छेड़ी जो ग़ज़ल रात उसकी याद आ गयी |
पलकों में टिप टिपाती सी बरसात आ गयी ||
खुद को छिपा लिया था ज़माने इस कदर |
परदे हज़ार फेंक के जज्बात आ गयी ||
मैंने सुना था जख्म को भरता है वक्त भी |
हर वक्त से जख्मों में नयी जान आ गयी ||
गैरों के क़त्ल होने की चर्चाएँ आम हैं |
अपनों के क़त्ल होने की फरियाद आ गयी ||
उन कांपते होठों ने जो पूछा था मेरा हाल |
खामोसियाँ लबों पे सरेआम आ गयी ||
अश्कों ने भिगोया है किसी कब्र की चादर |
नम होती हवाओं से ये आवाज आ गयी ||
-नवीन
बहुत ही खुबसूरत छेड़ी ग़ज़ल......
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