तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

भगवान परशुराम जयंती पर

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बज्र  बन  कर  के  दधीची  को जिया करते हैं ।

हवा  के रुख को भी हम  मोड़ लिया करते हैं । 

बन के कौटिल्य  बचाते है  देश को अक्सर ।।

धर्म   टूटे   तो   परशुराम   बना    करते   है  ।।


आज भी ताजो  तखत  पर वो बशर रखता है ।

अभी  भी  मुल्क  चलाने  का  हुनर  रखता है ।।

उससे टकराने की हिम्मत न कीजिये साहब ।

वो  बरहमन  है  जमाने  मे  असर  रखता है ।


देश  आगे  ही  बढ़े  फिक्र  किया   करते  हैं ।

ये  ज़माने  का  ज़हर  रोज  पिया  करते  हैं ।

ये तो ब्राह्मण  है अजब इनकी भी फितरत सीखो ।

ये  तो दुश्मन  को भी  आशीष  दिया  करते हैं । 


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कुछ  ऐसी हस्ती है मेरी जिसे भुला न सके 

मिटा  रहे  थे जो सदियों से वो मिटा न सके ।।

बना  है  आग  में  तप  के ये  कीमती सोना ।

जलाने  वाले  तो  हमको  कभी  जला न सके ।।


---***भगवान् परशुराम को समर्पित छंद***---


स्वाभिमान  सर्वथा  प्रतीक   बन  जाता  यहॉं ,

न्याय  पक्ष   के   प्रत्यक्ष   पूर्ण   परिणाम  हैं ।

मातृ शीष काट के प्रमाण जग  को  है  दिया ,

सिद्ग  साधना  के   प्रति   प्रभु   निष्काम  हैं ।।

सर्वनाश पापियों  का वीणा वो उठा के चले ,

फरसे  में   लहू  के  ना   दिखते   विराम  हैं ।

अभिमान  चूर  किया राजवँशियो  का  सदा,

दण्ड  की  प्रचण्डता  में   वीर  परशुराम  हैं।।



नीति के  नियंता  हैं अत्याचारियो  की  मृत्यु ,

निर्बल   मनुज   के   ढाल    बन   जाते   हैं ।

भृगु  के  प्रपौत्र  जमदग्नि   के  लाल   आज ,

न्याय  हेतु   क्रुद्ध  विकराल   बन  जाते  हैं ।।

दुष्ट व्  लुटेरों  पे  प्रत्यंचा  खीचकर खींच कर ।

पापियों  के  मन  का  मलाल  बन  जाते  हैं ।

राज  तन्त्र  चोर हो,  निरकुंश हों  नीतियां   तो ,

प्रकट  हो  परशुराम   काल   बन   जाते  हैं ।।




शिव  के हैं  शिष्य पर  स्वयं शिव  अंश  भी  हैं ,

विष्णू   के   षष्ठ   अवतार    में    महान   हैं ।

धर्म     संस्थापना    के    हेतु      है    समर्पित ,

परशुराम    संहार    के    ही    भगवान   हैं ।।

नीचता के  वंशजों को  गर्भ  में  मिटाने  वाले ,

असहाय  प्राणियो   के  मुख्य  अभिमान  हैं ।

एक  दन्त   नाम  गणपति का  उन्होंने  दिया,

माँ  के  जीवनदान  के  वो  पूर्ण  वरदान  हैं ।।





देता  हूँ सन्देश   आज   परशुराम   वंशजों   को ,

अत्याचारी   शासकों  को  जड़  से  मिटाइये ।

जाति पाँति राजनीति जो भी  आज  करते  हैं ,

उनकी    निकटता    से   दूर    हट   जाइए ।।

हक  रोजगार   का  जो   छीनते   लुटेरे  आज ,

बच्चों  के   ना   हाथ  में   कटोरा  पकडाइये ।

हक  के  लिए ये  बलिदान  मांगता   है   कौम ,

फरसा   उठा    के   परशुराम    बन   जाइए ।। 


                                             -नवीन मणि त्रिपाठी





बुधवार, 30 मार्च 2022

आये हैं जब भी शाम को तेरी गली से हम

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कब  तक  सहेंगे  दर्द  यहाँ  ख़ामुशी  से हम।

करते   रहे   सवाल  यही   ज़िंदगी   से  हम ।।1


यूँ हिज़्र की न चर्चा करो हम से आजकल ।

निकले  हैं जैसे -तैसे  सनम  तीरगी  से  हम ।।2


शंकर  की  तर्ह  या कभी सुकरात की तरह ।

पीने  लगे  हैं ज़ह्र भी अब तो  खुशी  से हम ।।3


पाबंदियों   के   दौर  में  ये  पूछिये  न  आप ।

कितना  करेंगे  सच  को बयाँ  शाइरी  से हम ।।4


साक़ी  ने  जाम  तक  न  दिया  मैक़दे में तब ।

जब   बेक़रार  थे  वहाँ  तिश्ना-लबी  से  हम ।।5


शब भर न आई  नीद हमें  कोशिशों  के बाद ।

आये  हैं  जब  भी शाम  को तेरी गली से हम ।।6


तीरे  नज़र  का   था वो  निशाना  कमाल का ।

होते   रहे   तबाह   तेरी  आशिक़ी   से  हम ।।7


              --नवीन

मंगलवार, 22 मार्च 2022

इश्क़ तो इश्क़ है ये इतना भी लाचार नहीं

 ग़ज़ल


2122 1122 1122 22


कोई उल्फ़त यहाँ  बिक  जाएगी  आसार नहीं ।।

इश्क़ तो  इश्क़ है  ये इतना  भी  लाचार नहीं ।।1


सच   की  उम्मीद  भला  कैसे  रहे  जिंदा वहाँ ।

सच्ची  खबरों  को जहाँ छापता अख़बार नहीं ।।2


गोलियां  उसने  भी  खायी  है  मेरी सरहद  पर ।

जिस  पे  इल्ज़ाम  है  वो  मेरा  वफ़ादार नहीं ।।3


रोज़  रहती  है  तेरे  पास  ये  शब  भर जानां ।

रोक  ले  रूह  को  ऐसी  कोई  दीवार  नहीं ।।4


पास आओ तो मेरे दिल को सुकूं मिल जाये । 

और  तन्हाई   में  रहने  को   मैं  तैयार  नहीं ।।5


वो  तबस्सुम ,वो  अदा, और  झुकी सी नज़रें ।

कैसे  कह  दूं  कि उन्हें मुझसे  हुआ प्यार नहीं ।।6


मत   कहो  मुझसे  अभी  ईद  मुबारक़ यारो ।

एक   मुद्दत  से  हुआ  चाँद  का  दीदार  नहीं ।।7


         -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

गुलों पर शोखियां, बहकी अदाएं

 ग़ज़ल


गुलों पर शोखियां, बहकी अदाएं ।

बदलती  जा  रही  हैं अब हवाएं ।।


 बिखरती है यकीं के बिन जो अक्सर ।

मुहब्बत बारहा मत आजमाएं ।।


मेरी किस्मत ही खुल जाए अगर वो।

 मेरे घर तक कभी तशरीफ़ लाएं ।।


उन्हें फुर्सत नहीं  है एक पल की ।

अकेले हम कहाँ तक दिल जलाएं ।।


वो बिन बरसे  ही गुज़री हैं यहां से 

जो सावन में दिखीं काली घटाएं ।।


जिन्हें हर  ज़ख्म  पर है मुस्कुराना ।

उन्हें हम हाले  दिल भी क्या सुनाएं ।।


न हूरों से करो उम्मीद कोई ।

वफ़ा करती कहाँ हैं अप्सराएँ ।।


          -नवीन

दाग़ मेरी बज़्म से लेकर यहाँ से जो गया है

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दरमियां अपनो के यारो  हौसला यूँ खो गया है ।

चाहतों  के  रास्तों पर कोई  काँटे  बो  गया  है ।।1


 है ज़रूरी कुछ सजा उसके लिए भी हो मुकर्रर ।

जो अभी गंगा में आकर पाप सारा धो गया है ।।2


धुल न पायेगा कभी वो पैरहन का उम्र भर यूँ ।

दाग़ मेरी बज़्म से लेकर यहाँ से जो गया है ।।3

 


मैं बहारों से करूँ उम्मीद क्यूँ इस दौर में जब ।

जल गया सावन मेरा जलता हुआ भादो गया है ।।4


कब तलक इज़हारे उल्फ़त का गला घोटा करें हम।

क्या करें जब इत्तिफ़ाक़न इश्क़ उन से हो गया है ।।5


हर तरफ़ हैं देखिए बदलाव  की  ही आहटें अब ।

क्रांति के इस यज्ञ का भी श्रेय जनता को गया है ।।6


           --नवीन

ये दुनिया तोलती है हर असर को

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पता  है  बात ये शम्स ओ  क़मर  को ।

ये दुनिया  तोलती  है  हर असर  को ।।1


कोई    दीवाना   गुजरेगा    यकीनन ।

सजा   रक्खी   है उसने  रहगुज़र  को ।।2


समुंदर    सोच   कर   हैरान   है   ये ।

है साहिल की ज़रूरत क्यूँ लहर को ।।3


सनम  की  यह  अदा  है  कातिलाना ।

झुका लेते हैं जब अपनी  नज़र  को ।।4


खुशी  के  पल  को  पर्दे  में ही रखना ।

उड़ा    देंगी    हवाएं   मुख़्तसर   को ।।5


वो    दुनिया   छोड़   देना   चाहते   हैं ।

जिन्होंने  पढ़  लिया यारो बसर  को ।।6


 न  करिए  जिंदगी  से  अब  शिकायत ।

यूँ काटें  मुस्कुराकर  इस  सफ़र  को ।।7

जो इम्तिहाँ के दौर में आने से रह गया

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जो इम्तिहाँ के दौर में आने से  रह  गया ।

अपना ज़मीर वह भी बचाने से रह गया ।।2


हर सिम्त  हैं  सदायें  यहां  लूट  पाट की।

हाक़िम तो अपना फ़र्ज़ निभाने से रह गया।।2


हैरान है ये दुनिया इसी बात पर हुजूर ।

कैसे हमारा मुल्क  मिटाने  से रह  गया ।।3


वो ले गया था वोट  मेरा  इत्मीनान   से ।

पर पेट भर  अनाज दिलाने से रह गया ।।4


करती मिली हैं रूहें हिफाज़त उसी की अब ।

जो कब्र  पर  चराग़  जलाने  से  रह  गया ।।5


सदमा लगा है यार किसी बादशाह को ।

नफ़रत की आग घर मे लगाने से रह गया।।6


सब साथ छोड़ कर यूँ तेरा जा रहे हैं अब ।

तू बेवकूफ हमको बनाने से रह गया ।।7


चित्र - एक तानाशाह

अब ज़रूरत ही नहीं और शनासाई की

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अब  ज़रूरत   ही   नहीं  और  शनासाई   की ।

शह्र   में  चर्चा   है  जब  आपकी  रानाई  की ।।1


सिर्फ़  मतलब  के  लिए  लोग  यहाँ  मिलते हैं ।

कमी  दिखने  लगी रिश्तों में तवानाई  की ।।2


कीमत ए इश्क़  पता चल गया उसको जानां !

उम्र भर  जिसने  तेरे  कर्ज़  की  भरपाई   की ।।3


वो  मुहब्बत  के महल  ढह  चुके  हैं  देखो तो ।

ईंट  रक्खी  थी  जहाँ  नींव  में  दानाई  की ।।4


मुझको तन्हाइयां लाती हैं बहुत  रब के करीब ।

क्यूँ  शिकायत मैं करूँ दुनिया  से तन्हाई की ।।5


दरिया  में  डूबे  वही  लोग  सुना  है  अक्सर ।

कह  रहे थे जो  ख़बर  है  मुझे  गहराई  की ।।6


इस अलग दौर की दुनिया से गिला शिकवा क्या ।

अब नहीं लेता  है नोटिस  कोई  रुसवाई  की ।।7


              -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

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रंग  चेहरे  का  यूँ  उतरा  नहीं  देखा जाता ।

इस  तरह  दिल  तेरा टूटा नहीं देखा जाता ।।1


आ गए  हो  तो यहाँ पीना पिलाना सीखो ।

मैकदे  में  कभी पैसा   नहीं  देखा जाता ।।2


वस्ल की गर है तमन्ना तू बगावत पे उतर ।

आजकल प्यार में पहरा नहीं देखा जाता ।।  3


मैं  मनाने की कसम खा के यहाँ आया हूँ ।

दोस्त कैसा भी हो रूठा नहीं देखा जाता ।।4


बेच देता है अमानत वो सितमगर अक्सर ।

क्या करूँ देश का सौदा नहीं देखा जाता ।।5


आग   उसने   जो  लगाई  है चमन में  यारो  ।

अब धुँआ  पानी से उठता नहीं देखा जाता।।6


अब न हिन्दू न मुसलमा की कोई   चर्चा हो ।

भाई  भाई  में  हो  झगड़ा  नहीं  देखा जाता ।।7


                --नवीन

आइने जो कहें वो सुना कीजिये

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आइनों   को   बुरा  मत   कहा   कीजिये ।

आइने    जो    कहें   वो   सुना  कीजिये ।।1


हर्फ़  उभरे  हैं उल्फ़त  के  रुख़सार  पर ।

उनके  चेहरे  को  कुछ तो पढा कीजिये ।।2


आज  महफ़िल  में  वो आएंगे बेनक़ाब  ।

दिल  न  टूटे  किसी  का  दुआ  कीजिये ।।3


है    मुनासिब    नहीं   ख़ामुशी   आपकी ।

गर  हैं   बीमारे  ग़म  तो  दवा   कीजिये ।।4


अब  मुहूरत  पे  चर्चा   बहुत   हो  चुका ।

बस  अभी  प्यार  की  इब्तिदा  कीजिये ।।5


कैसे   डसतीं   हैं  मुझको  ये  तन्हाइयां ।

मेरे   हालात    पर   तब्सिरा   कीजिये ।।6


ज़ख़्म   नासूर  हो  जाएगा  एक   दिन ।

ज़ख़्म को  इस  तरह मत  हरा  कीजिये ।।7

        

       --नवीन मणि त्रिपाठी

क़ुबूल नहीं

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दिलो  से  दिल का  रहे  फ़ासला क़ुबूल नहीं ।

यूँ   टूट   जाये   मेरा   राबिता  क़ुबूल   नहीं ।।


है   ऐतबार    उसे    मेरी    बात   पर   कैसे ।

ज़माने  भर  का  जिसे  मशवरा क़ुबूल नहीं ।


हमें   यकीन  है  जिंदा   है   चाहने  वाला ।

हमारे  दिल  को  अभी  मर्सिया कूबूल नहीं ।।


बुखार उतरेगा उल्फ़त का हिज़्र से इक दिन । 

मग़र  मरीज़  को  ऐसी  शिफ़ा  क़बूल नहीं ।।


घुटन से निकला हूँ मुद्दत के  बाद  मैं यारो ।

अब उसके शह्र की आबो हवा क़ुबूल नहीं ।।


उसे यकीन है अपने हुनर की ताक़त पर ।

जिसे किसी का कोई तज़रिबा क़ुबूल नहीं ।।


ऐ जिंदगी  तू  मुझे  बेख़ुदी  में  जीने   दे ।

हो घर से दूर  बहुत  मैक़दा  क़ुबूल  नहीं ।।


                --नवीन मणि त्रिपाठी

इंसां को है ज़रूरी फ़क़त प्यार की तलब ।।1

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नफ़रत की है तलब न किसी ख़्वार की तलब ।

इंसां को है  ज़रूरी  फ़क़त प्यार की तलब ।।1


आएंगे   बार   बार  वो   दीवाने  हुस्न  के ।

होगी  जिन्हें  यूँ  आपके  दीदार की तलब ।।2


पहले जुनूने इश्क़ में पागल तो हो के देख ।

पूछेंगे लोग तब कहीं  बीमार  की  तलब ।।3


बिकता रहा जो मीडिया ऐसे यहाँ ऐ दोस्त ।

जिंदा  नहीं  रहेगी  ये  अखबार  की तलब ।।4


दिन  रात   झूठ बोलते  नेता जी  बेहिसाब ।

कितना गिरेगी और ये अधिकार की तलब ।।5


जीना  मुहाल  हो  गया  है  तब  से  ऐ हुजूर ।

महंगाई  जब  से हो गयी सरकार की तलब ।।6


दो  वक्त  की  हों  रोटियां  कुनबे  के  वास्ते ।

इतनी ही बच सकी यहाँ लाचार  की  तलब ।।7


                       - नवीन मणि त्रिपाठी

हमारे ख़्वाब यकीनन बिखर गए होते

 मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन

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तुम्हारे   शह्र  में  गर  हम   ठहर गए  होते ।।

रक़ीब   पर  ही   हमारा  क़तर  गए  होते ।।


अगर  न  मिलती  हमें  तुमसे  ये पज़ीराई ।

हमारे  ख़्वाब  यकीनन  बिखर गए  होते ।।


किया है  जितना ज़माने ने तब्सिरा उन पर ।

न होता  इश्क़ तो  कब  के वो मर गए होते ।।


रहा  ये  अच्छा  नहीं  आये  मैक़दे  में  हम ।

वग़रना  ज़ाम  भी  हद  से  गुज़र गए होते ।।


वो  दफ़अतन  ही  अगर  मेरे  रूबरू  होता ।

तमाम   ज़ख़्म   पुराने   उभर   गए    होते ।।


असर वफाओं का कायम रखा मुझे वरना ।

नज़र से हम भी किसी दिन उतर गए होते ।।


हुजूर  इश्क़ निभाने  की  क्या ज़रूरत थी ।

बला से आप भी  हँसकर मुकर गए होते ।।


                - नवीन मणि त्रिपाठी

अम्न से इतने फासले क्यूँ हैं

 


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हर तरफ़ यार दिलजले क्यूँ हैं ।

मुल्क  के पस्त  हौसले क्यूँ हैं ।।


कुछ तो साज़िश रची गयी होगी।

अम्न से इतने फ़ासले क्यूँ हैं ।।


बिक न जाए कहीं वतन मेरा ।

दुश्मनों के ये मरहले क्यूँ हैं ।।


कोई मजदूर से भी पूछे तो ।

पाँव में इतने आबले क्यूँ हैं ।।


दाम लगने तो दीजिये साहब ।

बेचने पर उतावले क्यूँ हैं ।।


कोई टैगोर बन नहीं सकता ।

फिर ये कायम ढकोसले क्यूँ हैं ।।


नींद इस बात से उड़ी उनकी ।

लोग मेरे मुकाबले क्यूँ हैं ।।


सबके चेहरे बुझे बुझे से जब ।

जश्न के झूठे चोंचले क्यूँ हैं।।


पूछती है सवाल जनता ये ।

बेसबब वो हमें छले क्यूँ हैं ।।


जब खरीदार ही नहीं आते ।

तो पकौड़े सभी तले क्यूँ हैं ।।


          ---  नवीन

जमहूरियत से देश का पहला सवाल हो

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हिन्दोस्तां के चेहरे पे कुछ तो जमाल हो ।

ऐसा  न  काम कीजिये जीना मुहाल हो ।।1


साज़िश रची गयी है यहां तोड़ने की यार । 

ये ख़्वाहिशें हुज़ूर की घर घर बवाल हो ।।2


कब तक जियेंगे भुखमरी के दौर में यहाँ ।

जमहूरियत से देश का पहला सवाल हो ।।3


गर  बेचना  है आपको सब  बेच  डालिये ।

जाने के बाद जिससे न दिल को मलाल हो ।।4


हालात    आप    पूछिये   बेरोजगार   से ।

शेयर के दाम में जहाँ दिनभर  उछाल हो ।।5


उस देश के वजूद की चर्चा करें भी क्या ।

हर काम के लिए जहां मिलता दलाल हो ।।6


इस हाल में हैं जी रहे अस्सी करोड़ अब ।

घर में हमारे थोड़ा सा ही आटा दाल हो ।। 7


मिट जाए भूख सबकी सभी चैन से सो लें ।

'इक दिन मेरे जहान में ऐसा  कमाल हो ।।

                     --- नवीन

गुज़रे हैं दर्दो ग़म लिए दौरे खिजाँ से हम

 ओ बी ओ तरही मुशायरा से


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गुज़रे हैं दर्दो ग़म लिए दौरे खिजाँ से हम ।

होते   रहे  तबाह  जहाँ  इम्तिहाँ  से  हम ।।


तुमको  खबर  नहीं  है  मग़र  तिश्नगी  लिए

लौटे  हैं  बार   बार  तुम्हारे  मकां से   हम ।।2


होनी थी फ़त्ह इश्क़ से जिसमें हमें जनाब' ।

लड़ने लगे हैं जंग वो  तीरो- कमां से हम।।3


उतने  ही आबरू  के  दिवाले निकल गये ।

कूचे से तेरे निकले थे जितने गुमाँ से हम ।।4


दूरी   बना  हमारी  ख़ुदा  ख़ैर   ख़्वाह  से ।

बरबाद हों न जाएं कहीं  मिह्रबाँ  से   हम ।।5


हमको ख़बर है मिल न सकेंगे तमाम उम्र ।

बिछड़े  जो  एक  रोज़  तेरे कारवां से हम ।।6


मुमकिन  है यार ये भी  मुक़द्दर  जो साथ दे ।

इक दिन  उतार  लेंगे क़मर आसमां से हम ।।7


                         -- नवीन

खिजाँ -पतझड़

फ़त्ह - जीत ,विजय

क़मर - चाँद 

ख़ैर ख़्वाह - शुभ चिंतक

मिहरबां  - मेहरबान कृपा करने वाला

यूँ दिल ये बेकरार बहुत देर तक रहा

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क़ातिल का इंतज़ार बहुत देर  तक  रहा ।

यूँ  दिल  ये  बेक़रार  बहुत देर तक रहा ।।1


वो लुट गया  जहाँ  में सरे  आम  दोस्तो ।

जो शख़्स होशियार बहुत देर तक रहा ।।2


धोखा मिला उसी से जमाने मे बार बार ।

जिस पर भी ऐतबार बहुत देर तक रहा ।।3


पीना गुनाह है वहाँ , जिस मैक़दे से यार । 

रिश्ता  कभी  कभार  बहुत  देर तक रहा ।। 4


उनकी शिफ़ा से मुझ को तसल्ली तो मिल गई ।

पर इश्क़ का बुखार बहुत देर तक रहा ।।5


करने लगे वतन की तिज़ारत वो देखिए ।

कुर्सी का जब खुमार बहुत देर तक रहा ।।6


बिकते  हुए  चमन  को  ख़रीदार चाहिए ।

साहब ये इश्तिहार  बहुत  देर  तक  रहा ।।7


जम्हूरियत के नाम पे  चर्चा  जो  हो  गया ।

दिल्ली के दिल में ख़्वार बहुत देर तक रहा ।।8


          ---  नवीन मणि त्रिपाठी

जो मिला है दर्द तुझसे वो कलाम तक न पहुंचे

 "इस्लाह ए सुख़न " 

(तरही मुशाइरः  से हासिल ग़ज़ल )

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तेरे इश्क़ की कहानी यूँ अवाम तक न पहुंचे ।।

जो मिला है दर्द तुझसे वो कलाम तक न पहुंचे ।।1


जो करेगा बज़्म रोशन वो क़मर मुझे है प्यारा ।

वो है चाँद  ग़ैर  का जो मेरे बाम तक न पहुँचे ।।2


मुझे डर नहीं है मय से मुझे डर है तिश्नगी का ।

मेरा हाथ मैक़दे में कहीं जाम तक न पहुंचे ।।3


है रक़ीब यह ज़माना , ज़रा बोल तू सँभल के ।

ये मुहब्बतों की चर्चा , तेरे नाम तक न पहुँचे ।।4


ये ख़ुदा की आरजू थी या ख़राब ही थी किस्मत ।

मेरे ख़त वो लौट आए ,जो मुकाम तक न पहुँचे ।।5


तुझे जाना है तो जा पर , नहीं दूर जा तू इतना ।

तेरे हुस्न को हमारा ये सलाम तक न पहुंचे ।।6


न रुकीं ये ख्वाहिशें ही न मिली ही कोई मंज़िल ।

ये है सिलसिला ए चाहत जो क़याम तक न पहुँचे ।।7


        -- नवीन मणि त्रिपाठी

पेंटिग चित्र - राजा रवि वर्मा 

साभार- गूगल

मिलेंगे और भी ज़हराब देखने के लिए

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हैं  मुन्तज़िर  मेरे  अहबाब  देखने के लिए ।

जमीं  पे  उतरेगा  महताब  देखने  के  लिए ।।1


न  जाने  कैसा  नशा है  तुम्हारी  सूरत  में ।

सुना है  रिन्द  हैं  बेताब  देखने  के  लिए ।।2


तू अपनी तिश्नगी पे यार आज  काबू  रख ।

मिलेंगे  और  भी ज़हराब  देखने  के  लिए ।।3


बहेंगे आप भी दरिया ए अश्क में इक दिन ।

अगर  यूँ  आएंगे  सैलाब  देखने  के लिए ।।4


कुछ इस तरह का ख़ुदा ने नसीब बख़्शा है ।

हमें मिला ही नहीं  ख़्वाब  देखने  के लिए ।।5


वहीं  पे  आग  लगाई  है  इस  ज़माने   ने ।

चमन जहाँ भी था शादाब देखने के लिए ।।6


उसे  है  फ़िक्र  कहाँ  मेरी  रूह  की  यारो ।

वो  आ  रहा मेरा असबाब देखने के लिए ।।7


            मौलिक अप्रकाशित 

           --  नवीन मणि त्रिपाठी

हाले दिल तन्हाइयों में उसने पूछा है कहाँ

 2122 2122 2122 212 


हाले  दिल  तन्हाइयों  में  उसने  पूछा  है  कहाँ ।

वक्त  के  इस दौर में  कोई  किसी  का  है कहाँ ।। 1


जिस दरीचे से था देखा इक ज़माना तक हिलाल।

अब  वहीं से  देखता हूँ चाँद  ढलता है कहाँ ।।2


चाहतें ही खींच लाईं इश्क़ की दहलीज़ तक ।

दरमियाँ  उनके हमारे  और  रिश्ता  है  कहाँ ।। 3


शोखियां देंगी अना को दावतें इक दिन हुजूर ।

आइने  के  सामने  वो  हुस्न आया  है  कहाँ ।।4


नोंच लेता है  सुकूनो  चैन  क्यूँ  मतलब परस्त ।

बेख़ुदी  में  आदमी  अब  जीने  देता  हैं कहाँ ।।5


रहगुज़र पर गुल बिछा कर मुन्तज़िर है पारिजात।

मेरी किस्मत में उधर से अब  गुज़रना है कहाँ ।।6


गर  शिफ़ा  है तो बताओ  ज़िंदगी  के वास्ते ।

ये  न  पूछो  दिल हमारा इतना  टूटा है कहाँ ।।7


           -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

शब्दार्थ

हिलाल - पहले दिन का चांद

शोखियां - सौंदर्य

अना - अहं

रहगुज़र - पथ

पारिजात - एक प्रकार के पुष्प के पौधे का नाम 

शिफ़ा - दवा

बदन में मौसमी सिहरन है क्या किया जाए

 1212 1122 1212 22 


हर एक शख़्स को उलझन है क्या किया जाए ।

बहुत  उदास ये गुलशन  है क्या किया जाए ।। 1


जो   पैरहन   है  नया   वो  अमीर   ही  लेगा ।

मेरे  नसीब  में  उतरन है  क्या  किया  जाए ।।2


दिल और जाँ को बचाओ ज़रा सँभल के चलो ।

यहाँ तो हुस्न ही रहज़न है क्या  किया  जाए ।।3


हवा  का   रुख़   ये  बताता  है  अब्र  बरसेगा ।

बदन में मौसमी सिहरन है क्या किया जाए ।।4


यूँ  देखकर  ही  तसल्ली मिलेगी  दुनिया  को ।

क़मर के दरमियाँ चिलमन है क्या किया जाए।।5


लगाए    रक्खा   है   दरबान   शह्र  में   देखो ।

ज़माना इश्क़ का दुश्मन है क्या  किया जाए ।। 6


शज़र  जो  तूफाँ  के  रहमो  करम पे जिंदा  है ।

परिंदे का  वहीं  मस्कन  है  क्या किया जाए ।। 7


           --नवीन


शब्द अर्थ 

पैरहन - वस्त्र 

रहज़न - लुटेरा 

क़मर - चाँद

दरमियाँ - बीच या मध्य

शज़र - पेड़ 

मस्कन - घर या घोंसला

मुमकिन है उन्हें अपनी भी याद आये कहानी

 221 1221 1221 122

मुमकिन है उन्हें अपनी भी याद आये कहानी ।

गर  कोई  मुहब्बत  की   सुना  जाए कहानी ।।


उल्फ़त के ज़माने की नई ताज़गी लेकर ।

दिल बारहा इस दौर में बहलाये कहानी ।।


शिकवा गिला इल्ज़ाम से ज्यादा न मिला कुछ ।

मुद्दत  के  बाद  आप  जो  बुन  पाए कहानी ।।


मुझको सुना के मुझपे सितम कर न मेरे यार ।

शब भर मेरे अश्क़ों को जो छलकाए  कहानी ।।


जब से मेंरे जज़्बात को छूकर गयी है वो ।

तब से यूँ ख़यालात  में उलझाए कहानी ।।


वो हुस्न ही चर्चा में रहा दुनिया में अक्सर ।

अपनी अदा से हुस्न जो लिखवाए कहानी ।।


हम  तो ठगे से रह गए  महँगाई  में साहब ।

कोई तो हमें देश की समझाए  कहानी ।।


छपने में सियासत है सुखनवर ही क्या करे।

लिख कर तमाम रात वो पछताए कहानी ।।


        --नवीन

बेदर्द ज़माना क्या जाने ,ये जख़्म कहाँ तक गहरा है

 ग़ज़ल

221 1222 22 221 1222 22


आंखों से निकलता दरिया बस, ख़ामोश इशारा करता है ।।

बेदर्द ज़माना क्या जाने ,ये जख़्म कहाँ तक गहरा है ।।


उम्मीद करूँ क्या मैं तुम से ,तुम साथ निभाआगे मेरा ।।

संसार से जाने वाला जब, हर एक मुसाफ़िर तन्हा है ।।


हैं जलते मकां जलती लाशें ,और खूब जलीं घर की खुशियां ।।

इस अहले वतन की सड़कों से ,ऐसा ही उजाला देखा है ।।


ये वक्त है जुमलेबाजों का , बहती है यहाँ उल्टी गंगा ।

है फ़िक्र नहीं जिसको रब की, दुनिया में उसी का जलवा है ।।


बदली हैं वतन की तस्वीरें बदला है ज़माना तब यारो ।

विश्वास बड़ी मुश्क़िल से जब दुनिया से हमारा टूटा है ।।


ये देश नहीं बिकने देंगे था जिसका वतन से ये वादा ।

पुरखों की निशानी चुन चुन कर वो शख़्स खुशी से बेचा है ।।  


हैं  क़ैद  परिंदे मुद्दत से, चर्चा ए रिहाई  क्या  करना ।

सय्याद  ही जब आज़ादी का, हर बार मुक़द्दर लिखता है ।।


                           -- नवीन

हैं चरागों पर बहुत परवाने मरने के लिए

 2122 2122 2122 212


चाहतों के नाम अपनी शाम करने के लिए ।।

हैं चरागों पर बहुत परवाने मरने के लिए ।।


तिश्नगी बुझती नहीं इस मयकशी के दौर में ।

रिन्द आते हैं यहाँ , हद से गुज़रने के लिए ।।


अब चमक के राज़ से पर्दा उठाकर देखिए ।

मुद्दतों से तप रहा सोना, निखरने के लिए ।।


इश्क़ ही काफ़ी नहीं है अब सनम के वास्ते ।

कुछ तो दौलत चाहिए दिल में उतरने के लिए ।।


उनके वादों पर भरोसा क्या करे कोई जनाब ।

इक बहाना चाहिए जिनको मुक़रने के लिए ।।


वो हक़ीक़त से रहा ता उम्र ग़ाफ़िल इस तरह ।

आइना देखा था जिसने बस सँवरने के लिए ।


हसरते परवाज़ अपनी तू छुपाए रख यहां ।

हैं बहुत सय्याद तेरे पर कतरने के लिए ।।


        नवीन मणि त्रिपाठी

बेसबब आदमी कुर्बान हुआ जाता है

 ग़ज़ल

2122 1122 1122 22


जुल्म सहकर भी वो अनजान हुआ जाता है ।

बेसबब आदमी कुर्बान हुआ जाता है ।।


रोज़ पीता है जो चुपचाप गरीबों का लहू ।

शख़्स वह देखिए भगवान हुआ जाता है ।।


फ़िक्र कितनी है हमारी ये बताए मंज़र ।

सारा गुलशन यहाँ शमशान हुआ जाता है ।।


भूख के वास्ते शहरों की तरफ़ जब से गया ।

घर मेरे गांव का वीरान हुआ जाता है ।।


है अज़ब  दौर ये मज़दूर का जीना मुश्किल ।

मांगता हक़ है तो शैतान हुआ जाता है ।।


शख्त पहरा वो लगा रक्खा है सच पर यारो ।

मीडिया फ़ख्र से दरबान हुआ जाता है ।।


ज़ख़्म खा करके भी खामोश रहो दुनिया मे ।

आजकल ऐसे ही इंसान हुआ जाता है।।


      -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

 2122 2122 212 

अब  तो   फैलेंगे  वहाँ  उन्माद   सब ।

 बन रहे  मुखिया जहाँ जल्लाद  सब ।।


क्यों    बचें   गुंजाइशें   इस्लाह   की ।

जब हुए  ख़ुद ही  यहाँ  उस्ताद  सब ।।


अब  कलम  पर  हैं  बहुत पाबंदियाँ ।

मत कहो इस  देश  मे आज़ाद  सब ।।


लूट  कर   सारे  वतन   की  रोटियाँ ।

चोर   हैं  परदेश   में  आबाद   सब ।।


बेच    देंगे   वो   मेरी   पहचान   भी ।

हो  न  जाए एक दिन  बरबाद  सब ।।


तैरती  लाशों ने खोला सच का राज़ ।

कैसे कह  दें  वो मिली  इमदाद  सब ।।


उस  सियासत  से  करें  तौबा  हुजूऱ ।

हैं  जहाँ   शैतान  की  औलाद  सब ।।


       --नवीन

ग़ज़ल

 ग़ज़ल 


221 2121 1221 212 

उनका गुनाह तो किसी  क़ातिल से  कम  नहीं ।

जिनको  हमारी  जान  के जाने का  ग़म  नहीं ।।


हर  सिम्त  उठ  रही  हैं  ये लाशें घरों से क्यूँ ।

शायद   मेरे   दयार  में   बैतुल   हरम   नहीं ।।


कह दूं मैं मीडिया की तरह तुमको अब ख़ुदा ।

इतना  तुम्हारे  काम पे  मुझको  भरम  नहीं ।।


रक्खा था जिनको दिल मे ज़माना सँभाल के ।

वो  तो   जनाब  ठहरे  यहाँ   मोहतरम   नहीं ।।


उजड़े तमाम  घर यहाँ इतनी  सी  बात  पर ।

बस्ती  में जब  मिला उसे बैतुस  सनम नहीं ।।


करते   रहें  वो  याद  ज़माने  तलक   हुजूऱ।

मुफ़लिस के हक़ में आपके ऐसे करम नहीं ।।


इस  दौर में  है जीने  का  अन्दाज़  यूँ अलग ।

बचती  ये जिंदगी  है  मियाँ  बे रकम  नहीं।।


पकड़ा  गया  वही  है  फरेबों  के  दरमियाँ ।

कहता था जो मैं खाता हूं झूठी कसम नहीं ।।


बैतुल हरम= पवित्र स्थान 

बैतुस सनम= प्रेमिका का घर 


          -

--डॉ नवीन मणि त्रिपाठी   


आग शायद लग चुकी है अब जहालत के ख़िलाफ़

 2122 2122 2122 212


जिनसे उम्मीदें थीं सबको होंगे नफ़रत के ख़िलाफ़ ।

वो मिले अक्सर चमन में क्यूँ मुहब्बत के ख़िलाफ़ ।।


ख़ामुशी जमहूरियत की ये बताती है हमें ।

आग शायद लग चुकी है अब जहालत के ख़िलाफ़ ।।


जब लगे दीवार पर शिकवे- गिले के पोस्टर ।

फिर नज़र आये हैं साहब आप जनमत के ख़िलाफ़ ।।


सच बयानी कीजिये मत जाहिलों के सामने ।

बात जो सुनते नहीं हैं शानो शौक़त के ख़िलाफ़ ।।


काम  के अंजाम का कुछ तो तसव्वुर कीजिये ।

क्यूँ कलम चलने लगी दुनिया मे इज्ज़त के खिलाफ ।।


कुर्सियों पर जब मदारी हो गए काबिज़ यहाँ ।

बोलता ही कौन है अब यार रिश्वत के ख़िलाफ़ ।।


तैरती  लाशों  के  मंजर  पर न पर्दा डालिये ।

हो न जाए  आदमी इक दिन  सियासत के खिलाफ ।।


          --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

 ग़ज़ल 


1222 1222 122

वहाँ   सरकार   जनता   ढो   रही   है ।

जहाँ  की  नीति  बस "ठोको" रही  है ।।1


नज़र     आई    है   तानाशाही   ऐसे ।

मियाँ    जमहूरियत  ही  रो   रही   है ।।2


वबा  का  दौर  है,  ऐ  रब   बचा  ले।

कि अब  इंसानियत भी  खो रही है ।।3


बनाएं   आपदा   को   आप  अवसर ।

अदालत    मुद्दतों  से  सो   रही   है ।।4


हम   उनके  वास्ते   बस   आंकड़े   हैं ।

फ़क़त  लाशों की  गिनती  हो रही है ।।5


न  बच   पाए  कहीं  अम्नो   सुकूँ   ये ।

सियासत   ज़ह्र   इतना  बो   रही   है ।।6


करें  उम्मीद  क्या  हम  ज़िंदगी  की ।

हमारी   फ़िक्र  कब   उनको  रही  है ।।7


       --नवीन

दरिया को समुन्दर की वसीयत नहीं मिलती

 ग़ज़ल 

221 1221 1221 122


हातिम के मुक़द्दर में तो इशरत नहीं मिलती ।

दरिया को समुन्दर की वसीयत नहीं  मिलती ।।


यूँ  तो  है  बिकाऊ  यहाँ  हर आदमी लेकिन ।

इंसान  को  इंसान की कीमत  नहीं  मिलती ।।


इज़हार   ज़रूरी   है  मुहब्बत  का  सनम   से ।

चाहत से फ़क़त हुस्न की कुर्बत नहीं  मिलती ।।


लौटा दे  कोई  मुझको मेरा  लूटा  हुआ  दिल ।

दुनिया मे अभी  इतनी शराफ़त नहीं  मिलती ।।


वो  लोग  क़रीब  आने  की कोशिश में लगे हैं ।

जिनसे  मेरे  महबूब  की  सूरत  नहीं  मिलती ।।


हासिल हुआ है इश्क़  तो  परदे  में  रखा  कर।

यूँ  ही  किसी  को यार ये दौलत नहीं मिलती ।।


दिन  इतने  बुरे  आ  गए   ईमान  के   साहब ।

नीयत  हो  अगर  साफ़ तो बरक़त नहीं मिलती ।।


इनकार की हस्ती को यूँ समझा तो  करें  आप ।

हर बात पे गर हाँ हो तो  इज़्ज़त नहीं  मिलती ।।


उड़ जाती हैं क्यूँ तितलियां उस गुल के चमन से ।

जिस फूल के आगोश में निकहत नहीं मिलती ।।


हातिम - दाता

इशरत - भोग विलास

आगोश - गोद

निकहत  - खुशबू


      -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

तिश्नगी ले के तो साहिल से मैं लौटा कल शब

 2122 1122 1122 22


वो नज़र भर के मुझे  प्यार  से  देखा  कल   शब ।

जो किसी ग़ैर की महफ़िल में मिलेगा  कल शब ।।


तब  से  गायब  हैं  मेरे  अम्नो   सुकूँ  चैन   सभी ।

 जब  से  वो  चाँद  मेरे  बाम  पे उतरा कल शब ।।


ऐ   समुंदर   तेरी   दरिया  दिली  से  है  शिकवा ।

तिश्नगी ले के तो साहिल से मैं  लौटा  कल  शब ।।


आप ही कीजिये अब  उसका  क़रीने  से  इलाज ।

देख कर आपको जो शख्स था फिसला कल शब ।।


उनके   वादे   पे   यकीं   कौन    करे   अब   यारो ।

तोड़  आये  जो  मेरे  दिल  का  भरोसा  कल शब ।।


शमअ    की    चाह   में    आएंगे   वहाँ   परवाने ।

घर  जलाकर  जो   करेगा   तू  उजाला  कल  शब ।।


कर   दिया   तुमने   मेरा   ज़िक्र   रक़ीबों  से  क्या ।

शह्र   में   होने   लगा  इश्क़   पे  चर्चा   कल   शब ।।


            -नवीन

होली में

 गुलाबी आरिज़ों  पर  रंग  की बौछार  होली  में ।

सनम का  कीजिये  साहब ज़रा दीदार होली में ।।


बनी है ख़ास ठंढाई मिलाकर भंग की गोली ।

नहीं सुनना है कोई आपका इनकार होली में ।।


कहीं भीगी है चूनर तो कहीं धोती हुई गीली ।

हुए हैं ख़्वाब रंगों के सभी साकार होली में ।।


चुनावों का ये मंज़र  वोट पे पहरा दिखा ढीला।

नहीं दिखती हमें अब होश में सरकार होली में ।।


है चलना अम्न की राहों पे हिंदुस्तान को यारो ।

गिरा दें हर बड़ी दीवार को इस बार होली में ।।


चमन जितना ये हिन्दू का है उतना ही मुसलमाँ का।

करो अब बन्द नफ़रत का नया व्यापार होली में ।।


तकाज़ा है वतन का ये मुहब्बत आम हो जाये ।

दिलों में रह न जाये अब कहीं भी ख़्वार होली में ।।


    आरिज़ों-- गालों


        -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

चुपके चुपके मिला करे कोई

 2122 1212 22 


चुपके   चुपके    मिला   करे   कोई ।

दिल   न    टूटे   दुआ   करे   कोई ।।


आएगी   बात  सब  जुबाँ   पर  यूँ ।

हाले  दिल  कुछ  पता करे  कोई ।।


ख़त  में   देखा   ग़ुलाब   आया   है ।

ज़ख्म   फिर   से   हरा  करे  कोई ।।


ऐ   मुहब्बत    ज़रा   बता   दे    तू ।

दर्द   कितना    सहा    करे    कोई ।।


कैसे  सँभलेगा  ये  हिजाब  सनम ।

गर   हवा  ही   ख़ता   करे   कोई ।।


वो   ख़ुदा   है  उसे   सलाम   करो ।

जब   तबस्सुम  अता   करे   कोई ।।


मंजिलें   ढूढ   लेंगी   ख़ुद   उसको।

राह   पर   गर   चला   करे   कोई ।।


ज़ुल्म   इज़हारे   इश्क़    है   यारो ।

बारहा    क्यूँ   ख़फा   करे   कोई ।।


वो मुसलसल सी  है ग़ज़ल साहिब ।

उसका   चेहरा   पढ़ा   करे   कोई ।।


      --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

दाग़ अच्छे हैं न तुहमत अच्छी

 2122 1122 22


दाग़   अच्छे   हैं   न   तुहमत  अच्छी ।

चाहिए   सब   को  मुहब्बत  अच्छी ।।


दिल  के   बाज़ार  में   देखो  साहब ।

हो    रही   रोज़   तिजारत   अच्छी ।।


किसको  फुरसत  है  खूबियां  परखे ।

देखते    लोग    हैं    सूरत   अच्छी ।।


हर   तरफ   आसुओं   का  मंजर  है ।

कैसे   कह   दूँ  मैं   हुकूमत  अच्छी ।।


टुकड़े   टुकड़े   में   मियाँ  मरते  हो ।

ऐसे    जीने   से   बग़ावत   अच्छी ।।


जो  पलट  जाएं  हवा  के  रुख़   से ।

उनकी  यारी   से  अदावत  अच्छी ।।


लुट   रहे    लोग   यहाँ   अपनों   से ।

आज़कल  ग़ैरों  की निसबत अच्छी ।।


जिसके   आने   से  सुकूँ  खो  जाए ।

मत   कहो  यार  वो  दौलत  अच्छी ।।


घर  से  निकला  हूँ  मैं  तन्हा  जानां ।

आप  मिल  जाएं तो किस्मत अच्छी ।।


     --डॉ  नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

 


2122 1212 22


उसकी   ख़ुशबू  है  इन  फ़िज़ाओं   में ।

मैंने   मांगा     जिसे   दुआओं   में ।।1


अब   दरीचों   को   खोल  दो   यारो ।

है   कशिश  आज   की  हवाओं  में ।।2


जो   जला    दे   मेरे    रक़ीबों   को ।

वो    शरर   आपकी   अदाओं   में ।।3


आज   बरसात   काश   हो  इतनी ।

जितना  पानी  हो  इन  घटाओं  में ।।4


अब तो  दरिया  उफ़ान  पर  साहब ।

बह   न   जाएं  कहीं   बहावों    में ।।5


बारहा    खींच   रहीं    वो    मुझको ।

चाहतें   कुछ   तो   हैं  सदाओं   में ।।6


उनसे   इज़हारे   इश्क़  फिर   कीजै  ।

जो   हैं  बिखरे   यहाँ   अनाओं    में ।।7


          -नवीन मणि त्रिपाठी

दुनिया तुम्हारे इश्क़ की जब भी मिसाल दे

 221 2121 1221 212


ये  मैक़दा  है  फ़िक्र  को दिल से  निकाल  दे ।

तू रंजो ग़म को आग के दरिया में डाल दे ।।1


उल्फ़त का ज़िक्र हो यहाँ पाकीज़गी के साथ ।

दुनिया तुम्हारे इश्क़ की जब  भी मिसाल दे ।।2


वो   होश  में  रहें  न   सनम   होश  में  रहें ।

ऐ  रब   तू   उसके   वास्ते  ऐसा  विसाल  दे ।।3


नाजुक  मिजाज़  हैं वो ,उन्हें  छेड़िये  नहीं ।

ऐसा  करें  न  काम  जो  दिल  को  मलाल दे ।।4


ग़म  का असर न  हो  न  खुशी  की  बहार  हो ।

मौला  तू  मुझको  ऐसे  ही  सांचे  में  ढाल दे ।।5


अब  मयकशी  के  वास्ते  मत  जाइए  वहाँ ।

महफ़िल जो हर ग़रीब की इज़्ज़त उछाल दे ।।6


रक्खे  अना  से  दूर  जो  अपने  शबाब को।

कुदरत  उसी  को  बारहा  हुस्ने  जमाल  दे ।।7

         -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

जिनके चेहरे पे कशिश जुल्फ़ में रानाई हो

 ग़ज़ल आप सब की मुहब्बतों के हवाले 


2122 1122 1122 22

जिनके  चेहरे  पे  कशिश  जुल्फ़  में  रानाई  हो ।

काश  उनसे  भी   मेरी   थोड़ी   शनासाई   हो ।।1


लफ़्ज़  ख़ामोश  रहें  बात हो  दिल की  दिल से।

रब   करे  उसकी   मुहब्बत  में  ये गहराई  हो ।।2


चाँद  छूने   की   तमन्ना   तो   हो   जाए    पूरी ।

मेरी   चाहत   पे   अगर  आपकी   बीनाई  हो ।।3


वो  तबस्सुम ,वो  नज़ाक़त ,वो  अदाएं  उसकी ।

हूर   इक  आसमा   से   जैसे   उतर  आई  हो ।।4


ऐसे  हालात  में  मुमकिन  है  भला  वस्ल  कहाँ।

हो  कुँआ  मेरी  तरफ़ उसकी  तरफ़  खाई  हो ।।5


हाले  दिल  जान  के  यूँ  मुस्कुरा  के  चल  देना ।

तुम  भी  औरों  की   तरह  एक   तमाशाई  हो ।।6


वो  वफ़ा  इतनी  किफ़ायत से  यहाँ   करते  हैं  ।

वक्त आ जाए  तो  इस  क़र्ज़  की  भरपाई  हो ।।7


मुँह  छुपा  कर  वो  निकलते  हैं  इसी  कूचे  से ।

ऐसा  लगता  है  किसी  बात   से   रुसवाई हो ।।8


इस  कदर   ग़म   है  मेरे  साथ  यहाँ  मुद्दत  से ।

जैसे   हर  रस्म  निभाने  की  कसम  खाई  हो  ।। 9


इतने शिकवे  गिले  हैं आशिक़ों की  कौन  सुने ।

अब  अदालत  में  कहीं  इश्क़ पे  सुनवाई हो ।।

10


 -डॉ0  नवीन मणि त्रिपाठी 


शब्दार्थ -

कशिश- आकर्षण 

रानाई - सौंदर्य या सुंदरता

शनासाईं  -जान पहचान , परिचय 

लफ्ज़ - शब्द

बीनाई - दृष्टि, विजन

तबस्सुम - मुस्कुराहट ,

हूर - परी

वस्ल - मिलन 

तमाशाई - तमाशा देखने वाला ।

ज़िन्दगी बारहा नहीं मिलती

 गर   तुम्हारी   रज़ा    नहीं    मिलती ।

आशिक़ी    को   हवा   नहीं   मिलती ।।


इश्क़     गर     बेनक़ाब     होता    तो।

हिज्र  की  ये   सज़ा   नहीं    मिलती ।।


ज़ीस्त   है  जश्न    की    तरह    यारो ।

ज़िन्दगी    बारहा     नहीं     मिलती ।।


कितनी  बदली  है आज  की   दुनिया  ।

आंखों  में   अब   हया   नहीं   मिलती ।।


नेकियाँ    डाल    दे   तू    दरिया    में  ।

बेवफ़ा    से    वफ़ा    नहीं     मिलती ।।


कुछ   तो  महफ़िल  का  रंग  बदला  है ।

घुँघरुओं    की    सदा   नहीं    मिलती ।।


मैं    ख़तावार    तुझको    कह    देता ।

क्या  करूँ  जब  ख़ता  नहीं   मिलती ।।


छोड़   हर  काम    बस   इबादत   हो ।

यूँ  ख़ुदा   की   दया   नहीं    मिलती ।।


वक्ते   रुख़सत  जहाँ  हो  तय    साहब ।

माँगने    पर    क़ज़ा    नहीं    मिलती ।।


कब   से   क़तिल  हुआ   ज़माना   ये ।

जुल्म   की   इब्तिदा   नहीं  मिलती ।।


वो  तो  नाज़ुक   मिज़ाज   थी   शायद ।

आजकल   जो   खफ़ा   नहीं   मिलती ।।


      --नवीन

2122 1212 22

ग़ज़ल

 221 1222 221 1222


जब दिल में मुहब्बत की  शुरुआत  हुई होगी ।

तब आंखों से अश्कों की बरसात हुई होगी ।।1


वो याद किया होगा दो वक्त हमें हर दिन ।

जब शाम ढली होगी जब रात हुई होगी ।।2


माना कि जुबाँ  चुप थी जुम्बिश लबों पे ठहरी ।

पर दिल से तेरे दिल की कुछ बात हुई होगी ।।3


खामोश परिंदों  का समझो ये इशारा है ।

जीने की तमन्ना की फिर मात हुई होगी ।।4


उजड़ा सा चमन शायद कहता है हक़ीक़त ये ।

गुलशन में तेरे नफ़रत इफ़रात हुई होगी ।।5


भर देगा ख़ुदा इक दिन झोली को दुआओं से ।

दौलत जो तेरे घर से ख़ैरात हुई होगी ।।6


मुमकिन  कहाँ  था छू ले  वो  चाँद  बुलन्दी का।

चाहत  की  उड़ानों  से  औकात  हुई  होगी ।।


नोट-मतले में काफ़िया "शुरुआत" 221 लिया है । यह काफ़िया कुछ बड़े ग़ज़लकारों ने लिया है इसलिए मैंने भी ले लिया ।

वो मुकरते हैं यहाँ शाम से पहले पहले

 2122  1122  1122  22


कस्में  खाते  हैं जो आराम  से  पहले  पहले ।

वो मुकरते  हैं यहाँ  शाम  से  पहले  पहले ।।1


है सुख़नवर के लिए दौर  ये  कैसा  साहिब ।

रिश्वतें  दे  रहे  इनआम  से  पहले  पहले ।।2


देखिए  आप   ज़रा   उनकी  ये   तानाशाही ।

मौत  देते  हैं जो  इल्ज़ाम से  पहले  पहले ।।3


बेच  डालेगा  वो  हर  एक  निशानी  सबकी ।

घर ये बिक जाएगा नीलाम से पहले पहले ।।4


हालेदिल लिखता तुझे ख़त में भला क्या जानां ।

जब ख़बर तुझको थी पैग़ाम से पहले पहले ।।5


आज क़ातिल की निगाहों में कशिश है यारो ।

इक इशारा  है  ये  अंजाम से पहले  पहले ।।6


नींद आने  की  दुआ  माँग  रहे  हैं  आशिक़ ।

ख़्वाब में मिलना है  गुलफ़ाम से पहले पहले ।।7


    -- नवीन मणि त्रिपाठी

क़ातिलों के साथ जब हमको नज़र आई सियासत


ग़ज़ल

2122  2122 2122 2122

कैसे कह दें मुल्क में  कितनी निखर आयी सियासत ।

क़ातिलों के साथ जब हमको नज़र आई  सियासत ।।


चाहतें  सब  खो  गईं और खो  गए  अम्नो  सुकूँ  भी ।

इक  तबाही  का  लिए  मंज़र जिधर आई सियासत ।।


नफ़रतों  के  ज़ह्र  से भीगा मिला  हर  शख़्स मुझको ।

कुर्सियों  के  वास्ते   जब  गाँव- घर  आई   सियासत।।


मन्दिरो   मस्ज़िद  में  बैठे   खून  के   प्यासे  बहुत  हैं ।

क्या हुआ इस मुल्क में जो इस कदर आई सियासत ।।


आदमी  का  ख़्वाब   देखो   यूँ  ठगा  सा रह गया है । 

जाने कितने वादे  करके  फिर मुकर आई सियासत ।।


कर  लिया  मैंने  जो  सज़दा उस ख़ुदा  के  नाम  पर।

बात बस इतनी सी थी लेकिन उभर आई सियासत ।।


साजिशें  बुनने  लगी   वो  अन्नदाता  के  लिए  अब ।

इस तरह मतलब परस्ती  पर  उतर आई  सियासत ।।


     --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी



हालेदिल आपका पता है मुझे

 2122 1212 22

तज़रिबा  इक  नया  मिला  है  मुझे ।

बेवफ़ा  कह  के  वो  गया  है  मुझे ।।


तीरगी       बेहिसाब       है     यारो ।

रोशनी   का   नहीं   पता   है  मुझे ।।


ज़िक्र  करिए  न  अब   मुहब्बत का ।

हालेदिल  आपका  पता   है   मुझे ।।


कुछ  तो   मेरा  भी  फ़र्ज़  बनता  है ।

कह  दिया  उसने  जब ख़ुदा है मुझे ।।


मामला   इश्क़   का   ये  लगता  है ।

छुप  छुपाकर  वो   देखता  है  मुझे ।।


ज़ख्म जिसने दिया था कल मुझको ।

दे   रहा  आज   वो   दवा  है  मुझे ।।


दाग़   सूरत  के  मिट  भी  सकते  हैं । 

आइना   देख   ये    लगा   है  मुझे ।।


वो    न    समझेगा   बेबसी  मेरी ।

जिसने अब तक नहीं पढ़ा है मुझे ।।


ज़ीस्त  कायम  है  बस उमीदों  पर ।

उनसे  मिलने  का  आसरा  है  मुझे ।।


     - नवीन

सितमगर पर कोई पहरा नहीं था

 1222 1222 122


मेरी   तहरीर    पर    पर्दा    नहीं   था ।

मगर   इंसाफ   का   चर्चा   नहीं   था ।।


बिके  हैं  क्या  यहाँ  मुंसिफ भी  यारो ।

सितमगर  पर  कोई   पहरा  नहीं  था ।।


लगे  हैं   दाग़  उसके   हुस्न  पर  क्यों ।

जमीं  पर  चाँद जब  उतरा  नहीं  था ।।


निभा  कर   वो  गया  है आज  कस्में ।

जो अपनी  बात  पर  ठहरा नहीं  था ।।


किया  तक़सीम  उनको  वक्त  ने  ही ।

जहां  सूरज  कभी   ढलता  नहीं  था ।।


सिसकता   अन्नदाता   कह   रहा   है ।

गिरोगे  तुम   कभी   सोचा  नहीं  था ।।


चमन   की  बोलियां  लगने  लगी   हैं ।

तुम्हारा   फ़ैसला  अच्छा   नहीं   था ।।


जलेगा   हर   नया  वो  शह्र  अब  तो ।

अभी  तक  शह्र जो  जलता नहीं था।।


महल का ख़्वाब दिखलाया गया क्यों ।

मेरी किस्मत में जब लिक्खा नहीं था ।।


रहे   दहशत   में  सारी   मीडिया   यूँ ।

ये   हिंदुस्तान  का  लहज़ा  नहीं  था ।।


मिले  थे  मुफ़्त  में  राशन जो हमको ।

वो हम पर कर्ज़ था तोहफ़ा नहीं था ।।


       - नवीन मणि त्रिपाठी