्दा  वो उठाएं तो ग़ज़ल होती है ।।

दर्दो गम दे  के  न  अशआर  मिलेंगे  साहब ।
रोते  इंसा  को  हंसाएं  तो  ग़ज़ल होती है ।।

रब की मस्जिद में इबादत तो मैं भी कर लूंगा ।
आप मंदिर में जो आएं तो ग़ज़ल  होती  है ।।

इक मुलाकात का करके वो इशारा हम से ।
और नज़रों  को  चुराएं  तो  ग़ज़ल होती  है ।।

बेख़ुदी  इतनी  गुज़र  जाए हदों  से  उनकी ।
वो  दरीचों  से  बुलाएं  तो  ग़ज़ल  होती है ।।

राजे उल्फ़त पे लगाकर कोई पर्दा  वो जब ।
बारहा  इश्क़  छुपाएं  तो  ग़ज़ल  होती  है ।।

दर्द ज़ाहिर  न  हो  देखे न ज़माना हम को ।
अश्क़ आँखों में सुखाएं तो ग़ज़ल होती है ।।

किसी मुफ़्लिश की गरीबी का सितम सुनकर हम ।
सुब्ह तक  चैन गंवाएं  तो  ग़ज़ल  होती  है ।।

तेरी  रानाइयों    का   यार  तसव्वुर   करके ।
लफ्ज़ होटों पे आ जाएं तो ग़ज़ल होती है ।।

बह्र व रुक्न  रदीफ़ेन या  क्वाफ़ी ही नहीं ।
आप मफ़हूम निभाएं तो ग़ज़ल  होती  है ।।

         - नवीन मणि त्रिपाठी

जब किताबों से कोई फूल तुम्हारा निकला

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ये तो चाहत का ही पुरज़ोर इशारा निकला ।
जब किताबों से कोई फूल तुम्हारा निकला ।।

डूब जाती मेरी कश्ती भी भँवर में बेशक़ ।
यार तूफ़ां में तू दरिया का किनारा निकला ।।

रात भर जलते रहे ख़ाब मेरे आँगन में ।
जब शबे हिज़्र में उल्फ़त से शरारा निकला ।।

दर्द सागर का तसव्वुर किया है तब उसने ।।
जब समंदर की तरह अश्क़ भी खारा निकला ।।

इश्क़ नाकाम हुआ तब कहा है दुनिया ने ।
आदमी ठीक था पर वक्त का मारा निकला ।।

ईद का जश्न मनाया है रक़ीबों ने क्यों ।
जब मेरे छत पे कोई चाँद दुबारा निकला ।।

इस तरह लोग लगा रक्खे तिलस्मी चहरे ।
गैर समझा था जिसे वो ही सहारा निकला ।।

मुद्दतों बाद निगाहें किसी पे जब ठहरीं ।
अज़नबी शख़्स तेरी आँख का तारा निकला ।।

हुज़ूर मुफ़्त में वो मिहरबान थोड़ी है



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हमारे इल्म  का  वो  क़द्रदान  थोड़ी है ।
हमें  दे  रोटियां  कोई  महान  थोड़ी है ।।

उसे है बेचना हर ईंट इस इमारत की ।
हुज़ूर मुफ़्त में वो मिह्रबान थोड़ी है ।।

विकास सब का हो और साथ भी रहे सबका ।
ये राजनीति है पक्की ज़ुबान थोड़ी है ।।

लुढ़क रहे हैं ख़ज़ाने ये फ़िक्र कौन करे ।
नज़र में उनके अभी तक ढलान थोड़ी है ।।

बदल गया है बहुत कुछ यहां सँभल के चलो ।
पुराना वाला ये हिंदोस्तान थोड़ी है ।।

मशीन वोट की कर देगी फैसला हक़ में ।
तुम्हारे हाथ में सारी कमान थोड़ी है ।।

बहा ले जायेंगी  मौजें तुम्हें समंदर की ।
तुम्हारे वास्ते  ऊँचा मचान थोड़ी है ।।

उड़ान   कैसे  भरेंगे  नए  परिंदे   ये।
अब उनके नाम कोई आसमान थोड़ी है ।।

जो मन में आए वही कीजिये यहाँ साहब ।
अभी चुनाव का आया रुझान थोड़ी है ।।

          - नवीन मणि त्रिपाठी

जिसको हासिल तुम्हारी क़ुरबत है

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मत  कहें  आप  दौरे   गुरबत   है ।
चश्मेतर  हूँ  ये   वक्ते  फ़ुरक़त  है ।।

कुछ तो भेजी खुदा ने  आफ़त है ।
ये  तबस्सुम  है  या  क़यामत  है ।।

उसकी किस्मत को दाद  देता  हूँ ।
जिसको हासिल तुम्हारी कुर्बत है ।

अलविदा  मत  कहें  हुजूर  अभी ।
बज़्म   को  आपकी  ज़रूरत  है ।।

इश्क़  में  क्या  बताऊँ  मैं  तुमको ।
थोड़ी  उल्फ़त है बाकी तुहमत है ।।

कैसे आज़ाद  कह  दूं मैं  खुद को ।
दिल पे अब  तक  तेरी हुक़ूमत है ।।  

फिक्र  मुझको  रक़ीब की तब तक ।
हुस्न  जब तक  तेरा  सलामत है ।।

कुछ  तो  इल्ज़ाम  तुझ पे आएगा ।
ये तो  दुनिया  है इसकी आदत है ।।

तब   मिली  है  शिकस्त  आंखों को ।  
जब  भी  अश्क़ों  ने  की  बगावत  है ।।

ख्वाहिशें  सबकी अपनी  अपनी हैं ।
हाशिये   पर    यहाँ   मुहब्बत   है ।।

शब्दार्थ 
ग़ुरबत - पथिक की विवशता ,प्रवास 
चश्मेतर - भीगी आंखे
फुरकत - वियोग जुदाई 
क़ुरबत - सामीप्य निकटता
तुहमत - आरोप 
उल्फ़त - प्यार 
रक़ीब - दुश्मन

           नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशित

हर अदा ए इश्क़ का दिल तर्जुमा करता रहा

2122 2122 2122 212

कुछ मुहब्बत कुछ शरारत और कुछ धोका रहा ।
हर  अदा ए इश्क़ का दिल तर्जुमा  करता  रहा ।।

याद है अब  तक  ज़माने  को  तेरी  रानाइयाँ ।
मुद्दतों  तक  शह्र   में  चलता तेरा  चर्चा  रहा ।।

पूछिए उस से  भी साहिब इश्क़ की  गहराइयाँ ।
जो किताबों की तरह पढ़ता कोई  चहरा  रहा ।। 

वो मेरी पहचान खारिज़ कर गया है शब के बाद ।
जो मेरे खाबों में  आकर  गुफ्तगू  करता  रहा ।।

साजिशें रहबर की थीं या था मुकद्दर का कसूर ।
ये मुसाफ़िर रहगुज़र  में  बारहा  लुटता  रहा ।।

वो परिंदा  क्या बताएगा  फ़लक  की  दास्ताँ ।
जो कफ़स के दरमियाँ हालात से लड़ता रहा ।।

तब्सिरा तू कर गया जख्मों पे  मेरे किस  तरह ।
जब  तेरे  रुख़सार  पर  कायम  तेरा पर्दा रहा ।।

तीरगी को रोकना मुमकिन कहाँ था दोस्तो ।
स्याह शब के वास्ते  जब शम्स ही ढलता रहा ।।

आपकी तिरछी नजर यूँ कर गयी मुझ पर असर ।
उम्र भर मैं बेख़ुदी में बस ग़ज़ल कहता रहा ।।

       -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

शब्दार्थ 
अदाए इश्क - इश्क़ की अदा
तर्जुमा - अनुवाद ट्रांसलेशन
रानाइयाँ - सुंदरता , शब - रात , गुफ्तगू - बातचीत ,  रहबर - राह बताने वाला गाइड ,  रहगुज़र - रास्ता , बारहा - बार बार ,  फ़लक - आसमान , कफ़स - पिजरा , दरमियाँ - के बीच , तब्सिरा - कमेंट , रुख़सार - चेहरा , तीरगी - अंधेरा , स्याह,  शब - काली रात , बेख़ुदी - खुद का ख्याल न रहना , 
पेंटिंग चित्र - साभार गूगल

सुना है इस वतन को बेटियां अच्छी नहीं लगतीं

ग़ज़ल

हर इक सू से चमन में सिसकियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।
सुना  है  इस वतन को बेटियां अच्छी नहीं लगतीं ।।

न  जाने   कितने  क़ातिल  घूमते  हैं  शह्र  में  तेरे ।
यहाँ कानून की खामोशियाँ अच्छी नहीं  लगतीं ।।

सियासत के पतन का देखिये अंजाम भी  साहब ।
दरिन्दों को मिली जो कुर्सियां अच्छी नहीं लगतीं।।

वो  सौदागर  है   बेचेगा   यहाँ  बुनियाद  की  ईंटें ।
बिकीं जो रेल की सम्पत्तियां अच्छी  नहीं  लगतीं ।।

बिकेगी हर इमारत अब विदेशी बोलियों  पर  क्या ।
तुम्हें  तो  जगमगाती  बस्तियाँ  अच्छी नहीं लगतीं ।।

ये नीलामी ये पी एस यू का नाटक बन्द कर  दीजै ।
हमारे  मुल्क को  अब चोरियां अच्छी नहीं लगतीं ।।

बढ़ेगी  फीस तो बेदख्ल  हम तालीम  से  होंगे ।
अमीरों के हितों  की नीतियां अच्छी  नहीं  लगतीं ।।

खुशामद  मीडिया  बेशक करेगी आपका  लेकिन ।
वतन को आपकी चालाकियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।

बुलन्दी   छू   रहीं  अब  देश  की   बेरोज़गारी   ये ।
मेरी थाली की तुझको रोटियां अच्छी नहीं  लगतीं ।।

पढाओ मत पहाड़ा अब तुम्हें हम पढ़ चुके  इतना ।
के जुमले और तुम्हारी शेखियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।

ज़रा नज़दीकियों का फ़लसफ़ा पढ़ लीजिये साहब ।
हमारे   दरमियाँ   हों  दूरियाँ  अच्छी  नहीं  लगतीं ।।

       -- नवीन मणि त्रिपाठी

सियासत आजमाई जा रही है

ग़ज़ल

मुहिम  ऐसी   चलाई  जा  रही  है ।।
सियासत   आजमाई  जा  रही  है ।।

हमारी भूख की है फिक्र किसको ।
नई   साजिश  रचाई  जा  रही   है ।

खरीदारों  की  हस्ती देखिये अब ।
बड़ी   बोली  लगाई  जा  रही  है ।।

सुना   है   कारनामे   पर  तुम्हारे ।
बहुत  उँगली  उठाई  जा  रही है ।।

वहाँ  कानून   जिंदा  क्या  रहेगा ।
जहाँ  धज्जी  उड़ाई  जा  रही है ।।

कहीं बे आबरू होकर  न गिरना ।
सुना  कुर्सी  हटाई  जा  रही  है ।।

ठगी सी  सोचती  मासूम  जनता ।
ये क्या सूरत दिखाई जा रही है ।।

अहं से थे बहुत  बीमार  तुम  भी ।
तुम्हारी  की  दवाई  जा  रही है ।।

झुकी रहनी थी जिसको शर्म से अब ।
नज़र वो फिर मिलाई जा रही है ।।

     --- नवीन मणि त्रिपाठी

झुकी बाद मुद्दत के उनकी नज़र है

***इस्लाह ए सुख़न से हासिल ग़ज़ल***

122 122 122 122

न  जाने  किधर  जा  रही  ये डगर है ।
सुना है  मुहब्बत का  लम्बा सफ़र है ।।

तेरी  चाहतों  का  हुआ  ये  असर  है ।
झुकी  बाद  मुद्दत  के  उनकी नज़र है ।।

नहीं  यूँ  ही  दीवाने  आए  हरम तक ।
इशारा   तेरा  भी  हुआ  मुख़्तसर  है ।।

यहाँ राज़े दिल मत सुनाओ किसी को ।
ज़माना  कहाँ  रह  गया  मोतबर  है ।।

है साहिल से मिलने का उसका इरादा ।
उठी  जो  समंदर  में  ऊंची  लहर  है ।।

है मक़तल सा मंजर हटी जब से चिलमन ।
बड़ी    क़ातिलाना  तुम्हारी  नज़र  है ।।

बतातीं  हैं बिस्तर की ये सिलवटें अब ।
तुम्हें  नींद आती  नहीं  रात  भर  है ।।

वहीं   बैठती   है  वो   रंगीन   तितली ।
गुलों  के   लबों   पर  तबस्सुम जिधर है ।।

सुना हुस्न  वालों  के ख़ामोश लब हैं ।
लिपिस्टिक की रंगत का जाने का डर है ।।

ये कोशिश  है मेरी उसे  भूल जाऊं ।
मगर  याद आता  वो शामो सहर है ।।

तमन्ना  थी  जिसको  बसा  लूं मैं दिल मे ।
मेरी   आरजू   से   वही   बेख़बर  है ।।

मुलाक़ात   जाइज़  कहेगी  ये  दुनिया ।
तेरे  ही  गली   से   मेरी    रहगुज़र  है ।।

मुख़्तसर - छोटा 
मोतबर - विश्वसनीय
मक़तल - कत्ल का स्थान
तबस्सुम - मुस्कुराहट
सहर - सुबह
रहगुज़र - रास्ता
         - नवीन मणि त्रिपाठी

शरीफ़ लोग मुखौटे बदल के देखते हैं

1212 1122 1212 22/112
न  पूछिये  कि  वो  कितना  सँभल के देखते हैं ।
शरीफ़   लोग  मुखौटे   बदल   के   देखते   हैं ।।

अज़ीब  तिश्नगी   है  अब   खुदा  ही  खैर  करे ।
जुबाँ से आप भी अक्सर फिसल के देखते हैं ।।

पहुँच  रही है मुहब्बत   की  दास्ताँ  उन   तक ।
हर  एक  शेर  जो  मेरी  ग़ज़ल  के  देखते  हैं ।।

ज़नाब  कुछ  तो  शरारत   नज़र  ये  करती   है ।
यूँ  बेसबब   ही    नहीं वो  मचल के  देखते  हैं ।।

गुलों  का  रंग  इन्हें  किस   तरह   मयस्सर  हो ।
ये  बागवान  तो  कलियां  मसल  के  देखते  हैं ।।

ज़मीर  बेच   के  जिंदा   मिले   हैं  लोग  बहुत  ।
तुम्हारे  शह्र  में  जब  भी  टहल  के  देखते  है ।।

न जाने  क्या  हुआ  जो   बेरुख़ी  सलामत   है ।
हम उनके दिल के जरा पास चल के देखते हैं ।।

ये  इश्क़  क्या  है  बता  देंगे  तुझको  परवाने ।
जो शम्मा के लिए हर शाम जल के देखते हैं ।।

हुआ  है  हक़  पे  बहुत  जोर  का  ये हंगामा ।
गरीब  क्यूँ  यहाँ  सपने महल  के  देखते  हैं ।।

बचाएं दिल को सियासत की साज़िशों से अब ।
ये   लीडरान  मुहब्बत   कुचल  के  देखते हैं ।।

वही   गए   हैं   बुलंदी   तलक   यहां    यारो ।
जो अपने वक्त  के सांचे में ढल के देखते  हैं ।।

            -नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशित

लगा रहे हैं मियाँ आग आप पानी मे

1212 1122 1212 22

लुटे  न   देश   कहीं  आज  लंतरानी   में ।
लगा  रहे  हैं  मियां  आग  आप पानी  में।।

खबर है सबको किधर जा रही है ये कश्ती ।
जनाब जीते रहें आप शादमानी में ।।

अजीब शोर है खामोशियों के बीच यहाँ ।
बहें हैं ख़्वाब भी दरिया के इस रवानी में ।।

सवाल जब से तरक़्क़ी पे उठ रहा यारो ।।
चुरा रहे हैं नज़र लोग राजधानी में ।।

लिखेगा जब भी कोई क़त्ल की सियासत को ।
तुम्हारा जिक्र तो आएगा हर कहानी में ।।

किसे है फिक्र यहां उनकी बदनसीबी की ।
कटोरे ले के जो निकले हैं इस जवानी में ।।

ऐ नौजवां तू जरा  मांग  हक़ की रोटी को ।
बहुत है जादू सुना उनकी  मिह्रबानी में ।।

यकीन हम भी न करते अगर खबर होती ।
मिलेंगे ज़ख्म बहुत प्यार की निशानी में ।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी

कोई मुखिया निरुत्तर है अभी तक

1222 1222 122

सवालों  का तो मंजर है अभी   तक l
कोई  मुखिया निरुत्तर है अभी तक ।।

उसे  इल्जाम का  डर  है अभी तक ।
कहीं सच्चा सुख़नवर है अभी तक ।।

ग़रीबी   और   बढ़ती   जा   रही  है ।
यहाँ  आबाद अंतर  है अभी  तक ।।

वहाँ  भी   देखिए  साहब  दिवाली ।
जहां  इंसान  बेघर  है अभी  तक ।।

वतन  को छोड़, ढूढो काम तुम भी ।
यहां का  हाल बदतर है अभी तक ।।

ऐ बादल तू बरस आकर किसी दिन ।
जमीं यह भी तो बंजर है अभी तक ।।

न जाने  कितनी  नदियां  हैं समाईं ।
मगर प्यासा समंदर है अभी  तक ।।

कटेंगे वो शज़र इस मुल्क में फिर ।
सुकूँ जिनसे  मयस्सर है अभी तक ।।

लुटेगा देश  कुछ दिन और शायद ।
तेरे हाथों  में खंजर  है अभी तक ।।

सिसकती भूख से , वो  बस्तियां हैं ।
वतन  का ये  मुकद्दर है अभी तक ।।

नया  कुछ  भी  नहीं  पाया  हूँ यारो ।
यहां भगवा में खद्दर है अभी तक ।।

     -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

हमें अहसास मक़तल का फना होने से पहले था

-ग़ज़ल-

सजाए मौत का ख़तरा ख़ता होने से पहले था ।
हमें अहसास मक़तल का फना होने से पहले था ।।

बदलती है ये फ़ितरत एक दिन इंसान की ख्वाहिश ।
तेरा अंदाज़े उल्फ़त तो जफ़ा होने से पहले था ।। 

बरसतीं रह गईं आंखें भी उसकी हिज़्र में देखो ।
बहुत मग़रूर जो तुझ पर फ़िदा होने से पहले था ।।

कफ़स में कैद करके तू बना बैठा यहाँ मुजरिम  ।
जहां आजाद मेरा दिल तेरा होने से पहले था ।।

 तुम्हारे हुस्न से जब जाम छलकेगा तस्व्वुर कर ।
कोई बेहोश महफ़िल में नशा होने से पहले था ।।

हुए कुर्बान जिसकी इल्तिजा पर हम यहाँ यारो ।
वही दुश्मन हमारा रहनुमा होने से पहले था ।।

उजाला बन के बिखरा है रक़ीबों के दिलों में अब ।
मेरा महबूब जो इक दिन जुदा होने से पहले था ।।

न हम तूफ़ाँ से टकराते अगर वो मान जाते तो ।
बहुत छोटा मेरा मुद्दा बड़ा होने से पहले था ।।

तेरी तक़रीर सुनकर याद आया है फ़साना फिर ।
बुरा इंसान तू भी मुस्तफ़ा होने से पहले था ।।

मुकद्दर ही बदल डाला जो जलती आग में तपकर ।
सुना बदरंग वो सोना खरा होने से पहले था ।।

तेरी रहमत से मुमकिन था इलाजे इश्क़ ऐ ज़ाना ।
बड़ा मायूस ये आशिक दवा होने से पहले था ।।

        --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

दिल चुराने का जब हुनर आया

,2122 1212 22
कौन   कहता  है   बेख़बर   आया ।
जो  परिंदों  के  पर  कतर आया ।।

हिज्र  की  दास्तान   को   सुनकर ।
दर्दे  दिल आज  फिर उभर आया ।।

ये   निगाहें  जहां  तलक   पहुंचीं ।
उसका  जलवा हमें  नजर  आया ।।

लोग   कहने   लगे  जवां  उसको ।
दिल चुराने का जब हुनर आया ।।

शह्र    में   हो   रहा   यही   चर्चा ।
हुस्न   कोई  शबाब   पर   आया ।।

उस  दरीचे   पे  है  नजर   ठहरी    ।
जब भी रस्ते में  तेरा  घर  आया ।।

इश्क़ उसका करो न अब खारिज़ ।
तुम से मिलने जो हर पहर आया ।।

चाहतों   पर   हुआ  यकीन  हमें ।
बाम  पर  चाँद  जब उतर आया ।।

जिंदगी   की   किताब  में  उसकी।
जिक्र  मेरा  भी  मुख़्तसर  आया ।।

इक तबस्सुम ने कर दिया घायल ।
याद  मंजर  वो  उम्र  भर  आया ।।

आप   कैसा    गुनाह    कर   बैठे ।
सारा  इल्ज़ाम   मेरे   सर   आया ।।

      -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

शराब जब छलक पड़ी तो मयकशी कुबूल है

1212 1212 1212 1212

शराब जब छलक पड़ी तो मयकशी कुबूल है ।
ऐ रिन्द मैकदे को तेरी तिश्नगी कुबूल है ।

नजर झुकी झुकी सी है हया की है ये इंतिहा ।
लबों पे जुम्बिशें लिए ये बेख़ुदी कुबूल है ।।

गुनाह आंख कर न दे हटा न इस तरह नकाब ।
जवां है धड़कने मेरी ये आशिकी कबूल है ।।

यूँ रात भर निहार के भी फासले  घटे  नहीं ।
ऐ चाँद तेरी बज़्म की ये बेबसी कुबूल है ।।

न रूठ कर यूँ जाइए मेरी यही है इल्तिजा ।
मुझे हुजूऱ अपकी तो बेरुख़ी कुबूल है ।।

ये सुन के मुस्कुरा रहा चराग़ स्याह रात में ।
शलभ ने जब कहा यही ये रोशनी कुबूल है ।।

उसी को ज़ख्म हैं मिले उसी को हर सज़ा मिली ।
जिसे तेरे लिए जहाँ की दुश्मनी कबूल है ।।

बिना रदीफ़ बह्र के लिखी थी मैंने जो कभी ।
मेरे विसाले यार को वो शायरी कुबूल है ।।

ऐ रब जरा बता मुझे कदम कदम की मुश्किलें ।
तेरी ही ज़ुस्तजू  में तेरी रहबरी कुबूल है ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

उम्र गुजरी शराब खाने में

2122 1212 22

बेख़ुदी   तुझको   आजमाने   में ।
उम्र   गुजरी   शराब   खाने   में ।।

हो  मुबारक़  तुझे  ये   जुर्माना ।
आदमी  लुट  गया  चुकाने  में ।।

इस तरह मत गिरो नज़र से तुम ।
इक  ज़माना   लगे  उठाने   में ।।

अब करप्शन पे वार मत करिए ।
हस्तियां मिट चुकीं  मिटाने  में ।।

क्यों  बचाने की कोशिशें पैहम ।
जब नज़र लग चुकी ख़ज़ाने में ।।

शाम  को  रोटियां  वही  देगा ।
जो  समाया है  दाने  दाने   में ।।

ये तो  महंगाई  की  तिज़ारत है ।
बिक रहा हूँ मैं  घर  चलाने में ।।

नौजवानों  से छीन  कर  रोजी ।
आप  तो  लग  गए  कमाने में ।।

नफरतों का अफीम बाटो तुम ।
मुल्क बदलेगा  कत्लखाने  में ।। 

ढह  न  जाये  कहीं   हुकूमत   ये ।
जिसको  सदियां  लगीं  बनाने में ।।

     --डॉ  नवीन मणि त्रिपाठी

आसुओं में ख्वाब बह जाते हैं सब

2122 2122 212

जुल्म  बेबस  पर  यहाँ  ढाते  हैं सब ।
आँसुओं  में  ख़ाब  बह  जाते हैं सब ।।

क्या  ज़माने   लद  गए   कानून   के ।
अब सियासत दां से घबराते हैं सब ।।

अब   नहीं   रहना   है  तेरे  शह्र   में ।
घर मेरा अक्सर  जला  जाते  हैं सब ।।

मत   करो  इंसाफ  की  उम्मीद  तुम ।
रिश्वतें   मिल  बॉट  कर  खाते  हैं सब ।।

क्या   करेगी   ये  अदालत  फैसला ।
जब  गवाही  से  मुकर  जाते हैं सब ।।

है  अजब  आलम  हमारे  मुल्क  का ।
गैर  की दौलत  उठा  लाते  हैं सब ।।

जब  नहीं  है  वस्ता  सच  से  कोई ।
क्यों कसम गीता लिए खाते हैं सब ।।

जात  मजहब  में  बटे  हैं लोग  फिर ।
एकता  के  गीत  क्यूँ   गाते  हैं सब ।।

लुट न  जाए  देश  साज़िश  के तहत ।
नफ़रतें   हर   सिम्त  फैलाते  हैं  सब ।।

उनको   रहने   दे  अभी   पर्दानशीं ।
हुस्न   वाले  यार   शर्माते   हैं  सब।।

देख  तू  हालात  अब  इस  दौर के ।।
जिस्म ख़ातिर इश्क़ फरमाते हैं सब ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

होती है बेनक़ाब सियासत कभी कभी

221  2121 1221 212

लेती है इम्तिहान ये उल्फ़त कभी कभी ।
लगती है राहे इश्क़ में तुहमत कभी कभी ।।

आती  है उसके दर से हिदायत कभी कभी ।
होती खुदा की हम पे है रहमत कभी कभी ।।

चहरे को देखना है तो नजरें बनाये रख ।
होती है बेनक़ाब सियासत कभी कभी ।।

यूँ  ही  नहीं  हुआ है वो बेशर्म दोस्तों ।
बिकती है अच्छे दाम पे गैरत कभी कभी ।।

मुझ पर सितम से पहले ऐ क़ातिल तू सोच ले ।
देती सजा ए मौत है कुदरत कभी कभी ।।

इज़हारे इश्क़ मैं ही किये जा रहा हुजूऱ।
कुछ तो उठाएं आप भी ज़हमत कभी कभी ।।

आसां नहीं है मैक़दे को भूलना सनम ।
देती सकून रिन्द की सुहबत कभी कभी ।।

उसने बुला लिया है तो मर्जी खुदा की है ।
किस्मत से मिलती यार की कुर्बत कभी कभी ।।

जुगनू की तर्ह जश्न मनाना मेरे हबीब ।
जब  जिंदगी में देखना जुल्मत कभी कभी ।।

कैसे ग़ज़ल कहूं मैं यहाँ मुश्किलात में ।
मिलती है आजकल मुझे मुहलत कभी कभी।।

कब तक कहेंगे आप मियां शाम को सहर ।
सच के लिए भी कीजिये हिम्मत कभी कभी ।।

        -- नवीन मणि त्रिपाठी 
        मौलिक अप्रकाशित

अब तो क़ातिल यहाँ बस्तियां हो गईं

212 212 212 212

जब से ख़ामोश वो सिसकियां हो गईं ।
दूरियां  प्यार  के  दरमियाँ  हो  गईं ।।

कत्ल कर दे न ये भीड़ ही आपका ।
अब तो क़ातिल यहाँ बस्तियाँ हो गईं ।।

आप   ग़मगीन  आये  नज़र  बारहा ।
आपके  घर  में  जब  बेटियां  हो गईं ।।

कैसी तक़दीर है इस वतन की सनम । 
आलिमों  से खफ़ा  रोटियां  हो गईं ।।

फूल को चूसकर  उड़  गईं  शाख  से ।
कितनी  चालाक ये तितलियां हो गईं ।।

दर्दो  गम पर मेरे  मीडिया  चुप  रही ।
उनकी अय्याशियां  सुर्खियां  हो  गईं ।।

हर जुबां हर कलम पर हैं ताले पड़े ।
कितनी मग़रूर ये हस्तियां हो गईं
।।

तब  से लूटा गया  देश  को  शान  से ।
जब से महंगी  यहाँ  कुर्सियां  हो गयीं ।।

शब्दार्थ
आलिम - पढा लिखा बुद्धिमान
बारहा -बार बार

            --नवीन मणि त्रिपाठी
              मौलिक अप्रकाशित

मत कहो हो गया होशियार आदमी

212  212  212  212 

खो रहा दिन ब दिन ऐतबार आदमी ।।
मत कहो हो गया होशियार आदमी ।। 

अब  भरोसा न कीजै किसी पर यहाँ।
हो  रहा आदमी  का शिकार आदमी।।

दिन  गुजरता नहीं रात  ढलती  नहीं ।
कह गया मुझसे ये बेक़रार आदमी ।।

मांगिये न मदद अब किसी से यहां ।
एक दिन सर पे होगा सवार आदमी ।।

अब मुहब्बत को यारो  छुपाकर रखो ।
मन में पैदा न कर दे  दरार  आदमी ।।

साजिशें रच रहा दिल जलाने की वो।
दिल का जब से हुआ राजदार आदमी ।।

महफिलों में लगीं बोलियां हुस्न पर ।
जिस्म  का  जब  हुआ इश्तिहार आदमी ।

उसको हिन्दू मुसलमां में बांटा गया ।
मुल्क पर जब किया जाँ निसार आदमी ।।

ऐ सियासत  बता  दे जरा सच हमें ।
हो गया देश से  क्यूँ फ़रार  आदमी ।।

       -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

221 1221 1221 122

दरिया में उतर आए मियां जुल्म के डर से ।
पानी न गुज़र जाए कहीं आपके सर से ।।

लगता है मेरे गांव में जुमलों का असर है ।।
भटके मिले कुछ लोग शराफ़त की डगर से ।।

कातिल हुई है भीड़ यहां मुद्दतों के बाद ।
निकलो न अकेले ही कहीं रात में घर से ।।

खामोशियों के साथ सहा दर्दे सितम जो ।
गिर जाएगा वो शख्स ज़माने की नज़र से ।।

ता उम्र  मुसीबत से लड़ा आदमी  है जो ।
तौला उसे ही जायेगा दुनिया में गुहर से ।।

हर शय का जहाँ आखिरी अंजाम क़ज़ा है ।
जीना है अगर  जी तू वहाँ अपने हुनर से ।।

इन घोसलों पे किसकी नजर लग चुकी है अब ।
पूछा है परिंदों ने यही राज़ शजर से ।।

रोये वही हैं लोग मेरे हाल पे साकी ।
मतलब नहीं था जिनको मेरी खोज खबर से ।।

जब से गयी है लौट के आई नहीं है वो ।
क्या कह दिया साहिल ने मुहब्बत में लहर से ।।

          - नवीन मणि त्रिपाठी

हुस्न तेरी बता रज़ा क्या है

2122 1212 22
पूछिये   मत   कि  हादसा  क्या   है ।
पूछिये   दिल   कोई  बचा   क्या  है।।

दरमियाँ  इश्क़  मसअला   क्या  है।
तेरी उल्फ़त का फ़लसफ़ा क्या है ।।

सारी   बस्ती    तबाह   है   तुझसे ।
हुस्न   तेरी   बता   रज़ा   क्या  है ।।

आसरा  तोड़   शान   से  लेकिन ।
तू  बता दे  कि  फायदा  क्या  है ।।

रिन्द   के  होश  उड़   गए   कैसे ।
रुख से चिलमन सनम हटा क्या है ।।

बारहा    पूछिये   न   दर्दो   गम ।
हाले दिल आपसे छुपा  क्या  है ।।

फूँक  कर  छाछ  पी  रहा  है  वो ।
आदमी दूध  का  जला  क्या  है ।।

चाँद दिखता नहीं  है  कुछ दिन से ।
घर पे  पहरा  कोई  लगा  क्या  है ।।

अश्क़  उतरे   हैं   तेरी  आंखों   में  ।
ख़त में उसने तुझे  लिखा  क्या है ।।

        नवीन मणि त्रिपाठी
       मौलिक अप्रकाशित

बेसबब इज्जत उछाली जाएगी

2122 2122 212 

दुश्मनी   ऐसे    निकाली    जाएगी ।
बेसबब  इज्ज़त  उछाली  जाएगी ।।

नौकरी मत  ढूढ़  तू  इस  मुल्क में ।
अब  तेरे  हिस्से की थाली जाएगी ।।

लग  रहा  है  अब  रकीबों के लिए ।
आशिकी  साँचे  में  ढाली जाएगी ।।

चाहतें   अब   क्या  सताएंगी  उसे ।
जब कोई ख़्वाहिश न पाली जाएगी ।।

इश्क़ गर अंजाम  तक  पहुंचा नहीं ।
फिर कही उल्फ़त ख़याली जाएगी।।

ऐ खुदा इक दिन तेरे दर पर तो ये ।
जिंदगी  बनकर  सवाली  जाएगी।।

दोस्तों  पर   कुछ  भरोसा  है  मुझे ।
कैसे  कह  दूं  बात खाली जाएगी ।।

मय की क़िस्मत की ख़बर साकी को है ।
कौन  से  प्याले  में  डाली जाएगी ।।

        - नवीन मणि त्रिपाठी

बेशक़ बहार होगी मेरे हमनवा के साथ

221  2121  1221 212 
मुद्दत  के बाद आई है ख़ुश्बू सबा के साथ ।
बेशक़ बहार होगी मेरे हमनवा के साथ ।।

शायद मेरे सनम का वो इज़हारे इश्क था ।
यूँ ही नहीं झुकी थीं वो पलकें हया के साथ ।। 

वो शख्स कह रहा है मुझे बेवफ़ा सुनो ।
जो ख़ुद निभा सका न मुहब्बत वफ़ा के साथ ।।

माँगी मदद जरा सी तो लहज़े बदल गए ।
रिश्ता बता रहे थे जो अपना ख़ुदा के साथ ।।

आँखों में साफ़  साफ़  सुनामी की है झलक।
कुछ तो ग़लत हुआ है तुम्हारी फ़ज़ा के साथ ।।

कुदरत सिखाए जो भी हुनर सीखिए हुजूऱ ।
कटती नहीं है  जिंदगी केवल दुआ के साथ ।।

आएगी एक दिन वो बुलाने के वास्ते ।
रिश्ता है जिंदगी का यकीनन क़ज़ा के साथ ।।

अम्नो सुकूँ के साथ यहाँ जी रहे हैं लोग ।
निकलो  न घर से रोज़ यूँ क़ातिल अदा के साथ ।।

चेहरा बता रहा है तुम्हारी खुशी का राज़ ।
गुज़रेगा आज वक्त कहीँ दिलरुबा के साथ ।।

            -नवीन मणि त्रिपाठी

जब दिखायेगा तुझे चेहरे का मंजर आईना

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अब न चहरे की शिकन  कर दे उजागर आइना ।
देखता  रहता है कोई  छुप  छुपा कर आइना ।।

गिर  गया  ईमान उसका  खो गये सारे  उसूल ।
क्या दिखायेगा  उसे  अब और कमतर आइना ।।

सच  बताने  पर  सजाए  मौत की ख़ातिर यहां ।
पत्थरो  से   तोड़ते   हैं   लोग अक्सर  आइना ।

आसमां  छूने  लगेंगी ये अना और शोखियां ।
जब  दिखाएगा  तुझे  चेहरे  का मंजर आइना ।।

अक्स  तेरा  भी  सलामत  क्या रहेगा सोच ले ।
गर  यहां  तोड़ा कभी  बनके सितमगर  आइना ।।

फूल से आरिज पे है तेरे  कोई गहरा  निशान ।
अब दिखायेगा ज़माना मुस्कुरा कर आइना ।।

खुद के बारे में बहुत अनजान होकर जी रहा ।
आजकल रखता कहाँ इंसान बेहतर आइना ।।

तोड़ देंगे आप भी यह हुस्न ढल जाने के बाद ।
एक दिन बेशक़ चुभेगा बन के निश्तर आइना ।।

कुछ तो उसकी बेक़रारी का तसव्वुर कीजिये ।
जो सँवरने के लिए देखे है शब भर आइना ।।

हैं लबों पर जुम्बिशें क्यूँ इश्क़ के इज़हार पर ।।

जब  बताता  है तुझे  तेरा  मुक़द्दर आइना ।।

      नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

एक खास और मुश्किल बह्र 

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तेरे  हुस्न  पर  अब  शबाब तय है ।
खिलेगा  चमन  में  गुलाब तय  है ।।

अगर  हो  गयी  है तुझे मुहब्बत ।
तो फिर मान ले  इज्तिराब तय है ।।

अभी तो  हुई  है फ़क़त बगावत ।
नगर  में  तेरे   इंकलाब   तय  है ।।

बचा लीजिये आप कुछ तो पानी ।
मयस्सर न होगा ये आब तय है ।।

किया मुद्दतों तक वो  जी  हुजूरी ।
सुना है कि जिसका खिताब तय है ।।

अगर  आ  गए  मैक़दे  में  तुम भी ।
तो  महँगाई में  भी  शराब तय है ।।

करे कौन उल्फ़त का हौसला अब ।
जो किस्मत हमारी खराब तय  है ।।

अगर माँग बैठा जो दिल मैं उनसे ।
तो  मेरे  सनम  का  जवाब तय है ।।

करेगा ख़ुदा से तू क्या तिज़ारत ।
सितम का तेरे जब हिसाब तय है ।।

मिलेगी न जन्नत तुम्हे कभी भी।।
तुम्हारे तो हक़ में अज़ाब तय है ।।

नहीं मिल सकेगी नज़र ये तुमसे ।
जो रुख पर तुम्हारे नकाब तय है ।।

        नवीन मणि त्रिपाठी

शब्दार्थ 
शबाब युवा अवस्था
आब  - जल 
इज्तिराब - बेचैनी 
अज़ाब  पाप का फ़ल 
ख़िताब - मेडल सम्मान चिन्ह

कुछ तो जीने का सहारा चाहिए

2122 2122 212

हुस्न   का  बेहतर   नज़ारा   चाहिए ।
कुछ   तो  जीने  का  सहारा  चाहिए ।।

हो मुहब्बत  का  यहां  पर श्री गणेश ।
आप  का  बस  इक  इशारा चाहिए ।।

हैं  टिके रिश्ते सभी दौलत पे जब ।
आपको  भी  क्या  गुजारा  चाहिए ।।

है  किसी  तूफ़ान  की  आहट  यहां ।
कश्तियों  को अब  किनारा चाहिए ।।

चाँद  कायम  रह  सके  जलवा  तेरा  ।
आसमा  में   हर   सितारा   चाहिए ।।

फर्ज  उनका  है तुम्हें  वो  काम  दें ।
वोट जिनको  भी  तुम्हारा  चाहिए ।।

अब न  लॉलीपॉप  की  चर्चा  करें ।
सिर्फ  हमको  हक़  हमारा चाहिए ।।

कब तलक लुटता रहे इंसान यह ।
अब  तरक्की  वाली धारा चाहिए ।।

जात  मजहब ।से  जरा ऊपर उठो ।
हर  जुबाँ  पर ये ही  नारा चाहिए ।।

अम्न  को घर  में जला  देगा कोई ।
नफरतों  का  इक  शरारा  चाहिए ।।

शब्दार्थ - शरारा - चिंगारी 
      - नवीन मणि त्रिपाठी

मैं तो सियाह शब में सहर ढूढता रहा

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ता-उम्र रोशनी का सफ़र ढूढ़ता रहा ।
मैं तो सियाह शब में सहर ढूढ़ता रहा ।।

मुझको मेरा मुकाम मयस्सर हुआ कहाँ ।।
घर अपना तेरे दिल में उतर ढूढ़ता रहा ।।

रुसवाइयों के दौर से गुजरा हूँ इस तरह ।
बस एक इश्क़ वाली नज़र ढूढ़ता रहा ।।

तुमको अना के दौर में इतनी खबर नहीं ।
कोई तुम्हारे दिल की डगर ढूढ़ता रहा ।।

इन साहिलों को छू के गयी थी जो एक दिन ।
सागर की मैं वो उठती लहर ढूढ़ता रहा ।।

लूटा है कुर्सियों ने तेरे देश को मगर ।
अखबार में छपी ये  ख़बर ढूढ़ता रहा ।।

अक्सर उसे मिली हैं  ये नाकामियां कि जो ।
आसान रास्तों का सफ़र ढूँढता रहा ।।

शायद नहीं था इल्म जो तुमको समझ सकूँ ।
नादां था राख में जो शरर ढूढ़ता रहा ।।

सारा चमन लगा है बियाबां मुझे हुजूऱ ।
सहरा में मुद्दतों से बसर ढूढ़ता रहा ।।

       नवीन मणि त्रिपाठी