--------------------ग़ज़ल -------------
2122 2122 2122 212(1)
फिक्र बनकर तिश्नगी देखा सँवर जाती है रोज़ ।
उस दरीचे तक मेरी सहमी नज़र जाती है रोज़ ।।
बेकरारी साथ लेकर मुन्तज़िर होकर खड़ी ।
एक आहट की खबर पर वह निखर जाती है रोज ।।
सिम्त शायद है ग़लत उलझे हुए हालात हैं ।
है मुसीबत बदगुमां घर में ठहर जाती है रोज़ ।।
जिंदगी के फ़लसफ़े में है बहुत आवारगी ।
ठोकरें खाने की ख़ातिर दर बदर जाती है रोज़ ।।
यह उमीदों का परिंदा भी उड़े तो क्या उड़े ।
बेरुखी तो बेसबब पर ही क़तर जाती है रोज़ ।।
कुछ दरिंदों की तबाही , जुर्म जिंदाबाद है ।
आत्मा तो सुर्खियां पढ़कर सिहर जाती है रोज़ ।।
बन गया चेहरा कोई उसके लिए अखबार अब ।
पढ़ शिकन की दास्तां दिल तक खबर जाती है रोज़ ।।
दे रहा है वक्त मुझको इस तरह से तज्रिबा ।
आँधियों के साथ में आफ़त गुज़र जाती है रोज़ ।।
वस्ल की ख़्वाहिश का मंजर है सवालों से घिरा ।
देखिए साहिल को छूनें यह लहर जाती है रोज़ ।।
क्या कोई रिश्ता है उसका पूछते हैं अब सभी ।
क्यूँ इसी कूचे से वो शामो सहर जाती है रोज़ ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
मैलिक अप्रकाशित
कॉपी राइट
2122 2122 2122 212(1)
फिक्र बनकर तिश्नगी देखा सँवर जाती है रोज़ ।
उस दरीचे तक मेरी सहमी नज़र जाती है रोज़ ।।
बेकरारी साथ लेकर मुन्तज़िर होकर खड़ी ।
एक आहट की खबर पर वह निखर जाती है रोज ।।
सिम्त शायद है ग़लत उलझे हुए हालात हैं ।
है मुसीबत बदगुमां घर में ठहर जाती है रोज़ ।।
जिंदगी के फ़लसफ़े में है बहुत आवारगी ।
ठोकरें खाने की ख़ातिर दर बदर जाती है रोज़ ।।
यह उमीदों का परिंदा भी उड़े तो क्या उड़े ।
बेरुखी तो बेसबब पर ही क़तर जाती है रोज़ ।।
कुछ दरिंदों की तबाही , जुर्म जिंदाबाद है ।
आत्मा तो सुर्खियां पढ़कर सिहर जाती है रोज़ ।।
बन गया चेहरा कोई उसके लिए अखबार अब ।
पढ़ शिकन की दास्तां दिल तक खबर जाती है रोज़ ।।
दे रहा है वक्त मुझको इस तरह से तज्रिबा ।
आँधियों के साथ में आफ़त गुज़र जाती है रोज़ ।।
वस्ल की ख़्वाहिश का मंजर है सवालों से घिरा ।
देखिए साहिल को छूनें यह लहर जाती है रोज़ ।।
क्या कोई रिश्ता है उसका पूछते हैं अब सभी ।
क्यूँ इसी कूचे से वो शामो सहर जाती है रोज़ ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
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