तीखी कलम से

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

अजीब मंजर है बेखुदी का अजीब मेरी सहर रही है

121  22  121 22 121 22 121 22

न वक्त का कुछ पता ठिकाना 
न  रात  मेरी   गुज़र  रही   है ।
अजीब  मंजर  है  बेखुदी का ,
अजीब   मेरी  सहर   रही  है ।।

ग़ज़ल के मिसरों में  गुनगुना के ,
जो दर्द लब  से  बयां  हुआ था ।
हवा   चली  जो  खिलाफ  मेरे ,
जुबाँ वो  खुद से मुकर  रही है ।।

है  जख़्म अबतक  हरा हरा ये ,
तेरी  नज़र  का सलाम क्या लूँ ।
तेरी  अदा  हो   तुझे  मुबारक ,
नज़र   से   मेरे  उतर  रही  है ।।

मिरे   सुकूँ  को  तबाह  करके ,
गुरूर  इतना  तुझे  हुआ  क्यूँ ।
तुझे  पता  है   तेरी  हिमाकत ,
सवाल बनकर  अखर रही है ।।

न वस्ल को तुम भुला सकी हो, 
न  हिज्र  को मैं भुला ही पाया ।
यहाँ  रकीबों  की  वादियों   में ,
तेरी  ही  खुशबू बिखर रही है ।।

हमारे   दिल  में  हमी  से  पर्दा ,
गुनाह  कुछ  तो  छुपा गई  हो ।
है  दिल का  कोई नया  मसीहा , 
तू जिसके दम पे निखर रही है ।।

किसी  तबस्सुम  की  दास्ताँ  पे ,
फ़ना  हुआ  है गुमान  जिसका ।
है  कत्ल  खाने  में जश्न  इसका,
कज़ा की महफ़िल गुजर रही है ।।

हुजूर    चिलमन   से    देखते  हैं ,
गजब  का  मौसम है कातिलाना ।
ये इश्क भी क्या अजब का फन है 
नज़र   नज़र  पे   ठहर  रही   है ।।

तमाम  रातो  के   सिलसिलों   में ,
खतों  से  अक्सर  पयाम  आया ।
जो  चोट मुझको मिली थी तुझसे 
वो  फ़िक्र  बनकर  उभर रही है ।।

             ----- नवीन मणि त्रिपाठी

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