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मेरी पहचान खारिज़ कर रहा है ।
जो मुद्दत से मुझे पहचानता है ।।
खुशामद का हुनर बख़्शा है रब ने ।
खुशामद से वो आगे बढ़ रहा है ।।
जतन कितना करोगे आप साहब ।
ये भ्रष्टाचार अब तक फल रहा है ।।
यकीं होता नही जिसको खुदा पर ।
वही इंसां खुदा से माँगता है ।।
उसे ही डस रहें हैं सांप अक्सर ।
जो सापों को घरों में पालता है ।।
गया मगरिब में देखो आज सूरज ।
पता वह चाँद का भी ढूढता है ।।
मदारी के लिए जो है कमाऊ।
वही बन्दर हमेशा नाचता है ।।
गरीबी में हुआ जीना है मुश्किल ।
कोई बाबा को बेटी बेचता है ।।
नई सूरत को अक्सर ढूढते हैं।
यही इंसानियत का फलसफा है ।।
है उनका दूर ही रहना मुनासिब ।
कहाँ उन से हमारा वास्ता है ।।
न जाने क्या हुआ है आदमी को ।
पराये माल को ही देखता है ।।
--- नावीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
मेरी पहचान खारिज़ कर रहा है ।
जो मुद्दत से मुझे पहचानता है ।।
खुशामद का हुनर बख़्शा है रब ने ।
खुशामद से वो आगे बढ़ रहा है ।।
जतन कितना करोगे आप साहब ।
ये भ्रष्टाचार अब तक फल रहा है ।।
यकीं होता नही जिसको खुदा पर ।
वही इंसां खुदा से माँगता है ।।
उसे ही डस रहें हैं सांप अक्सर ।
जो सापों को घरों में पालता है ।।
गया मगरिब में देखो आज सूरज ।
पता वह चाँद का भी ढूढता है ।।
मदारी के लिए जो है कमाऊ।
वही बन्दर हमेशा नाचता है ।।
गरीबी में हुआ जीना है मुश्किल ।
कोई बाबा को बेटी बेचता है ।।
नई सूरत को अक्सर ढूढते हैं।
यही इंसानियत का फलसफा है ।।
है उनका दूर ही रहना मुनासिब ।
कहाँ उन से हमारा वास्ता है ।।
न जाने क्या हुआ है आदमी को ।
पराये माल को ही देखता है ।।
--- नावीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
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