तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

बुधवार, 23 नवंबर 2011

वतन की आबरू का ये तमाशा और कब तक है

बेटियों   को जलाने  का यहाँ  पर  दौर कब तक  है |
वतन  की  आबरू  का ये  तमाशा  और कब तक है ||

साजिसों  का चलन है देश को  बेचेंगे  वो इक दिन |
तुम्हारे   डूबते   ईमान  में  अब  जोर  कब  तक  है ||

रोया  है  यहाँ   जंगल  भी  जलते   आशियाने   पर |
भरोसा  कुछ नहीं अब तो यहाँ पर मोर कब तक है ||

 टूटती     साँस    में   नाब्जों   को    ढूढ़ते  क्यूँ   हो |
जिन्दगी बुलबुला है जिन्दगी की डोर कब तक है ||

 रात   गुजरेगी    भला   कैसे    इस    तन्हाई    में |
जिगर  ने  वक्त  से  पूछा बताओ भोर कब तक है ||
हर  तरफ  खौफ   है   बरबादियों   के   मंजर  का |
उड़ा क्र नीद शहरों की  छिपा ये चोर कब तक है ||

बादलों  से  भी  क्या  शिकवा  करूं  उम्मीदों  का |
सूखती आँख से बरसात ये घनघोर  कब  तक है ||

किसी आतंक  के  साये  में  बेचीं  जिन्दगी  उसने |
यहाँ कुनबों के कत्ले आम का ये शोर कब तक है ||

वतन को बेचने वालों वतन  को   खूब  बेचो  तुम |
सोच लेना  ज़माने  में  तुम्हारा  ठौर कब तक है ||
                                                                                -नवीन




 

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