तीखी कलम से

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

भौजी फागुन मा

फागुन पर  भोजपुरी में एक ग़ज़ल 

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गुलाल  लै  के  बुलावेली  भौजी  फागुन  मा ।
हजार  रंग  दिखावेली   भौजी   फागुन  मा ।।

छनी   है    भांग    वसारे   बनी   है    ठंढाई ।
पिला के सबका  नचावेली भौजी फागुन मा ।।

जवान   छोरे  इहाँ   दुम  दबा   के   भागेलें  ।
नवा  पलान  बनावेली  भौजी  फागुन   मा ।।

रगड़  गइल है  कोई  गाल  पे  करियवा  रंग ।
बड़ा हो  हल्ला  मचावेली भौजी  फागुन मा ।।

तुहार  भैया तौ  रह  गइले  आज  तक  पप्पू ।
दबा  के आंख  बतावेली भौजी  फागुन  मा ।।

लगा  के  कजरा  चकल्लस  करै   दुआरे  पर ।
खिला के गुझिया लुभावेली भौजी फागुन मा ।।

कहाँ  पे  रंग  कहाँ   पेंट   और   कहां   कनई ।
बड़ा   हिसाब   लगावेली भौजी   फागुन   माँ ।।

बचल  रहल  उ  जवन  भइया  जी के  गुब्बारा ।
गुलबिया   रंग  भरावेली  भउजी  फागुन   मा ।।

तमाम   बाबा   तो  लागेला  लहुरा   देवर  अब।
गजब  के  जुल्फी  उड़ावेली  भौजी फागुन मा ।।

जुगनिया  बनि के उ नाचेली  जब  श  रा रा रा ।
बुला  के  धक्का  लगावेली  भौजी  फागुन  में ।।

        --- नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

होली की पिचकारी से दोहे के तीखे रंग

मेरी  पिचकारी से दोहे के तीखे रंग -

सत्ता  से  मिल  बांट  कर, जो  घोटाला  होय ।
बाल न बांका कर सके,जग में उसका कोय।।

हाथी  सइकिल  पर लगे ,चोरी  के  आरोप ।
हिस्सा  पाकर  चुप  हुए ,हटा  रहे  वे तोप ।।

घोटालों के खेल में ,अलग अलग  है रंग ।
माल्या  मोदी  घूमते ,जनता  सारी  दंग ।।

नमो  नमो  के राज  में ,जनता  हुई  अधीर।
यहां पकौड़ा तल रहा ,भारत की तकदीर ।।

पढ़े  लिखे  का  युग  गया , मागेंगे वे भीख ।
चाय   पकौड़ा  बेचिए ,देता   कोई   सीख ।।

रोजगार  के  नाम  पर ,गहरा  है  सन्ताप ।
पाँच साल मिलता रहा,केवल लाली पाप ।।

आरक्षण के नर्क से , कौन  करे  उद्धार ।
जातिवाद की लीक से,हटी नहीं सरकार ।।

मौत  खड़ी   है  सामने ,भूखा  है  इंसान ।
मन्दिर मस्जिद का जहर, घोल रहे शैतान ।।

टूट गयी  उम्मीद  सब  ,टूट गया विश्वास ।
जी एस टी वो भी भरें ,करते जो उपवास ।।

सौ  शहरों   को   ढूढता ,बना  कौन   स्मार्ट ।
सब कुछ वैसा ही मिला, बदला केवल चार्ट।।

लिया  स्वदेशी   राग से ,कुर्सी  का  सम्मान ।
चला रहे जो धूम से,निजी करण अभियान ।।

           

          -नवीन मणि त्रिपाठी

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

छू के साहिल को लहर जाती है

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छू के साहिल को  लहर जाती है ।
रेत नम  अश्क़  से कर  जाती है ।।

सोचता हूँ कि बयाँ कर दूं  कुछ ।
बात दिल में ही ठहर  जाती है ।।

याद  आने लगे हो जब से  तुम ।
बेखुदी  हद से गुजर  जाती  है ।।

कुछ तो खुशबू फिजां में लाएगी ।
जो  सबा आपके  घर जाती  है ।।
   
कितनी ज़ालिम है तेरी पाबन्दी ।
यह जुबाँ  रोज  क़तर जाती है ।।

हुस्न  को  देख  लिया है जब से ।
तिश्नगी  और   सवर  जाती   है।।

ढूढिये   आप   जरा   शिद्दत  से ।
दिल तलक कोई डगर जाती है ।।

कर गया  जख्म की  बातें  कोई ।
रूह सुनकर ही  सिहर  जाती है ।।

जब भी फिरती हैं निगाहें उसकी ।
कोई   तकदीर   सुधर  जाती  है ।।

आशिकों  तक  वहाँ  जाने कैसे ।
तेरे  आने  की  ख़बर  जाती  है ।।

देख कर आपका लहजा साहिब ।
चोट  मेरी  भी  उभर  जाती  है ।।

जब  निकलता  हूँ  तेरे  कूचे  से ।
कोई सूरत तो  निखर  जाती  है ।।

कोशिशें कर चुका हूँ लाखों  पर ।
ये नज़र फिर भी उधर जाती है ।।

बे  अदब   हो  गयी है  याद  तेरीे ।
बे सबब दिल में  उतर  जाती है ।।

जेब का हाल समझ  कर अक्सर ।
आशिकी  हम से मुकर  जाती है ।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी

बड़ी चर्चा तुम्हारी हो रही है

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किसी  पर  जां निसारी हो  रही  है ।
नदी अश्कों  से  खारी हो  रही  है ।।

सुकूँ  की अब फरारी  हो  रही   है ।
अजब  सी  बेकरारी  हो  रही  है ।।

तुम्हारे   हुस्न   पर   है   दाँव  सारा ।
यहाँ  दुनियां  जुआरी   हो  रही  है ।।

शिकस्ता अज़्म है कुछ आपका भी ।
सजाये  मौत   जारी   हो   रही   है ।।

जली है फिर कोई  बस्ती वतन  की ।
फजीहत  फिर  हमारी  हो  रही  है ।।

यहां  तहजीब का आलम  न  पूछो।
वफ़ा की  ख़ाकसारी  हो  रही  है ।।

कहा था मत पियो इतना जियादह ।
बड़ी  लम्बी  खुमारी   हो  रही   है ।।

जरा  पर्दे  में  रहना सीख  लो  तुम ।
नज़र  कोई  शिकारी  हो  रही  है ।।

कतारें लग  चुकीं  रिन्दों  की देखो।
अदा   से  आबकारी  हो  रही  है ।।

कटेगी किस तरह ये जिंदगी अब ।
दुआओं  की  भिखारी हो रही है ।।

सुना है महफ़िलो में आजकल तो ।
बड़ी  चर्चा  तुम्हारी   हो  रही  है ।।


         --नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशित

जब आप ही ये आग लगाएं तो क्या करें



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उल्फत में अपना दिल न जलाएं तो क्या करें।
जब आप ही ये आग लगाएं  तो  क्या  करें ।।

मजबूरियों के नाम शिकस्ता है अज़्म भी ।
तीरे नज़र वो  दिल में चुभाएँ तो क्या करें ।।

हम तो वफ़ा के नाम  पे  कुर्बान  हो  गये ।
वो बेवफा ही कह के बुलाएं तो क्या करें ।।

मर्जी खुदा की  थी  जो हमें  इश्क़  हो  गया ।
कुछ लोग अब सवाल उठाएँ  तो क्या  करें ।।

जुल्मो सितम तो आपका  काफूर हो  रहा ।
अब मुस्कुरा के भूल न जाएं तो क्या करें ।।

रक्खा है रह्म मौला ने सबके  लिए  बहुत ।
दैरो  हरम से  दूर  वो  जाएं  तो क्या करें ।।

क्या क्या नहीं किया है मुहब्बत के  वास्ते ।
नजरें वो हम से रोज  चुराएं  तो क्या करें ।।

जाहिद   नहीं  वो  जाम  हमारे  नसीब  में ।
कीमत वो सुबहो शाम बढ़ाएं तो क्या करें ।।

जब उसने  मैकदे  में हमें  फिर  बुला  लिया ।
अब तिश्नगी भी हम न  मिटाएं तो  क्या करें ।।

कुछ तो  हमें  भी  इल्म  जरूरी है  आपसे ।
चहरे से जब नकाब  हटाएँ  तो  क्या  करें ।।

अब कोशिशों पे आपका इल्जाम बन्द हो ।
चलने लगीं खिलाफ हवाएं तो क्या  करें।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

समझा हूँ तेरे हुस्न के जेरो जबर को मैं

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ढूढा  हूँ  मुश्किलों  से  सलामत गुहर को  मैं ।
समझा  हूँ  तेरे  हुस्न  के  ज़ेरो ज़बर को  मैं ।।

यूँ  ही  नहीं  हूं  आपके  मैं   दरमियाँ   खड़ा ।
नापा  हूँ अपने  पाँव  से  पूरे  सफर  को  मैं ।।

मारा  वही  गया  जो भला रात  दिन  किया ।
देखा   हूँ   तेरे  गाँव  में  कटते शजर को  मैं ।।

मत  पूछिए  कि   आप   मेरे  क्या  नहीं  हुए ।
पाला  हूँ  बड़े  नाज़  से अहले जिगर को मैं ।।

शायद   तेरे    वजूद  की  कोई  खबर  मिले ।
पढ़ता रहा हूँ आज तलक हर खबर  को मैं ।।

कुछ तो करम हो आपका उल्फत के नामपर
रक्खूँगाआप पर भी कहाँ तक नज़र को मैं।।

इस  फ़ासले  के दौर में  ऐसा न  हो  कभी ।
तेरे   पनाह  गाह   में  तरसूं  बसर  को  मैं ।।

देखा है जब  से आपको होशो  हवाश  गुम ।
कितना नशा शराब में परखा असर को मैं ।।

मैं   तो  अना  ए  हुस्न   पे   हैरान  हूँ  बहुत ।
अब तक उठा सका नहीं परदा क़मर का मैं।।

गुजरी    तमाम    उम्र   यहां    इंतजार   में ।
बस  देखता ही रह गया शामो सहर को मैं ।।

            नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

फँसते गए जो लोग मुहब्बत के जाल में

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डूबा   मिला   है  आज   वो   गहरे   खयाल   में ।
जिसको  सुकून  मिलता  है  उलझे   सवाल  में ।।

बरबादियों    का   जश्न   मनाते   रहे    वो   खूब ।
फंसते  गए   जो  लोग   मुहब्बत   के  जाल   में ।।

मिलना था हिज्र मिल गया शिकवा खुदा से क्या ।
रहते  मियां  हैं  आप भी  अब  क्यों  मलाल  में ।।

करता   है   ऐश   कोई    बड़े    धूम   धाम  से ।
डाका  पड़ा  है  आज  यहां   फिर   रिसाल  में ।।

शेयर   गिरा  धड़ाम   से   सदमा   लगा   बहुत।
जिसने  लिया  था  माल  को  बढ़ते  उछाल में ।।

पोंछा था अश्क़  आप का उस दिन के बाद से ।
खुशबू    बसी  है  आपकी   मेरी   रुमाल  में ।।

कुछ दिन से था सनम के जो पीछे पड़ा हुआ ।
शायद  वो   रंग   आज  लगाएगा  गाल  में ।।

माना  मुहब्बतों  का   है  ये   जश्न   आपका ।
जुड़ता  नहीं  है  दिल  यहां  गहरे  गुलाल में ।।

        -- नवीन मणि त्रिपाठी 
        मौलिक अप्रकाशित

बाप को बदनामियों की तुहमतें खाने लगी हैं

एक पुरानी ग़ज़ल 2014 में वैलेंटाइन डे पर लिखी थी । शेयर कर रहा हूँ ।

---*** ग़ज़ल***---
2122 2122 2122 2122

बाप  को बदनामियों की ,तुहमतें  खाने लगी हैं ।
फिर  मुहब्बत  आम की खबरें  बहुत आने लगी हैं  ।।

है लबो पर  यह   तकाजा , हम  फ़ना  हो  जाएंगे अब ।
 तितलियां फूलों से मिलने ,बे अदब  जाने  लगी  हैं।।

हो  गया   मौसम  गुलाबी  और  पहरे  सख्त हैं ये ।
देखिये फिर भी बहारें आज इतराने लगी हैं ।

जिस्म की बाज़ार में  वो इश्क़ गिरवीं रख गईं  सब ।
जो  मुहब्बत  के  तराने,  फिर  यहां  गाने  लगी  हैं ।।

सोचकर चलना मुसाफिर,इश्क़ की फितरत समझ ले।
चाहतें ये आग  जैसी  घर   को  जलवाने  लगीं  हैं ।।

जब  कभी  तहजीब  को  जश्नों  ने  तोड़ा है यहां पर ।
फिर दबी हर ख्वाहिशें भी जुल्म बन ढाने लगीं हैं ।


                                      -  नवीन

बहती हुई खिलाफ हवावों को देखिए

221 2121 1221 212 
पत्थर  से  चोट  खाए  निशानों  को   देखिए ।
बहती   हुई   ख़िलाफ़  हवाओं  को  देखिए ।।

आबाद   हैं  वो  आज  हवाला  के  माल पर ।
कश्मीर  के  गुलाम  निज़ामों  को   देखिए ।।

टूटेगा  ख्वाब  आपका "गज़वा ए हिन्द" का ।
वक्ते  क़ज़ा  पे  आप   गुनाहों  को  देखिये ।।

गर देखने का शौक है अपने वतन को आज ।
शरहद  पे  ज़ह्र  बोते  इमामों  को   देखिए ।।

कुछ  फायदे  के  वास्ते  दहशत पनप रही ।
सत्ता  में  बैठे  आप  दलालों  को देखिए ।।

मन्दिर न बनसके न वो मस्जिद ही बन सके ।
दूकान  बन्द  मत हो  खजानों  को देखिए ।।

मजहब  नहीं  बुरा  है  सियासत  बुरी यहां ।
अमनो  सुकूँ  के  खास  इरादों को देखिए ।।

दर  दर  की  खाक  छान रहे नौजवान सब ।
हैं  पेट  के  सवाल , सवालों  को   देखिए ।।

भरपूर   टैक्स  आप   लगाते  रहें    मगर ।
थाली में क्या बचा है निवालों को देखिए ।।

मां भारती का ताज है मुस्लिम सपूत भी ।
चश्मा उतार कर के वफाओं को देखिए ।।

             नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

किसने कहा है दर्द का मरहम नहीं है वो।

2211 2211 2211  22

यूँ  जिंदगी  के  वास्ते  कुछ  कम नहीं  है  वो ।
किसने  कहा  है  दर्द  का  मरहम नहीं है वो।।

सूरज  जला  दे  शान  से  ऐसा भी  नहीं  है ।
फूलों  पे  बिखरती  हुई  शबनम नहीं है वो ।।

बेचेगा पकौड़ा जो पढ़  लिख  के  चमन  में ।
हिन्दोस्तां के मान  का परचम  नहीं है वो ।।

बेखौफ  ही  लड़ता  है  गरीबी  के सितम से ।
शायद किसी अखबार में कालम नहीं है वो ।।

मेहनत  की  कमाई  में  लगा  खून  पसीना ।
अब लूटिए मत आपकी इनकम नहीं है वो ।।

तकदीर  बना लेगा वो अपने ही  करम  से ।
इंसान  की  औलाद  है  बेदम  नहीं  है वो ।।

मजबूरियों  के  नाम  पे  खामोश  बहुत  है ।
मेरे किसी भी काम से बरहम  नहीं  है  वो ।।

कोटे की सियासत से जरा बाज  अभी  आ ।
भारत की बुलन्दी का तो आगम नहीं है वो ।।

दो चार के  बदले  में  हजारों  को  मिटा  दे ।
खुलकर क़ज़ा दे सामने सक्षम नहीं  है वो ।।

नापाक है  दुश्मन तो सजा  दीजिये भरपूर ।
कायर है अभी जंग का रुस्तम नहीं  है वो।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

वो दिल मे खिलता रहता है

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मुद्दत    से    उलझा   रहता   है ।
यह  मन  कब  तन्हा  रहता  है ।।

मिलता है अक्सर  वो  हंसकर ।
जो   गम   को  पीता  रहता  है ।।

जो   गुलाब  भेजा  था  तुमने ।
वो  दिल  मे  खिलता रहता है ।।

कब   आओगे   मेरे   घर  तुम ।
खत में  वो  लिखता रहता  है ।।

उससे   उसका   हाल   न  पूछो ।
वह   दिन   भर  रोता   रहता   है ।।

कुछ  तो  जलता  है  तेरे  घर ।
रोज़   धुंआ  उठता  रहता  है ।।

शायद  उसको  इश्क  हुआ  हो ।
मुझसे  वो   मिलता  रहता  है ।।

जख्म  मिले  हैं  मुझको  उनसे।
जिनसे  ज़ख़्म  छुपा  रहता  है ।।

आंख   चुराने   वालों   को   ही ।
मेरा   दर्द    पता    रहता    है ।।

प्रेम दिवस  पर  भूल  न  जाना।
मन   कोई   घुटता   रहता   है ।।

एक   जमाने   से   वो   मुझको।
चुपके   से   पढ़ता   रहता   है ।।

देख मुसाफ़िर सँभल के चलना ।
प्यार   सदा   अंधा   रहता   है ।।

परवानों   के   मरघट   खातिर ।
एक  दिया  जलता  रहता   है ।।

           नवीन मणि त्रिपाठी
             मौलिक अप्रकाशित

क्या हुआ जो सताने लगी

212 212 212
आप  भी   जुल्म  ढाने  लगे ।
क्या  हुआ  जो  सताने  लगे।।

दिल तो था आपके पास ही ।
आप  क्यूँ  आजमाने  लगे ।।

क्या कमी थी मेरे  हुस्न  में ।
गैर  पर  दिल  लुटाने लगे ।।

रफ्ता  रफ्ता  नजर से  मेरी ।
आप  दिल  में  समाने लगे ।।

क्या हुआआपकोआजकल ।
बेसबब     मुस्कुराने    लगे ।।

कर गयी सच बयाँआंख जब।
आप  क्यूँ  तिलमिलाने  लगे ।।

जाम  साकी  पिला मत उन्हें।
अब  कदम  डगमगाने  लगे ।।

जब  निभाने  की  चर्चा  हुई ।
आप  क्यूँ  मुँह  चुराने  लगे ।।

इक मुलाकात पर लोग क्यूँ।
उंगलिया  फिर  उठाने लगे ।।

          नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल

2212 2212 2212 12
शायद  तेरी नज़र  को  मिला  इंतखाब   है ।
उगने  लगा  मगरिब  में कोई  आफताब  है ।।

उड़ते  परिंदे   खूब  हैं  इस  जश्ने  प्यार  में ।
छाया   मुहब्बतों   में   कोई   इन्क्लाब   है ।।

मुद्दत  से  मैं था मुन्तज़िर अपने सवाल पर ।
ख़त में किसी का आज ही आया जबाब है ।।

कुछ दिन से वह भी होश में मिलता नहीं मुझे।
कैसा  नशा  है  इश्क़  में  कैसा  शबाब   है ।।

फितरत नई  है आपकी  बहकी  शबा मिली ।
चेहरा नया  जो आपका खिलता  गुलाब है ।।

इतनी जफ़ा के  बाद  भी  कायम वफ़ा रही ।
मेरे  लिए  क्या  आपने  रक्खा  ख़िताब  है ।।

देता  कहाँ   है  साथ   कोई  उम्र  भर   यहाँ ।
सच  मानिए  ये  जिंदगी   होती   हबाब  है ।।

पर्दे  हजारों  ओढ़  के  मिलता  है आजकल ।
किसने  कहा  है  आदमी   वह  बेनकाब  है ।।

अमनो  सुकूँ  के साथ मे  जीना हराम अब ।
इस शह्र में हर शख्स की सुहबत खराब है ।।

यूँ  ही नहीं वो आपकी   तारीफ़  कर  गया ।
वह शख्स पढ़केआपको लिखता किताब है।।

बैठे  दिखे  हैं रिन्द भी लम्बी   कतार   में ।
शायद सनम की आंख से छलकी शराब है ।।

               - नवीन मणि त्रिपाठी 
            मौलिक अप्रकाशित

आज मौसम बड़ा आशिकाना रहा

212 212 212 212 

मुद्दतों    बाद    फिर    मुस्कुराना    रहा ।
आज   मौसम  बड़ा   आशिकाना  रहा ।।

आप  आये  यहां   ये  थी  किस्मत  मेरी ।
इक   मुलाकत   से  दिन   सुहाना  रहा ।।

मुफ़लिसी  में  सभी  छोड़कर  चल  दिये ।
इस    तरह   से   मेरा   दोस्ताना    रहा ।।

वो  मुकर   ही  गए  आज  पहचान   से ।
जिनके  घर  तक मेरा आना जाना रहा ।।

आपकी  इक  अदा  कर  गई  है  असर ।
आपका  तो  गज़ब  का  निशाना  रहा ।।

जाम  उसने   कहा   हुस्न  को  देखकर ।
इश्क़  में  तजरिबा  कुछ  सयाना  रहा ।।

कह  दिया  है  खुदा  उसने  महबूब  को ।
उसका  अंदाज    तो   सूफियाना  रहा ।।

क्या  करेंगे   मेरा  हाल  अब   पूछकर ।
कोई   रिश्ता   कहाँ   अब पुराना रहा ।।

अजनबी बनके गुजरें हैं वो आज फिर ।
याद   उनको  कहाँ  वो  ज़माना   रहा ।।

मान  लूँ  कैसे  उनको  खबर  ही नहीं ।
बेसबब  क्या  नजर का  झुकाना रहा ।।

दौलते  हुस्न  सब  को   मयस्सर  कहाँ ।
आपके  पास   ही  यह  खज़ाना    रहा ।।

तोड़  कर  दिल  मेरा  वो  चले  जा  रहे ।
कल तलक जिनका दिल में ठिकाना रहा ।।

       --नवीन मणि त्रिपाठी 
       मौलिक अप्रकाशित

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

दिल में कोई लहर उठी सी है

2122 1212 22 
दिल में कोई  लहर  उठी  सी है ।
आंख उनकी झुकी झुकी सी है ।।

देखता  जा  रहा  हूँ  मुद्दत   से ।
सुर्ख  होठों पे  तिश्नगी  सी  है ।।

कब निभाता है वो  कोई  वादा ।
बात उसकी तो दिल्लगी सी है ।।

दूरियां   इस  कदर  बढ़ी  उनसे ।
वस्ल  की  रात  मातमी  सी  है ।।

अब जरूरत है आपकी मुझको ।
देखिये  आपकी  कमी  सी   है ।।

मैंने  देखा  नहीं  सुना  है  बस ।
लोग  कहते  उसे  परी  सी  है ।।

उसको छूना जरा सँभल के अभी ।
वो  गुलाबों   की  पंखुड़ी  से  है ।।

वक्त के  साथ  कब  चला  है  वो ।
अक्ल  से उसकी  दुश्मनी  सी है ।।

कौन कहता  है  बुझ  गयी  होगी ।
आग  दिल  में  अभी  दबी सी है ।।

             -- नवीन मणि त्रिपाठी 
             मौलिक अप्रकाशित।

झूठी कसम तो आपकी खाई न जाएगी ।

221 2121 1221 212

जो  बात  है सही  वो  छुपाई  न  जाएगी ।
झूठी कसम तो आप की खाई न जाएगी ।।

बस   हादसे  ही  हादसे  मिलते  रहे  मुझे ।
लिक्खी खुदा की बात  मिटाई न जाएगी ।।

चेहरे  हैं बेनकाब  यहाँ  कातिलों  के  अब।
लेकिन   सजाये  मौत  सुनाई  न  जाएगी ।।

ज़ाहिद खुदा की ओर मुखातिब न कर मुझे ।
काफ़िर  हूँ   मैं  नमाज़  पढ़ाई  न  जाएगी ।।

कितने    थे   बेकरार    तेरे    इंतजार    में ।
बरसात  की  वो  रात  भुलाई  न   जाएगी ।।

देखा जो उसने आपको जबसे निगाह भर ।
ऐसी  लगी  है  आग   बुझाई   न   जाएगी ।।

यूँ   मैकदा  से  हो  के  हैं  लौटे तमाम रिन्द ।
शायद   अभी   शराब   पिलाई  न  जयेगी ।।

गुजरेगी  उम्र  आपकी बस तिश्नगी के साथ ।
चिलमन  तो  अपने  आप हटाई न जाएगी ।।

             --नवीन मणि त्रिपाठी 
             मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल -आज फिर वो मुझे याद आने लगे

212 212 212 212

आज  फिर  वो   मुझे  याद  आने  लगे ।
भूलने   में    जिसे   थे   ज़माने    लगे ।।

कर गई है असर  वो मिरे   जख़्म  तक ।
इस  तरह  क्यूँ  ग़ज़ल  गुनगुनाने  लगे ।।

दिल जलाने की साज़िश बयां हो गयी ।
बेसबब  आप   जब   मुस्कुराने   लगे ।।

अब  बता दीजिये क्या ख़ता  हो  गयी ।
ख़ाब  में इस  तरह  क्यों  सताने  लगे ।।

जिनको चलना सिखाया था मैंने कभी ।
राह  मुझको  वही  अब   बताने   लगे ।।

तेरे आने की उनको खबर क्या  मिली ।
असमा    लोग   सर  पे  उठाने   लगे ।।

वो   निभाएंगे  कैसे   मिरे   इश्क़  को ।
कुछ   ख़यालात   उनके  पुराने   लगे।।

इक  मुलाकत भी  थी  जरूरी  सनम ।
मानता   आपके    सौ   बहाने   लगे ।।

मैकदा  जाइये   मैकदा    खुल   गया ।
देखिये   होश   में  आप   आने  लगे ।।

जब भी  देखा मैं दायां तो बायां  दिखा।
आईने  सच  भला  कब  दिखाने लगे ।।

रुख  से  पर्दा   हटा  तो  कयामत  हुई ।
जुल्म फिर आशिकों पे  वो  ढाने  लगे ।।

              --नवीन मणि त्रिपाठी
              मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - तेरे ज़हान से क्यूँ सिसकियाँ नहीं जातीं

1212 1122 1212 22

गरीब    खाने   तलक   रोटियां    नहीं   जातीं ।
तेरे  जहान  से  क्यूँ   सिसकियाँ  नहीं  जातीं ।।

कतर रहे हैं वो पर ख्वाहिशों के  अब  भी बहुत।
नए    गगन   में   अभी , बेटियां  नहीं   जातीं ।।

वो तारे  तोड़ तो सकता है  आसमाँ  से  मग़र ।
मुसीबतो  की   ये   परछाइयां   नहीं   जातीं ।।

यकीं  करूँ मैं  कहाँ तक  जुबान  पर साहब ।
लहू  से   आपके   खुद्दारियाँ    नहीं   जातीं ।।

तमाम  दे  के   रियायत  हुजूर  देख   लिया ।
खराब   कौम   से   गद्दारियाँ   नहीं   जातीं ।।

सियासतों  का  ये  मंजर  न पूछ अब हमसे ।
सियासतों  से  यहाँ  खामियाँ  नहीं   जातीं ।।

नए  निज़ाम   से  उम्मीद  और  क्या  करना ।
चमन से  आज  भी  दुश्वारियां  नहीं  जातीं ।।

नज़र  का फेर  था या फिर  था हादसा कोई ।
दिलो   दिमाग  से   रानाइयाँ   नहीं   जातीं ।।

न जाने  क्या  हुआ  है आपकी  निगाहों को ।
मेरे   वजूद    से    रुस्वाइयाँ    नहीं   जातीं ।।

जरा  सँभल  के  रहो  दुश्मनों की फितरत से ।
मिले   तो   हाथ  मगर  खाइयां  नहीं  जातीं ।।

मैं भूल  जाऊं  सभी  जख़्म कोशिशें  हैं मेरी ।
मगर ज़िगर की  ये  मजबूरियां  नहीं  जातीं ।।

चले  गए  हैं मेरी  जिंदगी   से  जब  से  वो ।
मेरे  दयार   से    खामोशियाँ   नहीं  जातीं ।।

           -- नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - ऐ चाँद अभी तेरा दीदार जरूरी है

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इक  बार  तेरे  दिल  का  इकरार  जरूरी है ।
ऐ   चाँद  अभी   तेरा   दीदार   जरूरी   है ।।

माना  कि  मुहब्बत  में  हैं   ज़ख्म  बहुत  मिलते ।
कुछ सिलसिलों की खातिर कुछ ख्वार जरूरी है।।

फैशन के  जमाने  मे बदला है चलन  ऐसा ।
उनको  तो  गुलाबों  सा रुखसार जरूरी है ।।

खामोश  निगाहों  से  देखा  न करो उसको ।
दिलवर पे असर खातिर इज़हार जरूरी है ।।

महबूब की जुल्फों पर लगती है नजर उनकी ।
अब  घर  के  दरीचों  पर  दीवार  जरूरी  है ।।

आहट से मिरे  दिल मे आये सुकूं का मौसम ।
पायल में खनकती  सी झनकार  जरूरी  है ।।

हर बात में हाँ करना मतलब की है निशानी ।
सच्ची  है मुहब्बत तो  इनकार   जरूरी  है ।।

ईमान बहुत सस्ते  में बिक  गया  है  उसका ।
कीमत के  लिए  अब  तो बाज़ार ज़रूरी है ।।

       
        --नवीन मणि त्रिपाठी 
        मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - दिल हमारा मांगती है आजकल

2122 2122 212

बेखुदी   की   जिंदगी  है   आजकल ।
खूब  सस्ता   आदमी   है  आजकल ।।

जी   रहे   मजबूरियों   में  लोग  सब।
महफिलों  में  ख़ामुशी है  आजकल ।।

लग  रही  दूकान  अब   इंसाफ  की ।
हर तरफ़ कुछ ज़्यादती है आजकल।।

छोड़  कर   तन्हा  मुझे  मत  जाइए ।
कुछ  जरूरत आपकी है आजकल ।।

अब नहीं  मिलता  कोई  मुझसे यहां।
बर्फ  रिश्तों पर जमी  है  आजकल ।।

आपके  हर   कातिलाना   वार   से ।
फैल  जाती  सनसनी  है  आजकल ।।

मैकदे    में   शोर   बरपा   है  बहुत ।
जाम पर  रस्सा  कसी है आजकल।।

रिन्द   खोते   जा  रहे  सारा  अदब ।
जाने  कैसी  तिश्नगी  है आजकल।।

हुस्न  पर  पर्दा   न  इतना  कीजिये ।
हुस्न  की  ही  बन्दगी  है आजकल ।।

क्या  भरोसा  रह  गया  है  यार का ।
वह  निभाता  दुश्मनी  है आजकल ।।

अब  नहीं  जाना  मुझे  उसकी गली ।
वह  कहाँ  पहचानती  है  आजकल।।

इक    हसीना    खेलने   के   वास्ते ।
दिल  हमारा  मांगती  है  आजकल ।।

          ---नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल --जला गया जो गली से अभी गुज़र के मुझे

1212 1122 1212  22

सिला दिया है मेरे दिल में कुछ उतर के  मुझे ।
जला गया जो गली से अभी  गुजर  के मुझे ।।

صلہ   دیا  ہے میرے دل  میں  کچھ  اتر  کے مجھے ۔
جلا  گیا جو گلی  سے ابھی  گزر  کے مجھے  

किया हवन तो जला हाथ इस कदर अपना ।
मिले  हैं  दर्द  पुराने  सभी  उभर  के  मुझे ।।
کیا ہون  تو  جلا  ہاتھ  اس  قدر  اپنا  ۔
ملے  ہیں  درد  پرانے سبھی  ابھر  کے  مجھے ۔

तमाम  जुल्म   सहे   रोज  आजमाइस   में ।
चुनौतियों से मिली जिंदगी निखर के मुझे ।।
تمام  ظلم  سہے روز  آزماش  میں ۔
چنوتیوں سے ملی ذندگی  نکھر  کے  مجھے  ۔

अजीब दौर है किस किस की आरजू देखूँ ।
बुला रही है क़ज़ा भी यहाँ  सँवर  के मुझे ।।
عجیب دور ہے کس کس  کی   ارذ و دیکھوں
 بلا   رہی  ہے قضا بھیی یہاں  سنور کے  مجھے ۔۔

      
मिटा  रहे  हैं मुहब्बत की  हर निशानी  को।
दिखा रहे थे जो छाले कभी जिगर के मुझे।।
مٹا رہے  ہیں محبّت کی ہر  نشانی کو ۔
دکھا  رہے  تھے  جو چھالے کبھی  جگر  کے مجھے ۔۔

नई  है  बात  नहीं  हादसों  पे  क्या डरना ।
हादसे  खूब  मिले  हैं  ठहर  ठहर के मुझे ।।
نئی ہے بات نہین  ہاد سون سے  کیا  ڈرنا ۔
ہاد سے خوب ملے  ٹھہر ٹھہر  کے  مجھے ۔۔ 

बड़ा यकीन था जिस पर मुझे भी मुद्दत  तक।
दिखा गया वो शराफत की जद मुकर के मुझे।।
بڑا  یقین تھا  جس  پر مجھے  بھی  مددت  تک ۔
دکھا  گیا  وہ  شرافت کی ذد   مکر  کے مجھے ۔  

करीब  आना  मयस्सर  नही   हुआ  उसको ।
वो  देखता  ही  रहा बस निगाह भर के मुझे ।।

قریب آنا  میسسر نہیں  ہوا  اسکو  ۔
وہ  دیکھتا  ہی  رہا بس  نگاہ بھر  کے  مجھے ۔۔

जला  रहे  थे  मेरे  घर  को जो  हवा देकर ।
वो दे रहे  हैं   सफाई  गुनाह  कर के मुझे ।।
جلا  رہے  تھے  میرے  گھر  کو  جو ہوا  دیکر ۔
وہ  دے  رہے  ہیں صفای گناہ کر  کے  مجھے ۔

सुना है हिज्र की तारीख़ आ  रही है अब  ।
खबर बता के गया है कोई सिहर के मुझे ।।
سنا  ہے ہجر کی تاریخ  آ  رہی  ہے  اب ۔
خبر  بتا  کے  گیا  ہے کوئی  سہر  کے  مجھے ۔۔ 
          -- नवीन मणि त्रिपाठी 
            मौलिक अप्रकाशि
نوین مڈی ترپاتھی

ग़ज़ल -जो शख्स मेरे चाँद सितारों की तरह है

221 1221 1221 122

बुझते  हुए  से  आज  चराग़ों   की  तरह  है ।
जो  शख्स  मेरे  चाँद  सितारों की तरह  है ।।

करता है वही  कत्ल मिरे दिल का  सरेआम ।
मिलता मुझे जो आदमी अपनों की तरह है ।।

रह  रह  वो  कई  बार  मुझे   देखते  हैं अब ।
अंदाज   मुहब्बत  के  इशारों  की  तरह  है ।।

कुछ रोज से चेहरे की तबस्सुम  पे फिदा वो ।
किसने कहा वो आज भी गैरों की  तरह  है ।।

यूँ ही न  बिखर  जाए  कहीं  टूट  के  मुझसे ।
नाजुक सा मुकम्मल वो गुलाबों की तरह है ।।

लाती   हैं  हवाएं  भी  नई   जान  चमन   में ।
आना  तेरा  भी  दर पे  बहारों  की  तरह  है ।।

भूला  कहाँ  हूँ  आज तलक हुस्न का मंजर ।
यादों  में  कोई  जुल्फ  घटाओं  की तरह है ।।

आये  हैं  मेरे  घर पे तो  किस्मत है  ये  मेरी ।
यह  वक्त  मेरे  दिल  की मुरादों की तरह है ।।

उलझा हुआ हूं मैं भी जमाने से  अभी तक ।
बेचैनियों   का  दौर  सवालों  की  तरह  है ।।

रखता है सलामत वो मुझे हर बला से अब ।
कोई  तो  निगहबान  दुआओं  की तरह है ।।

           --नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित