तीखी कलम से

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

तुम बेखुदी में बस ज़फ़ा पढ़ते गए

‌2212  2212 2212 
दीवानगी   में  हम  वफ़ा   लिखते  गए । 
तुम बेखुदी  में  बस  जफ़ा  पढ़ते  गए ।।

पूछा   किया  वो  आईने   से   रात  भर ।
आवारगी  में   हुस्न   क्यूँ  ढलते   गए ।।

आयी तबस्सुम जब मेरी दहलीज पर ।
देखा  चिराग़े  अश्क  भी  जलते  गए ।।

नादानियों   में   फासलो   से  बेखबर ।
बस जिंदगी भर  हाथ  को  मलते गए ।।

तालीम  ले  बैठा था जब  इन्साफ  की ।
क्यूँ   मुज़रिमो  के  फैसले  रुकते गए ।।

जिसकी    बेबाकी   के  चर्चे  थे   बहुत ।
तहज़ीब  को  अक्सर  वही  छलते  गए ।।

लफ्जों  की  रंगत  दर्द  से  फीकी  लगी ।
पर्दे   में  आए   नाग  जब   डसते   गए ।।

नाज़ो नफ़स के साथ था महफ़िल गया ।
शिकवे  गिले  सब रात भर सुनते गए ।।

आई   हुई   है  तिश्नगी   जिस  रोज  से ।
बहकी  नज़र  की  धार  में  बहते  गए ।।

काटे  गए  जंगल थे  जिसकी  खौफ  में ।
वो  भेड़िये   फिर  गाँव  में  पलते  गए ।।

आबाद  हो   जाती   मुकम्मल   तीरगी ।
बुझती  शमा   के   हौसले  बढ़ते   गए ।।

         नवीन मणि त्रिपाठी

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