तीखी कलम से

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

सोमवार, 26 जून 2017

ग़ज़ल

*1212 1212 1212 1212*
सितम   की  आरजू   लिए   है   वक्त  आजमा  रहा ।
जो   हो   सका   नहीं   मेरा   वो    रास्ता  बता रहा ।।

अजीब  दास्ताँ  है  ये न्  कह   सका  न  लिख  सका।
ये  हाथ  मिल  गए   मगर  वो   फासला   बना   रहा ।।

है  हसरतों  की  क्या  ख़ता  उन्हें  जो  ये सजा मिली ।
मैं   कातिलों   का  रात   भर   गुनाह   देखता   रहा ।।

बड़ी   उदास   शब   दिखी  न   माहताब  था  कहीं ।
वो  कहकशां  सहर   तलक   हमें   ही   घूरता  रहा ।।

जो  सिलसिला चला  नही  उसी का जिक्र फिर सही ।
धुँआ  उठा   बहुत   मगर  न  आग   का   पता  रहा ।।

शजर  शजर  में   गुफ्तगूं  है बगवां  को   क्या  खबर ।
बगावतों   का    दौर   है   वो    कारवां   चला   रहा ।।

खुदा   समझ   सका   न   वो  अलग   हुईं   इबादतें ।
है   मजहबी    दयार   ये   खुदा   जुदा   जुदा  रहा ।।

नज़र  को   फेर   हमनशीं   गुजर  गया   करीब  से ।।
बदल  गए  मिज़ाज   सब  वफ़ा  का  सर झुका रहा ।

हवा  ने  रुख  बदल  दिया  तो  आग  भी  सुलग  गई ।
वतन  का  खैर  ख्वाह  ही  वतन  को  अब जला रहा ।।

हजार   घर   उजड़   गए   तमाम   लाश   जल  गयीं ।
सियासतों   के  नाम   पर  वो   मसअला  खड़ा  रहा ।।

               नवीन मणि त्रिपाठी 
             मौलिक अप्रकाशित 
                 कॉपी राइट

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