221 2121 1221 212
ठहरी मिली है ज़िंदगी उनके गिलास में ।
मिलते कहाँ हैं लोग भी होशो हवास में ।।
देकर तमाम टैक्स नदारद है नौकरी ।
अमला लगा रखा है उन्होंने विकास में ।।
सरकार सियासत में निकम्मी कही गई ।
रहते गरीब लोग बहुत भूँख प्यास में ।।
बेकारियों के दौर से गुजरा हूँ इस कदर ।
घोड़ा ही ढूढता रहा ताउम्र घास में ।।
यूँ ही तमाम कर लगे हैं जिंदगी पे आज ।
रहना हुआ मुहाल है अपने निवास में ।।
कितने नकाब डाल के मिलने लगे हैं लोग ।
चेहरा नहीं पढ़ा गया अब तक उजास में ।।
दौलत की ख़ासियत को जरा देखिए हुजूर ।
उलझे हजार हुस्न यहां खास खास में ।।
खुशबू सी आ रही है हवाओं से बेहिसाब ।
शायद बहार होगी कहीं आस पास में ।।
जबसे खुला है मैकदा उनकी गली के पास ।
निकले शरीफ़ लोग भी महंगे लिबास में ।।
कड़वी ज़ुबान है तो उसे भी सलाम कर ।
कीड़ें पड़े तमाम हैं अक्सर मिठास में ।।
कैसा हवस का दौर है कैसे पढ़े हैं लोग ।
होते हैं फेल इश्क़ की पहली कलास में ।।
यूँ ही मिली नज़र थी इरादा भी नेक था ।
मुज़रिम बना गया है कोई फिर कयास में।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
ठहरी मिली है ज़िंदगी उनके गिलास में ।
मिलते कहाँ हैं लोग भी होशो हवास में ।।
देकर तमाम टैक्स नदारद है नौकरी ।
अमला लगा रखा है उन्होंने विकास में ।।
सरकार सियासत में निकम्मी कही गई ।
रहते गरीब लोग बहुत भूँख प्यास में ।।
बेकारियों के दौर से गुजरा हूँ इस कदर ।
घोड़ा ही ढूढता रहा ताउम्र घास में ।।
यूँ ही तमाम कर लगे हैं जिंदगी पे आज ।
रहना हुआ मुहाल है अपने निवास में ।।
कितने नकाब डाल के मिलने लगे हैं लोग ।
चेहरा नहीं पढ़ा गया अब तक उजास में ।।
दौलत की ख़ासियत को जरा देखिए हुजूर ।
उलझे हजार हुस्न यहां खास खास में ।।
खुशबू सी आ रही है हवाओं से बेहिसाब ।
शायद बहार होगी कहीं आस पास में ।।
जबसे खुला है मैकदा उनकी गली के पास ।
निकले शरीफ़ लोग भी महंगे लिबास में ।।
कड़वी ज़ुबान है तो उसे भी सलाम कर ।
कीड़ें पड़े तमाम हैं अक्सर मिठास में ।।
कैसा हवस का दौर है कैसे पढ़े हैं लोग ।
होते हैं फेल इश्क़ की पहली कलास में ।।
यूँ ही मिली नज़र थी इरादा भी नेक था ।
मुज़रिम बना गया है कोई फिर कयास में।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें