तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

और वह गिनता रहा अपना खजाना इक तरफ

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भूँख से  मरता  रहा  सारा  ज़माना  इक  तरफ़ ।
और वह गिनता रहा अपना ख़ज़ाना इक तरफ़।।

बस्तियों  को  आग  से  जब भी बचाने मैं चला ।
जल गया मेरा मुकम्मल आशियाना इक तरफ ।।

कुछ नज़ाक़त कुछ मुहब्बत और कुछ रुस्वाइयाँ।
वह बनाता  ही  रहा दिल में ठिकाना इक तरफ ।।

ग्रन्थ फीके पड़ गए फीका  लगा  सारा  सुखन ।
हो  गया  मशहूर  जब तेरा फ़साना इक तरफ ।।

मिन्नतें  करते  रहे  हम  वस्ल की ख़ातिर मगर ।
और तुम करते रहे मुमक़िन बहाना इक तरफ़ ।।

हुस्न  का  जलवा  तेरा बेइन्तिहाँ  कायम  रहा ।
और वह अंदाज भी था क़ातिलाना इक तरफ़ ।।

बात  जब  मतलब  पे  आई  हो गए हैरान हम ।
रख दिया गिरवी कोई रिश्ता पुराना इक तरफ़ ।।

बेसबब  सावन  जला  भादों  जला बरसात में ।
रह गया मौसम अधूरा आशिकाना इक  तरफ ।।

जब से मेरी मुफ़लिसी के दौर से वाक़िफ़  हैं वो ।
खूब दिलपर लग रहा उनका निशाना इक तरफ़।।

हक़  पे  हमला  है  सियासत छीन लेगी रोटियां ।
चाल कोई चल  रहा  है शातिराना  इक  तरफ़ ।।

बे  असर  होने  लगे  हैं  आपके  जुमले   हुजूऱ ।
आदमी  भी  हो रहा है अब सयाना इक तरफ़ ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी 
         मौलिक अप्रकाशित

है इशारा तो पूछना क्या है

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सोचिये  मत   यहाँ  ख़ता  क्या  है ।
है  इशारा   तो   पूछना   क्या  है ।।

अब मुक़द्दर पे छोड़ दे  सब  कुछ ।
सामने    और   रास्ता   क्या   है ।।

वो   किसी  और  का  हो  जाएगा ।
बारहा   उसको  देखता  क्या   है ।।

गर है जाने की ज़िद तो जा तू  भी ।
अब  तेरा  हमसे  वास्ता  क्या  है ।।

इतना   मासूम   मत कहो उसको।
इल्म कुछ तो है आशना  क्या है ।।

उसकी फ़ितरत से ख़ूब वाकिब हूँ ।
ख़त  में उसने  मुझे  लिखा क्या है ।।

जब  दवा  ही  नहीं  है  पास  तेरे ।
दर्दो  ग़म  मेरा  पूछता   क्या   है ।।

आजकल   बेख़ुदी   में   रहते  हो ।
इश्क़  फिर से  कहीं हुआ क्या है ।।

आग  जब  आशिकी  लगा  बैठी ।
क्या  बता  दूँ  यहां  बचा क्या है ।।

रोज़   मजबूरियों    में   मरता   हूँ ।
मौत का और  फ़लसफ़ा क्या  है ।।

यूँ  बिखरती   हैं  ख़्वाहिशें   सारी ।
जिंदगी   एक   हादसा   क्या   है ।।

तेरी  बस्ती  में  रिन्द  हैं  दाखिल ।
तिश्नगी  का  तुझे   पता  क्या  है ।।

           नवीन मणि त्रिपाठी 
         मौलिक अप्रकाशित

मुहब्ब्त के इरादों को अभी नापाक मत कहिये

बड़ा मासूम आशिक है उसे चालाक  मत  कहिये ।
मुहब्बत के इरादों को अभी नापाक  मत  कहिये ।।

है उसने पैंतरा बदला नजर सहमी सी है  उसकी ।
अभी उल्फ़त के मंजर में उसे बेबाक मत कहिये ।।

उछाला  आपने  कीचड़  किसी  बेदाग़  दामन  पर ।
मुकम्मल बच गयी है आपकी यह नाक मत कहिये ।।

हमें  मालूम   है   लंगर   चलेगा   आपका  लेकिन ।
मिलेगी  पेट  भर  हमको  यहाँ खूराक मत कहिये ।।

जो अक्सर साहिलों पर डूबता देखा गया आलिम ।
उसे दरिया के पानी का अभी  तैराक  मत  कहिये ।।

यहां तो असलियत  मालूम है हर आदमी  की अब ।
पहन रक्खी जो भाड़े की उसे पोशाक मत कहिये ।।

मियाँ हम आपके जुमलों  को अब पहचान लेते  हैं ।
जमा ली आपने  हम पर भी कोई धाक मत कहिये ।।

अभी  तो  हौसले  जिन्दा  हैं साहब जंग के लायक ।
हमारे  इन  इरादों  को  अभी  से ख़ाक मत कहिये ।।

                          - नवीन मणि त्रिपाठी 
                           मौलिक अप्रकाशित

आपकी बात में अब रह गई वो धार कहाँ

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इक ज़माने से  गुलिस्ताँ  में  है बहार  कहाँ ।
जान करता है गुलों पर कोई निसार  कहाँ ।।

बारहा  पूछ   न  मुझसे   मेरी   कहानी   तू ।
अब  तुझे  मेरी  सदाक़त  पे ऐतबार कहाँ ।।

एक  मुद्दत से कज़ा का हूँ मुन्तजिर साहब ।
मौत पर मेरा अभी तक है इख़्तियार कहाँ।।

आपकी थी  ये बड़ी  भूल मान  जाते  हम ।
दिख रहे आप गुनाहों  पे  सोगवार  कहाँ ।।

ख़ाब जुमलों से दिखाया न कीजिये इतना ।
आपकी बात में अब रह गई वो धार कहाँ ।।

जीत  के जश्न में  मदहोश हो गए  जब से ।
आपके रंग का उतरा अभी  खुमार कहाँ ।।

लद गये दिन वो सियासत के इस तरह साहब ।
कारवाँ आपका निकला मग़र गुबार कहाँ ।।

दफ़्न  होती  हैं  यहाँ रोज  ख्वाहिशें  सारी ।
ढूढ़िये मत मेरी हसरत का है मज़ार कहाँ ।।

रेत  की  तर्ह  फिसलता  है वक्त  मुट्ठी से ।
अब मुहब्बत के लिए और इंतजार कहाँ ।।

लोग बेचैन हैं महफ़िल में आज फिर साकी ।
बिन तेरे बज़्म में आता यहाँ करार कहाँ ।।

अब तो क़ातिल की सजा पर हो फैसला कोई ।
जो  गिरफ्तार है जुल्फों में वो फरार कहाँ ।।

          -नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

कह दूं मैं दिल की बात अगर ऐतबार हो

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कुछ   दिन   से  देखता  हूँ   बहुत   बेकरार  हो।
कह  दूँ  मैं  दिल  की  बात  अगर  ऐतबार  हो ।।

परवाने    की  ख़ता  थी   मुहब्बत  चिराग  से ।
करिए  न  ऐसा  इश्क़  जहां  जां  निसार  हो ।।

रिश्तों   की   वो   इमारतें   ढहती   जरूर   हैं ।
बुनियाद   में   ही   गर  कहीं  आई  दरार   हो ।।

कीमत   खुली  हवा   की  जरा   उनसे   पूँछिये ।
जिनको  अभी  तलक  न  मयस्सर  बहार  हो ।।

नजरें   गड़ाए    बैठे   हैं   कुछ   भेड़िये   यहां ।
मुमकिन है आज अम्न का फिर से शिकार हो ।।

कुर्बानियां  वो  मांगते  मजहब   के  नाम  पर ।
इंसानियत  न  मुल्क  से  अब  तो  फरार हो ।।

तुझको  बता  दिया  तो  ज़रूरी  नहीं  है  ये ।
मेरे  गमों  के  दौर   का  अब  इश्तिहार  हो ।।

रखिये  जरा  ख़याल  भी  अपने  वजूद  का ।
जब  भी  जूनून  आपके  सर  पर  सवार हो ।।

बादल  बरस के चल दिए अब  देखिये हुजूऱ।
शायद  गुलों  के  हुस्न  में  आया निखार हो ।।

गुज़री   तमाम    उम्र    यहां   रौशनी   बगैर ।
अब   तीरगी   से  जंग  कोई  आर  पार  हो ।।

           -- नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

आग लगती है तो लग जाए बुझाते भी नहीं

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आँख मुद्दत से  मियाँ आप मिलाते भी नहीं ।
फासले  ऐसे  मुकर्रर  हैं कि जाते  भी नहीं ।।

मुल्क से बढ़ के सियासत की है कुर्सी यारो ।
बेच  आये  हैं  वो  ईमान   बताते  भी  नहीं ।।

रोज बारूद वो नफरत की  छिड़क जाते  हैं ।
आग लगती है तो लग जाए बुझातेभी नहीं ।।

डर गए आपकी मनमानियों से  हम  हाक़िम ।
जुल्म पर उँगलियाँ अब लोग उठाते भी नहीं ।।

आपको   खूब   मुबारक़  हों  फ़रेबी  जुमले ।
आप वादों को  तबीयत  से निभाते भी नहीं ।।

वोट  हमसे  भी  लिया और हमी  पर हमला ।
ज़ख़्म  संसद में हमारा वो  दिखाते भी नहीं ।।

सांप  मर  जायेगा  लाठी  भी सलामत होगी ।
राज़ अख़बार  यहाँ खुल  के बताते भी नहीं।।

कत्ल कर देते  हैं  प्रतिभा को सरे  आम  यहाँ।
और  अपराध  पे  वो   खेद  जताते  भी  नहीं।।

नौजवां भूँख से मरता है यहां पढ़  लिख  कर ।
रोजियां  आप  कभी  ढूढ़  के  लाते  भी  नहीं ।।

गिर न जाएँ कहीं अब आप भी नजरों से हुजूऱ।
हम  कसौटी  पे  खरा आपको  पाते भी नहीं ।।

         --नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

आना मेरे दयार में मुहलत अगर मिले

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कुछ  रंजो गम  के दौर से फुर्सत अगर मिले ।
आना   मेरे   दयार  में   मुहलत अगर  मिले ।।

यूँ   हैं  तमाम  अर्जियां   मेरी  खुदा के पास ।
गुज़रे  सुकूँ  से  वक्त भी  रहमत अगर मिले ।।

आई  जुबाँ  तलक  जो  ठहरती  चली  गयी ।
कह दूँ वो दिल की बात इजाज़त अगर मिले।।

सूराख    कर   तो   देगी   तेरे आसमान   में ।
औरत को थोड़ी आज हिफाज़त अगर मिले ।।

अब  दीन  है  बचा  न  वो  ईमान  ही  बचा ।
गिर जाएगा  वो  शख्स हुकूमत अगर मिले ।।

कर  लूं  यकीन  फख्र  से  तेरी  ज़ुबान  पर ।
मुझको  तेरा  ज़मीर  सलामत  अगर  मिले ।।

ऐ   जिंदगी   मैं  तुझसे   अभी  रूबरू  नहीं ।
तुझको गले लगा लूँ मैं  मोहलत अगर मिलें।।

हँसना किसी के दर्द पे अब  सीख  लेंगे हम ।
कुछ दिन हुजूऱ आपकी सुहबत अगर मिले ।।

दिल को  सनम का हुस्न गिरफ़्तार कर गया ।
हो  जायेगा  रिहा  वो  ज़मानत  अगर  मिले ।।

पढ़  लेना  आप  खुद  ही वफाओं की दास्ताँ ।
लिक्खा  हुआ  हमारा  कोई  ख़त  अगर मिले ।।

हर  आदमी   बिकाऊ   है   बाज़ार   में   यहाँ ।
बस  शर्त   एक  है  उसे  कीमत  अगर  मिले ।।

कुर्बत - अति निकट का सम्बन्ध 

                            ---नवीन मणि त्रिपाठी 
                              मौलिक अप्रकाशित

हैं मिलते लोग अब कितने सयाने

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तेरे  आने  से  आये  दिन   सुहाने ।
हैं  लौटे  फिर  वही  गुजरे ज़माने ।।

भरा अब तक नही है दिल हमारा ।
चले  आया  करो  करके   बहाने ।।

हमारे   फख्र   की   ये  इन्तिहा   है ।
वो  आये  आज हमको आजमाने ।।

बड़ी शिद्दत से तुझको पढ़ रहा था ।
हवाएं   फिर   लगीं   पन्ने   उड़ाने ।।

शिकायत दर्ज की जब दिल में हमने ।
अदाएँ   तब   लगीं   पर्दा   हटाने ।।

नज़र   से   लूट   लेना   चाहते   हैं ।
हैं मिलते लोग अब कितने सयाने ।।

न चर्चा कर यहाँ अपनी वफ़ा का ।
अभी  तक  घाव  जिन्दा हैं पुराने ।।

गवाही   आँख  उनकी   दे  रही   है ।
वो  आए  हैं  फ़क़त  रस्में  निभाने ।।

जरा सी सच बयानी  हो  गयी  तो  ।
ज़माना  आ गया  मुझको झुकाने ।।

नसीहत  दे  रही  है  मुफ़लिसी भी ।
लगे  हैं  यार  सब   आँखे   चुराने ।।

        ---नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

मगर गद्दारियां तेरी हमेशा याद रक्खेंगे

बड़ी  उम्मीद  थी  उनसे  वतन  को  शाद  रक्खेंगे ।
खबर क्या थी चमन में वो सितम आबाद रक्खेंगे ।।

है  पापी   पेट   से   रिश्ता  पकौड़े  बेच  लेंगे   हम।
मगर    गद्दारियाँ    तेरी    हमेशा    याद   रक्खेंगे ।।

हमारी  पीठ  पर  ख़ंजर चलाकर आप  तो  साहब ।
नये जुमले  से  नफ़रत  की  नई  बुनियाद  रक्खेंगे ।।

विधेयक  शाहबानो  सा  दिये  हैं फख्र से  तोहफा ।
लगाकर  आग  वो  कायम  यहां  उन्माद  रक्खेंगे ।।

इलक्शन आ रहा है दाल गल जाए  न  फिर उनकी।
तरीका   हम   भी   अपने  वास्ते  ईज़ाद   रक्खेंगे ।।

बहुत अब हो चुका हिन्दू मुसलमां का  यहाँ नाटक ।
तुम्हारी  ख्वाहिशों  को  हम  तो  मुर्दाबाद  रक्खेंगे ।।

मिटा  देने  की  जुर्रत  आपने  बेशक़  किया साहब ।
सवर्णो   की   ख़ुशी  को  लोग  जिंदाबाद  रक्खेंगे ।।

ये  हिंदुस्तान  है  प्यारे पता है असलियत  सबकी ।
कहाँ  पर  वोट  की  घटती  हुई  तादाद  रक्खेंगे ।।

अभी  तो  वक्त  है  कर  लें  तमन्ना जुल्म की पूरी ।
नहीं  हम  आपसे  कोई ।कभी  फ़रियाद रक्खेंगे ।।

मिली सत्ता थी इस खातिर मिटेगा जातिवादी विष ।
भला  जनता  से  कैसे  आप अब  संवाद  रक्खेंगे ।।

निजी  हाथों  में  भारत  का  मुकद्दर  बेच डाला है ।
बचाकर  रोजियां  कितनी  यहां  उस्ताद  रक्खेंगे ।।

           नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

ज़रा सी वफ़ा पर वो दिल मांगते हैं

वहां   हमने   देखा   जहां  भी   गये   हैं ।
खुदा   के   भी   यारो   हजारों   पते  हैं ।।

यहाँ   मैकदों   में   मिला   है   उसे   रब ।
कहा  रिन्द  मस्ज़िद  में  क्या   ढूढते  हैं ।।

तिज़ारत वो करने लगे जिस्म की अब ।
न   जाने  मुहब्बत  में  क्या  चाहते हैं ।।

ज़माने  का  बदला  चलन  देखिये  तो ।
जरा  सी वफ़ा  पर  वो  दिल मांगते हैं ।।

जिन्हें  कुछ खबर ही नहीं दर्द  क्या  है ।
वही   ज़ख़्म पर  तफ़्सरा  कर चुके हैं ।।

अगर   वास्ता   ही   नहीं  आपका  तो।
मेरा  हाले  दिल  आप क्यूँ  पूछते  हैं ।।

जो  ठुकरा  दिए  थे  मेरी  बन्दगी  को ।
मेरे  घर  का  वो  भी पता खोजते  हैं ।।

हमें  हिज्र से खास  तोहफ़ा  मिला है ।
के  हम  रात  भर  याद  में  जागते हैं ।।

मिली  मंजिलें हैं उन्हीं को यहां  पर ।
समर्पण  लिए जो  डगर  खोजते  हैं ।।

उन्हें  फ़िक्र  में  डाल  देगी  तरक्की  ।
जो  गड्ढे  मेरी  राह   में   खोदते  हैं ।।

मुहब्बत पे जिनको भरोसा  नहीं  है ।
सितम ढा के अक्सर वही रूठते हैं ।।

        नवीन मणि त्रिपाठी
        मौलिक अप्रकाशित

I

रात भर चाँद सितारों से ख़फ़ा हो जैसे

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कुछ धुंआ घर के दरीचों से उठा हो जैसे ।
फिर कोई शख्स रकीबों से जला हो जैसे ।।

बादलों में वो छुपाता ही रहा दामन को ।
रात भर चाँद सितारों से ख़फ़ा हो जैसे ।।

जुल्म मजबूरियों के नाम लिखा जायेगा ।।
बन के सुकरात कोई ज़ह्र पिया हो जैसे ।।

खैरियत पूँछ के होठों पे तबस्सुम आना ।
हाल ए दिल मेरा तुझे खूब पता हो जैसे ।।

बस जफाएँ ही जफाएँ हैं तेरी महफ़िल में ।
ज़ख़्म सीने का तेरे और हरा हो जैसे ।।

इस  तरह घूर  के  देखा  है उन्होंने हमको।
उनकी  नजरों  में  हमारी  ही  ख़ता हो जैसे ।।

राज़ से पर्दा उठाती हैं ये आँखे तेरी ।
मुन्तज़िर हो के तू मुद्दत से खड़ा हो जैसे ।।

खुशबू ए ख़ास बताती है पता फिर तेरा ।
तेरे गुलशन से निकलती ये सबा हो जैसे ।।

लोग पोरस की तरह हार गए हैं शायद ।।
वो सिकन्दर सा ज़माने से लड़ा हो जैसे ।।

एक मुद्दत से मियां होश में मिलते ही नहीं ।
आपको हुस्न करीने  से  डसा हो जैसे ।।

शोर बरपा है बहुत तिश्नगी के आलम में ।
आज मैख़ाने में हंगामा हुआ हो जैसे ।।
           --नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

जब उभरा है अक्स तेरा पैमाने में

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भीड़  बहुत   है  अब   तेरे   मैख़ाने   में ।
लग जाते  हैं दाग़ सँभल कर  जाने  में ।।

महफ़िल में चर्चा है उसकी फ़ितरत पर ।
दर्द  लिखा है क्यों उसने  अफ़साने  में ।।

इस  बस्ती में  मुझको तन्हा मत  छोडो ।
लुट  जाते   हैं  लोग   यहाँ   वीराने   में ।।

वह भी अब रहता है  खोया  खोया  सा ।
कुछ  तो   देखा   है  उसने   दीवाने  में ।।

 होश   गवांकर   लौटा  हूँ   मैख़ानों   से।
जब  उभरा  है  अक्स  तेरा   पैमाने  में ।।

वक्त   मुदर्रिस  बनकर   ही   समझायेगा । 
ज़ाया  मत  कर  जोश  उसे  समझाने  में ।।

जेब  और   सत्ता   से   है  उनका   रिश्ता । 
कौन   सुनेगा   बात   तुम्हारी   थाने   में ।।

राज़  खोलती   मक्तूलों  की  आँखें  सब ।
देर  लगी   है  राहत   को   पहुँचाने   में ।।

महँगा  है   बाज़ार  मुहब्बत   का   यारो ।
आशिक  बिकते इश्क़ यहां  फरमाने  में ।।

कैसे  कह  दूँ   है  दुनिया  महफूज़   तेरी ।
मिलते   हैं  बारूद  बहुत  तहखाने   में ।।

मत छोड़ो कल पर कामों का बोझ कभी ।
आ  जाती  है  मौत  यहाँ  अनजाने में ।।

                --नवीन मणि त्रिपाठी 
              मौलिक अप्रकाशित

वस्ल पर मेरे तस्व्वुर फिर जवाँ हो जायेंगे

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कुछ नए अहसास दिल के गुलसिताँ  हो जाएंगे ।
वस्ल पर  मेरे  तसव्वुर  फिर  जवाँ  हो  जायेंगे ।।

मुस्कुरा  कर   रूठ  जाना  क़ातिलाना  वार  था ।
क्या  खबर  थी आप  भी  दर्दे  निहां हो जायेंगे ।।

मत  करो  चर्चा  अभी  वादा  निभाने  की यहाँ ।
वो  अदा  के  साथ  बेशक़  बेजुबाँ  हो  जायेंगे ।।

ये  परिंदे  एक दिन उड़  जाएंगे सब नछोड़कर ।
बाग़  में  खाली   बहुत  से आशियाँ  हो जायेंगे ।।

इश्क़  पर  पर्दा   न  कीजै  रोकिये  मत चाहतें ।
एक दिन जज्बात तो  खुलकर बयां हो जायेंगे ।।

रोज़ मौजें काट जातीं हैं यहां साहिल को अब ।
ये   थपेड़े   जिंदगी   की   दास्ताँ   हो   जाएंगे ।।

उम्र की दहलीज़ पर खिलने लगी  कोई  कली ।
देखना   उसके   हजारों  पासवां   हो   जाएंगे ।।

ऐ  परिंदे  गर   उड़ा   तू  दायरे  को  तोड़   कर ।
दूर  तुझसे  ये  ज़मीन  ओ  आसमां  हो जाएंगे ।।

उसकी फ़ितरत फिर तलाशेगी नया इक हमसफ़र।
डर  है  गायब  आपके  नामो  निशां  हो  जाएंगे ।।

दिल  में  घर  मैंने  बनाया  था  मगर  सोचा न था ।
उनकी  ख्वाहिश में  यहां इतने  मकाँ हो जाएंगे ।।

कुछ  तो  रिंदों  का  रहा  है  जाम  से भी वास्ता ।
बेसबब  क्यों  रिन्द उन पर  मिह्रबां  हो  जायेंगे ।। 

             --नवीन मणि त्रिपाठी 
      (मौलिक औरओ बी ओ में प्रकाशित ग़ज़ल )

आ गयी है सर पे आफ़त सोचिये

लुट   गयी  कैसे   रियासत   सोचिये ।
हर  तरफ़  होती  फ़ज़ीहत   सोचिये ।।

कुछ यकीं कर चुन लिया था आपको ।
क्यों  हुई   इतनी  अदावत   सोचिये ।।

नोट  बंदी   पर   बहुत   हल्ला  रहा ।
अब कमीशन में  तिज़ारत  सोचिये ।।

उम्र  भर   पढ़कर   पकौड़ा  बेचना ।
दे   गए   कैसी   नसीहत   सोचिये ।।

गैर मज़हब को मिटा  दें  मुल्क  से ।
आपकी  बढ़ती  हिमाक़त  सोचिये ।

दाम  पर बिकने  लगी   है  मीडिया ।
आ गयी है सच पे आफत सोचिये ।।

आज  गंगा फिर  यहां  रोती  मिली ।
आप भी अपनी लियाक़त सोचिये ।।

जातिवादी   हो  गयी है सोच  जब ।
वोट की गिरती  सियासत सोचिये ।।

खा रहे दर दर की  ठोकर नौजवां ।
बन गयी दुश्मन हुकूमत  सोचिये ।।

           नवीन मणि त्रिपाठी

बेसबब जां निसार मत करना

इस  चमन में  गुबार  मत   करना ।
अम्न  को  तार  तार  मत  करना ।।

 हो  रही   हर  तरफ़ नई  साज़िश ।
बेसबब  जां  निसार  मत  करना ।।

कर्ज कुछ तो वतन का है तुम पर।
खून  को  दागदार  मत  करना ।।

ख़्वाहिशें  गर  हैं आज़माने  की ।
हौसलों  से  फ़रार  मत करना ।।

लूट  लेता   है  मुस्कुरा  कर  वो ।
दिल का सौदा उधार मत करना ।।

कैसे  कह  दें बहक  नहीं  सकते।
तुम  अभी  ऐतबार   मत  करना ।।

उम्र    गुजरी     इसे    बनाने   में ।
दोस्ती    में   दरार   मत    करना ।।

माँग कर  फिर  मेरी  मुहब्बत को ।
प्यार  को  शर्म  सार मत  करना ।।

क़ामयाबी     अगर    ज़रूरी   है ।
ख़ाब को इश्तिहार  मत  करना ।।

मैं तुम्हारी  नियत  से  वाक़िफ़  हूँ ।
कोई  ताज़ा  शिकार  मत  करना ।।

फासले     बेहिसाब    बढ़ते     हैं ।
दौलतें   बेशुमार    मत    करना ।।

            मौलिक अप्रकाशित 
           नवीन मणि त्रिपाठी

होता कहीं तलाक़ हलाला करे कोई

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इन्साफ   का   हिसाब  लगाया   करे   कोई।
होता   कहीं   तलाक़  हलाला   करे   कोई।।

उनको तो अपने वोट से मतलब था दोस्तों ।
जिन्दा  रखे  कोई  भी या  मारा  करे  कोई।।

मजहब को नोच नोच के बाबा वो खा गया ।
बगुला  भगत  के  भेष  में धोका करे कोई ।।

लूटी  गई  हैं  ख़ूब  गरीबों  की  झोलियाँ ।
हम  से  न दूर  और  निवाला  करे   कोई ।।

सत्ता  में  बैठ  कर  वो बहुत माल खा रहा ।
यह  बात भी कहीं तो  उछाला  करे  कोई ।।

आ  जाइये   हुजूर  जरा  अब  ज़मीन  पर ।
कब तक ज़मीं से चाँद निहारा करे कोई ।।

ख़ुशियाँ  हज़ार  लौट  के  आ जायेंगीं ज़रूर ।
थोड़ा  सा  बस्तियों  में  उजाला करे   कोई ।।

मंदिर में सर झुकाएं या मस्ज़िद में सज़दा हो ।
लेकिन ख़ुदा को दिल में भी ढूढा करे कोई ।।

इतना भी मत सहो कि सितम दिलही तोड़ दे ।
तुमको   यतीम   जान  सताया   करे   कोई ।।

इजहारे  इश्क़  आप  नही  कीजिये  जनाब ।
इस  उम्र   में  न  साथ   गुजारा  करे  कोई ।।

वो  मैकदे  को   पी  के  लियाकत   दिखाएंगे ।
बस  मुफ्त  में  ही  जाम  पिलाया करे कोई ।।

बूढा   हुआ   है  बाप  ज़रा  शर्म   तो  करो ।
कब तक तुम्हारा  बोझ  उठाया  करे  कोई ।।

        नवीन मणि त्रिपाठी

हमें अंजामे रुसवाई अगर इतना पता होता

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यहां  इंसानियत   से   ग़र  सभी  का  राबिता   होता ।
यक़ीनन मुल्क में अमनो सुकूं का  दबदबा होता ।।

मुहब्बत   के  उसूलों   को  अगर  उसने  पढ़ा  होता ।
न    कोई    तिश्नगी   होती   न  कोई    हादसा  होता ।।

बहुत   बेचैन  दरिया   की  उसे  पहचान  है  शायद ।
वग़रना  वह   समंदर  तो   नदी  को  ढूढ़ता  होता ।।

तुम्हारी  शर्त   को   हम  मान    लेते   बेसबब  यारों।
हमें   अंज़ामे   रुसवाई  अगर  इतना  पता  होता ।।

सियासत  दां से गर मिलता कहीं अमनो सुकूँ कोई।
तो  उनका भी  भला होता  हमारा  भी भला होता ।।

अमीरों  की  हिमायत में  न  होते  आप तो शायद ।
नहीं मुफ़लिस की दीवारों पे बुलडोजर चला होता ।।

कदम को चूम लेती  क़ामयाबी एक  दिन  बेशक़ ।
बचा  तेरे   इरादों   में  अगर  कुछ  हौसला  होता ।।

निभे   हैं  कब  वहां   रिश्ते   बिखरते  टूटते  पाये ।
जहाँ नज़दीकियों  के बीच में कुछ फ़ासला होता ।।

असर करतीं मेरी मजबूरियां जो आपके दिल तक।
तो मेरा  भी  यक़ीनन  आप  से  ही  वास्ता  होता ।।

परिंदा उड़ के आ जाता  तुम्हारे  बाग  में  लेकिन ।
कफ़स से भी निकलने का कोई तो  रास्ता होता ।।

जरा सा मुश्किलों पर गौर  कर  लेना  जरूरी  है ।
कोई  इंसान  मर्जी  से  नहीं  अब  बेवफ़ा  होता ।।

        ---नवीन मणि त्रिपाठी 
        मौलिक अप्रकाशित

कोई दुपट्टा उड़ा रहा था

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वो  शख्स  क्यूँ  मुस्कुरा  रहा  था ।
जो  मुद्दतों   से   ख़फ़ा   रहा  था ।।

वो  चुपके   चुपके  नये   हुनर  से ।
नया    निशाना   लगा   रहा  था ।।

अदाएँ   क़ातिल   निगाह    पैनी।
जो  तीर  दिल  पर चला रहा था ।।

तबाह   करने   को   मेरी   हस्ती ।
कोई    इरादा    बना    रहा   था ।।

मुग़ालता    है    उसे     यकीनन ।
अजब   फ़साना   सुना  रहा  था ।।

बदलते  चेहरे   का  रंग   कुछ  तो ।
तुम्हारा   मक़सद  बता  रहा  था ।।

ज़माना  गुज़रा   है  उसको   देखे।
जो ख्वाब अब तक सता रहा था ।

बला   की  सूरत   सियाह  जुल्फें ।
वो  रुख  से  पर्दा  हटा  रहा  था ।।

बिखेर  कर  लब  पे  यूँ  तबस्सुम ।
तमाम  ग़म  तू   छुपा   रहा  था ।।

हवा  की   ख़ुशबू   बता  रही  थी ।
कोई    दुपट्टा   उड़ा   रहा   था ।।

         --नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशित

देख कर हुस्न को इक नज़र जायेंगे

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आप  जब   आईने   में   सँवर   जाएंगे ।
फिर तसव्वुर में हम  चाँद  पर  जाएंगे ।।

गर   इरादा    हमारा    सलामत   रहा ।
तो   सितारे  जमीं   पर  उतर  जायेंगे ।।

आज महफ़िल में वो आएंगे  बेनकाब ।
देखकर  हुस्न  को  इक  नज़र  जाएंगे ।।

आज  मौसम  हसीं ढल  गयी  शाम है ।
तोड़कर आप दिल अब  किधर जाएंगे ।।

कीजिये   बेसबब  और   इनकार   मत ।
हौसले    और   मेरे    निखर    जाएंगे ।।

जानकर क्या  करेंगे वो अब हाले दिल ।
खुल  गई  गर  जुबां  तो सिहर जाएँगे ।।

उँगलियाँ मत उठाओ अभी  इश्क़ पर ।
ठोकरें खा के  हम भी  सुधर  जाएंगे ।।

अब  निभाने की बातें बहुत हो  चुकीं ।
मुझको  मालूम  है  वो  मुकर  जाएंगे ।।

ये  अना   बेरुखी   देखकर   लोग  तो ।
दिल लगाने से  पहले  ही डर  जाएंगे ।।

हिज्र   से   फर्क   इतना  पड़ेगा  यहाँ ।
ख्वाब थे  कुछ बुने  जो  बिखर जायेंगे ।।

मैकदे  मत  बुला  दिल  पे काबू  कहाँ ।
हम जो आये  तो हद से  गुज़र जाएंगे ।।

        ---नवीन मणि त्रिपाठी

मौत तो एक दिन ही आनी है

2122 1212 22
तेरी  खुशबू   तो   जाफ़रानी   है ।
सांस थम थम के आनी जानी है ।।

होश  में  ही  नहीं  कदम  उनके ।
बेख़ुदी   में   ढली   जवानी   है ।।

आज  साकी  तो  मिह्रबां  होगा ।
तिश्नगी   आपकी   पुरानी    है ।।

भूल  पाएंगे आप   कब   मुझको ।
आपके   पास  कुछ  निशानी  है ।।

कुछ असर हो गया मुहब्बत  का ।
उसका लहज़ा तो पानी  पानी है ।।

जब से देखी  है हुस्न की फितरत ।
इश्क  में   आ   गयी  रवानी  है ।।

पाँव  उनके  जमीं   से  गायब   हैं ।
आजकल    बात   आसमानी  है ।।

ढक  रहे  लोग  भूख की  इज़्ज़त ।
आज  घर घर  की ये  कहानी  है ।।

खूब    खुदगर्ज    है   ज़माना   ये ।
बेरुखी  उम्र   भर    निभानी   है ।।

मत जिओ इस तरह से घुट घुट कर।
मौत तो  एक  दिन  ही  आनी  है  ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

मैंने पत्थर जवाब में देखा

2122 1212 22

गुल जो  सूखा किताब  में   देखा ।
आपको  फिर  से ख़्वाब  में देखा ।।

बारहा  चाँद   की   नज़ाक़त  को ।
झाँक  कर  वह  नकाब  में देखा ।।

मैकदे   में   गया  हूँ  जब  भी  मैं ।
तेरा   चेहरा   शराब    में    देखा ।।

वस्ल  जब  भी लगा मुनासिब तो।
हड्डियां   कुछ   कबाब   में   देखा ।।

तोड़   पाता   उसे   भला   कैसे ।
हुस्न  उसका   गुलाब  में   देखा ।।

डाल  कर   फूल  राह  में  सबके ।
मैंने   पत्थर   जबाब   में   देखा ।।

लुट   गईं   रोटियां   गरीबों   की ।
हादसा    इंकलाब    में    देखा ।।

तेरे  आने  का  जिक्र   होते   ही ।
रंग   आता   शबाब   में   देखा ।।

कौन कहता  है  तुम नशे  में  हो ।
मैंने   तुमको  हिसाब  में  देखा ।।

हैं मुहब्बत  बड़ी या  फिर दौलत ।
आपके    इंतखाब     में    देखा ।।

     -- नवीन मणि त्रिपाठी

बीच में सारा ज़माना आ गया

2122 2122 212 
जख्म  देकर  मुस्कुराना  आ   गया ।
आपको तो दिल जलाना आ गया ।।

क़ाफिरों  की  ख़्वाहिशें  तो  देखिये ।
मस्ज़िदों  में  सर झुकाना  आ गया ।।

दे गयी बस इल्म इतना मुफ़लिसी ।
दोस्तों  को  आज़माना  आ  गया ।।

एक  आवारा  सा  बादल  देखकर ।
आज मौसम आशिक़ाना आ गया ।।

क्या  उन्हें   तन्हाइयां  डसने  लगीं ।
बा अदब  वादा निभाना आ गया ।।

नज़्म जब लिखने चली मेरी क़लम ।
याद  फिर  तेरा फ़साना आ  गया ।।

उठ  गया  पर्दा  जो  मेरे  इश्क़ से ।
बीच  में  सारा  ज़माना  आ  गया ।।

जब  मयस्सर हो  गईं रातें  सियाह ।
जुगनुओं को जगमगाना आ गया ।।

मुस्कुराता चाँद जब निकला कोई ।
गीत  मुझको  गुनगुनाना  आ गया ।।

हो  गए घायल  हजारों  दिल  यहाँ ।
वार  उसको  क़ातिलाना आ गया ।।

तिश्नगी  देती  है  कुछ  मजबूरियां ।
अब उन्हें चिलमन हटाना आ गया ।।

              --नवीन मणि त्रिपाठी

याद आएगा बहुत रूठ के जाने वाला

2122 1122 1122 22

दे   गया   दर्द   कोई   साथ   निभाने   वाला ।
याद  आएगा   बहुत  रूठ  के  जाने   वाला ।।

जाने  कैसा  है  हुनर   ज़ख्म  नया   देता  है ।
खूब  शातिर  है   कोई   तीर  चलाने   वाला ।।

उम्र  पे   ढल  ही   गयी  मैकशी  की  बेताबी ।
अब तो मिलता ही नहीं  पीने  पिलाने वाला ।।

अब  मुहब्बत  पे यकीं  कौन  करेग़ा  साहब । 
यार   मिलता  है  यहां  भूँख  मिटाने  वाला ।।

उसके चेहरे की  ये खामोश अदा  कहती  है ।
कोई   तूफ़ान   बहुत  जोर  से  आने  वाला ।।

दूर तक सोच के सहता हूँ सितम मैं उसका ।
हार  जाएगा  कभी  जुल्म  को  ढाने  वाला ।।

हर कदम पर है यहां मौत  का  जलवा यारों ।
ढूढ़   लेता   है   मुझे   रोज   बचाने   वाला ।।

दुश्मनी गर हो  सलामत तो सुकूँ  मिल जाए ।
लूट  जाता  है  मुझे   हाथ   मिलाने  वाला ।।

कुछ  तबस्सुम  से  तबाही  का इरादा लेकर ।
रोज  मिलता  है मिरे दिल को जलाने वाला ।।

       --नवीन मणि त्रिपाठी