-----**** ग़ज़ल ***------
121 22 121 22 121 22 121 22
झुकी झुकी सी नज़र में देखा ,
कोई फ़साना लिखा हुआ है ।।
ये सुर्ख चेहरा बता रहा है
के दिल का मौसम जुदा जुदा है ।।
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फ़िजा की सूरत बदल रही है ,
अजीब मंजर है आशिकी का ।।
हैं मुन्तजिर ये सियाह रातें ,
वो चांद कितना ख़फ़ा खफ़ा है ।।
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तमाम शिकवे गिले हुए हैं ,
तमाम बातें बयाँ हुई हैं ।
जो फासले बन गए थे तुझसे ,
क्यों रफ्ता रफ्ता बढ़ा रहा है ।।
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सबा भी सरसर बनी हुई है ,
सुकूँ के लम्हों ने साथ छोड़ा ।
ये तीरगी का अजीब आलम,
चिराग घर का बुझा बुझा है ।।
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जरूर कुछ तो मलाल होगा ,
हमारी चाहत के हौसलों से ।
ऐ हुस्न वाले बता तो मेरा ,
गुनाह जो यूँ कटा कटा है ।।
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जो आग दिल में लगा गए थे ,
वो आग अब तक बुझी नहीं है ।
सुलग रही है ये दिल की बस्ती ,
दयार में अब धुंआ धुंआ है ।।
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यहाँ रकीबों की महफिलों में ,
तेरी अदाएं मचल रही हैं ।
तेरे उसूलों की सरजमीं पर ,
वफ़ा का झंडा झुका झुका है ।।
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नकाब इतना उठा के मत चल
हैं रिंद मुद्दत से तिश्नगी में ।
ये जाम छलका न आंख से अब
ये मैकदा क्यूँ खुला खुला है ।।
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न नींद आई न चैन तुझको
न होश में क्यूँ मिले अभी तक ।
ये तेरा लहजा बता रहा है
ये इश्क तेरा नया नया है ।।
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कोई तो रहबर है तेरे दिल का ,
किसी की नजरें हुई हैं कातिल ।
जो नूर करता था बज्म रोशन ,
वो नूर कैसा लुटा लुटा है ।।
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ओ जाने वाले जरा ठहर जा
इधर भी अपनी निगाह कर दे ।
जो जख्म मुझको मिला था तुझसे
वो जख्म अब तक हरा हरा है ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
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झुकी झुकी सी नज़र में देखा ,
कोई फ़साना लिखा हुआ है ।।
ये सुर्ख चेहरा बता रहा है
के दिल का मौसम जुदा जुदा है ।।
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फ़िजा की सूरत बदल रही है ,
अजीब मंजर है आशिकी का ।।
हैं मुन्तजिर ये सियाह रातें ,
वो चांद कितना ख़फ़ा खफ़ा है ।।
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तमाम शिकवे गिले हुए हैं ,
तमाम बातें बयाँ हुई हैं ।
जो फासले बन गए थे तुझसे ,
क्यों रफ्ता रफ्ता बढ़ा रहा है ।।
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सबा भी सरसर बनी हुई है ,
सुकूँ के लम्हों ने साथ छोड़ा ।
ये तीरगी का अजीब आलम,
चिराग घर का बुझा बुझा है ।।
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जरूर कुछ तो मलाल होगा ,
हमारी चाहत के हौसलों से ।
ऐ हुस्न वाले बता तो मेरा ,
गुनाह जो यूँ कटा कटा है ।।
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जो आग दिल में लगा गए थे ,
वो आग अब तक बुझी नहीं है ।
सुलग रही है ये दिल की बस्ती ,
दयार में अब धुंआ धुंआ है ।।
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यहाँ रकीबों की महफिलों में ,
तेरी अदाएं मचल रही हैं ।
तेरे उसूलों की सरजमीं पर ,
वफ़ा का झंडा झुका झुका है ।।
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नकाब इतना उठा के मत चल
हैं रिंद मुद्दत से तिश्नगी में ।
ये जाम छलका न आंख से अब
ये मैकदा क्यूँ खुला खुला है ।।
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न नींद आई न चैन तुझको
न होश में क्यूँ मिले अभी तक ।
ये तेरा लहजा बता रहा है
ये इश्क तेरा नया नया है ।।
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कोई तो रहबर है तेरे दिल का ,
किसी की नजरें हुई हैं कातिल ।
जो नूर करता था बज्म रोशन ,
वो नूर कैसा लुटा लुटा है ।।
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ओ जाने वाले जरा ठहर जा
इधर भी अपनी निगाह कर दे ।
जो जख्म मुझको मिला था तुझसे
वो जख्म अब तक हरा हरा है ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
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