तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

सोमवार, 29 जून 2015

पापा के नाम

पापा अब  मेरे आँसू  की तुम
और    परीक्षा    मत    लेना ।
सैलाब   उमड़ते   आँखों  में
अब  धैर्य की शिक्षा मत देना।


मैं  टूट रहा  हूँ  अब  प्रतिपल।
खो  रहा अनवरत हूँ सम्बल ।
मैं  शक्तिहीन दुःख में विलीन।
आभासित  जैसे   कर्म  हीन ।
ईश्वर  भी  हुआ  पराया  सा ।
मन  व्याकुल  है  बौराया सा ।



मैं  भीख   मांगता  प्राणों की
वह चाह  रहा  सब हर लेना ।।
पापा अब  मेरे आंसू की तुम
और   परीक्षा    मत    लेना ।।



आडम्बर   सा  ईश्वर  लगता ।
निष्तेज  हुई  जाती   क्षमता ।
जप  पूजन  सारे  व्यर्थ  लगे ।
संभावित   यहां  अनर्थ  लगे ।
सिसकियाँ रोक कर जीता हूँ।
आँसू  को  छुपकर  पीता हूँ ।



ईश्वर  ही   न्याय  विधाता  है
फिर  ऐसी  दीक्षा  मत  देना ।
पापा अब मेरे  आंसू की तुम
और   परिक्षा    मत   लेना ।।



है रोम  रोम ऋण भार  लिए ।
तुमसे  ही  जीवन सार  लिए ।
तुम  भाग्य  विधाता  हो  मेरे ।
इस  जन्म  के  दाता  हो  मेरे।
मैं शून्य विकल्पों के  संग  में ।
निश्चेतन   सा  प्रस्तर  रंग  में ।



नौका   आशा   की   डूब  रही
अब मुश्किल  बहुत इसे  खेना ।
पापा  अब  मेरे आंसू की  तुम
और     परीक्ष    मत    लेना।।



सब  दृश्य  पटल  पर घूम रहा ।
बचपन  का  दर्पण लौट  रहा ।
संघर्षो  की  वह  अमर  कथा।
देखी    मैंने    सम्पूर्ण    व्यथा।
वह आत्म शक्ति वह  संस्कार ।
है   मिला  मुझे  अद्भुद  दुलार ।



मैं बिछड़ सकूँ  न अब  तुमसे।
आशीष  मुझे  शत  शत देना ।
पापा अब  मेरे आंसू  की तुम
और   परीक्षा    मत    लेना ।।



दुर्भाग्य चरम पर बोल रहा ।
अंतस का साहस डोल रहा ।
इस अवनी में मैं बिखर रहा ।
असहाय बना मैं सिहर रहा ।
निः शब्द हुआ मैं सुलग रहा ।
हूँ मौन अंक से  विलख रहा ।



यह  तीक्ष्ण  वेदना   है  निर्मम
अभिशप्त  समीक्षा  मत  देना ।
पापा अब  मेरे आंसू  की  तुम
और    परीक्षा    मत     लेना ।।

         
                    नवीन

इन आसुओं के छलकने का न बन

ग़ज़ल

मेरे महबूब  तू   जख्मो  का तलबगार  ना  बन ।
इन आसुओं के छलकने का गुनहगार ना बन ।।

था   इन्तजार  मुझे   तेरी  उन   दुआओं  का ।
मेरे  जमीर के  हिस्से  का  खरीदार  ना  बन ।।

लूट  गया   मैं   हूँ   तेरे  हुश्न  के   मैखाने  में ।
मेरे  साकी  मेरे  नीलाम का अखबार ना बन।।

शहर  ए   दीवार  नाम   चस्पा  बेवफाई  का।
मेरी  हस्ती  को मिटाने का इस्तिहार ना बन ।।

मैं  खिजाओं  के  लिए  जिंदगी को लाया था ।
इस  मुकद्दर  के सवरने  का  तू बहार ना बन ।।

मेरी    तन्हाइयों   को    मेरे   पास  रहने   दो ।
फिर उम्मीदों के लिए दिल का बेक़रार न बन  ।।

गुनाह    कर    गयी   कबूल    खामोशी   तेरी ।
सब गवाहों  के बदलने  का  तू सरकार ना बन ।।

मेरे खतों  से  पढ़ गयी  वो  मेरे  घर  का  पता ।
मेरे  रकीब  मइयतों   का   मदतगार  ना  बन ।।
                
                 नवीन मणि त्रिपाठी

दो कदम तू भी चली

---***ग़ज़ल***---

दो  कदम  मैं भी चला दो  कदम  तू भी चली ।
वक्त   मेरा   भी  ढला   उम्र   तेरी  भी  ढली ।।

सुनी थी  दूर  तलक  तेरे  घुंघरू  की  खनक ।
रात  भर  मैं  भी  जला रात भर तू भी जली ।।

ये  ख्वाहिशें  न  मिटी   जिंदगी  यूँ  ही  लुटी ।
मैं  अमानत  में  पला तू  तिजारत  में  पली ।।

उस  ज़माने  का जहर दिखा गया  था असर ।
गया  था  मैं भी  छला  गयी थी तू भी  छली ।।

हम   इशारों   में  गए  तुम   नजाकत में गयीं ।
थोडा मैं भी न खुला थोड़ी तुम भी ना खुली ।।

मेरे गुलशन की महक  मेरे  ख्वाबो की चमक ।
जुबां  से  मैं  भी  टला  वफ़ा  से  तू भी टली ।।

                   नवीन मणि त्रिपाठी

अरुणा शानबाग को श्रद्धांजलि

अरुणा  शानबाग को श्रद्धांजलि

     ---****गीत****---

अरुणा    तुम  व्यथित  कहानी  हो ।
आँखों    से   बहता   पानी     हो ।।


मानव     सेवा   का   ब्रत    लेकर ।
उत्साहों   को   नव   मुखरित  कर।
पावन     संकल्पो     पर  चलकर ।
फिर कदम  बढे  जीवन  पथ  पर ।
उन    विश्वासो   के   आँचल   पर ।
नारी      मर्यादा     में   रह   कर ।।

इस    नृशंस   क्रूर    मानवता  की ,
तुम   मौन  साक्ष्य   की  बानी  हो ।।
अरुणा  तुम व्यथित  कहानी   हो।
आँखों    से    बहता   पानी   हो ।।

जब   काल   क्रूरता  लिए  नियत ।
कर   गया    तार    तार   इज्जत ।
वह   जंजीरो   को   जकड   गया।
स्वासों   का  चलना  उखड   गया।
वह  नर   पिसाच   आचरण  लिए।
प्राणों   की   हिंसा   वरण   किये ।।

 तुम   संस्कृति   के   पाखण्डों  को 
ज्वाला     बनकर   पहचानी   हो ।।
अरुणा  तुम  व्यथित  कहानी  हो ।
आँखों    से    बहता   पानी    हो ।।

वर्षों     तक    मृत्यु     वेदना   से ।
लड़ती    तुम    पूर्ण    चेतना   से ।
पीड़ा    की    ज्वालामुखी   फटी।
अवचेतन   में    यह    उम्र   कटी ।
निर्दोष    प्राण   का   बलि   होना ।
अपराध      मात्र     नारी    होना ।।

जो सुलग  सुलग कर  रोज   जली
वह    समिधा   बड़ी   पुरानी  हो ।।
अरुणा  तुम  व्यथित   कहानी  हो ।
आँखों    से   बहता    पानी   हो ।।

बस   सात   वर्ष   की    कैद   उसे ।
 इतना     ही   न्याय  तेरे    हिस्से ।।
सब   छोड़   गए    तुझको  अपने ।
यह    दर्द     सहा     कैसे     तुमने।
है   मुल्क    यहां    मुजरिम    तेरा।
तेरे     कातिल    से    मुह     फेरा ।

इस     संविधान   के    पन्नों    पर  
कालिख   से   पुती   निशानी   हो ।
अरुणा   तुम  व्यथित कहानी   हो।
आँखों    से    बहता    पानी   हो ।।

           -नवीन मणि त्रिपाठीटी

ग़ज़ल

-----***ग़ज़ल ***----

रफ्ता  रफ्ता  जिंदगी   की  आरजू   जाती  रही ।
दरमियाँ  तन्हाइयों  के  मौत  कुछ   गाती  रही ।।

मत   कहो   वो   बेवफा  थी  आसनाई   में   मिरे।
वो   खयालो  में  मेरे   यूँ  रात  भर  आती   रही।।

बारिशें मुमकिन  कहाँ  जो भीग जाते  हम  कभी ।
बनके  सावन  की  घटा  ता  उम्र  वो  छाती  रही ।।

रोज़ रुसवाई की  चर्चा  फ़िक्र का अपना शबाब।
मैं जलूँगी  ख़ाक होने  तक  कसम  खाती  रही ।।

फिर  समंदर  ने गुजारिश  की है लहरो  से  यहां।
साहिलों  की  तश्नगी  पर जुल्म क्यों ढाती रही ।।

माँ  यतीमों  की  तरह  मजबूर  हो  करती  बसर।
जो  दुआएं   मांग   कर  मेरे   लिए   लाती  रही ।।

जिसकी आँखों  में शरारत  वो  थी  महबूबा  मेरी ।
पर  जो नज़र खामोश थी  बीबी वही भाती रही  ।।

                           --नवीन मणि त्रिपाठी