2122 2122 212
कर गई अपनी पहल मेरी ग़ज़ल।
है सुनी उसने भी कल मेरी ग़ज़ल।।
हर्फ़ चेहरे पर उभर कर आ गए ।
इश्क पर रखती दखल मेरी ग़ज़ल।।
सुर्खरूं होती गई वह बे हिसाब ।
होठ पर जाती मचल मेरी ग़ज़ल ।।
तोड़ ले कोई भी गुल को शाख से ।
है कहाँ इतनी सरल मेरी ग़ज़ल ।।
यूँ नज़र मत आइये मुझको सनम । देखकर जाती बदल मेरी ग़ज़ल ।।
मत कहो उसको फरेबी तुम कभी ।
बात पर रहती अटल मेरी ग़ज़ल ।।
शेर की गहराइयों में डूब कर ।
फिर गई थोड़ी सँभल मेरी ग़ज़ल।।
उसकी सूरत देख कर जब भी लिखी ।
फिर खिली जैसे कंवल मेरी ग़ज़ल।।
कुछ उसूलों के तले यह दब गई ।
पी रही अब तक गरल मेरी ग़ज़ल ।।
बह्र हो या काफ़िया या वज़्न हो ।
बाद मुद्दत के सफल मेरी गज़ल ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
कर गई अपनी पहल मेरी ग़ज़ल।
है सुनी उसने भी कल मेरी ग़ज़ल।।
हर्फ़ चेहरे पर उभर कर आ गए ।
इश्क पर रखती दखल मेरी ग़ज़ल।।
सुर्खरूं होती गई वह बे हिसाब ।
होठ पर जाती मचल मेरी ग़ज़ल ।।
तोड़ ले कोई भी गुल को शाख से ।
है कहाँ इतनी सरल मेरी ग़ज़ल ।।
यूँ नज़र मत आइये मुझको सनम । देखकर जाती बदल मेरी ग़ज़ल ।।
मत कहो उसको फरेबी तुम कभी ।
बात पर रहती अटल मेरी ग़ज़ल ।।
शेर की गहराइयों में डूब कर ।
फिर गई थोड़ी सँभल मेरी ग़ज़ल।।
उसकी सूरत देख कर जब भी लिखी ।
फिर खिली जैसे कंवल मेरी ग़ज़ल।।
कुछ उसूलों के तले यह दब गई ।
पी रही अब तक गरल मेरी ग़ज़ल ।।
बह्र हो या काफ़िया या वज़्न हो ।
बाद मुद्दत के सफल मेरी गज़ल ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
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