तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

मंगलवार, 5 अगस्त 2025

हर तरफ़ तिश्नालबी है शह्र में

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हर  तरफ़   तिश्ना- लबी  है  शह्र  में ।

सबकी अपनी  बेबसी  है  शह्र  में ।। 1


मन्दिर ओ मस्ज़िद को लेकर देखिये  

फ़िर  कहीं   चर्चा   हुई  है  शह्र  में ।।2


फ़िर  जला  देंगी  घरों  को  नफ़रतें ।

आग  कुछ  ऐसी  लगी  है शह्र  में ।।3


कौन मुज़रिम है फ़िजा  का  ढूढिये ।

क्यों  हवा  बदली  हुई  है  शह्र  में ।।4


बेचकर आया है वो अपना ज़मीर ।

जिसकी इज्ज़त कीमती है शह्र में ।।5


सिर्फ़ मतलब के लिए मिलते हैं लोग ।

कहने को दरिया दिली है शह्र में ।।6


आदमी की दांव पर  है  ज़िन्दगी ।

मौत   से  रस्साकशी  है शह्र  में ।।7


लाती हैं मजबूरियां फुटपाथ तक ।

जीस्त आकर सो रही है शहर में ।।8


ख्वाहिशें  दम  तोड़ती  हैं   बारहा ।

हो रही क्यों  खुदकुशी है शह्र में  ।।9


ख़ुद को जब उसने बना डाला मशीन ।

तब  कहीं  रोटी  मिली  है शह्र में ।।10


छापते अब  क्यूँ  नहीं  अखबार  ये ।

भुखमरी कितनी  बढी है शह्र में ।। 11


      -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

वस्ल होगा फिर उसी गुलफ़ाम से

 ग़ज़ल

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दिल बहुत बेचैन हैं यूँ शाम से 

वस्ल होगा फिर उसी गुलफ़ाम से ।


जब से आई ये ख़बर आएंगे वो ।

हसरतें जिंदा हुईं पैग़ाम से ।।


बेख़ुदी में है कोई दीवानगी ।

किसको डर है अब किसी अंजाम से ।।


 है यहीं उल्फ़त की  यारो दास्ताँ ।

उम्र भर रिश्ता रहा इल्जाम से ।।


ये तसव्वुर भी मेरा धोका ही था ।

लोग जीते हैं यहाँ आराम से ।।


आप ने जब बेवफाई कर ही दी 

दोस्ती उनकी हुई है जाम से । 


अक्ल आई ये तेरे जाने के बाद ।

बद कहीं बेहतर है यूँ बदनाम से ।।


अब जमाने से शिकायत क्या करें ।

जब नहीं शिकवा दिल ए नाकाम से ।।


             नवीन


रात भर उसने मेरे ख़त को जलाया होगा

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हिज्र  के बाद  उसे  होश  तो आया  होगा ।

रात भर उसने मेरे  ख़त  को जलाया होगा ।। 1


बेसबब आती नहीं है ये तबाही की लहर ।

कुछ सितम आप ने दरिया पे तो ढाया होगा ।।2


चल सका जो न मेरे साथ बहुत दूर तलक ।

वो किसी और से रिश्ते को निभाया होगा ।।3


इक  मुलाकात  पे इतना  भी तसव्वुर न  करो ।

शख़्स फ़िर वक्त पे  इस दिल का रि'आया होगा ।।4


उसको रहना ही पड़ेगा यूँ अँधेरों में मियां ।

जो किसी  घर के चरागों को बुझाया होगा ।।5


मंजिलें ख़ुद ही बुलाएंगी उसी को यारो 

ख़ाब मंजिल के लिए जिसने सजाया होगा ।।6


बारहा उनके छुपाने  से नहीं छुप पाए ।

इश्क़ नजरों से सरे बज़्म नुमाया  होगा ।।7


 रि'आया- रियासत दार

नुमाया   -प्रदर्शित


       - नवीन मणि त्रिपाठी

मुझे बचाने मेरा नाखुदा नहीं आया

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उसे   हयात  का  असली   मज़ा   नहीं आया ।

तमाम   उम्र    जिसे    राब्ता    नहीं   आया ।।1


करीब ला दे जो मंजिल के आस पास मुझे ।

मेरे   दिमाग़  में  वो   रास्ता  नहीं  आया ।। 2


 ख़ुलूस दिल ने लिखा ख़त था एक दिन तुझको ।

तेरी तरफ़ से  कोई  मसबरा   नहीं  आया ।।3


अभी तलक है सलामत जो अम्न की बस्ती ।

है शुक्र रब का कोई सिर- फिरा नहीं आया ।।4


डुबा दिया मेरी कश्ती को मेरे  अपनों ने ।

मुझे  बचाने  मेरा  नाखुदा  नहीं  आया ।।5


लगा रहा है वो इल्ज़ाम मेरी चाहत पर ।

जो मेरे दर पे कभी इक दफ़ा नहीं आया ।।6


तेरे  गुनाह  की  गुंजाइशें  सलामत   हैं ।

अभी चमन में कोई जलजला नहीं आया ।।7


ये कातिलों का हुनर है या कोई मजबूरी ।

के ज़िक्र उनके किसी नाम का नहीं आया ।।8


             -- नवीन मणि त्रिपाठी

दुश्मन से भी हाथ मिलाया जा सकता है

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एक  शिगूफ़ा  फ़िर  से  लाया जा सकता है ।

कोई  झूठा  ख़्वाब  दिखाया जा  सकता  है ।। 1


उनके     वादे    पूरे    होंगे,   नामुमकिन   है ।

पर कुछ दिन तक दिल बहलाया जा सकता है ।।2 


काठ की हांडी चढ़ती नहीं दुबारा लेकिन ।

ख़ास बताकर मन भरमाया जा सकता है ।।3


झूठ पे ये दुनिया पीटेगी ताली -थाली ।

सच पर सौ इल्ज़ाम लगाया जा सकता है ।।4


नीयत गर हो साफ़ , इरादे  सच्चे  हों  तो ।

दुश्मन से भी हाथ मिलाया जा सकता है ।।5


बेशक़ तोपें जला न पाई हैं देशों को ।

नफ़रत से हर मुल्क जलाया जा सकता है ।।6


अम्न की चर्चा छोड़ के चर्चा इस पर है अब ।

किसका कितना ख़ून बहाया जा सकता है ।।7


         -- नवीन मणि त्रिपाठी

ये मुहब्बत की परसाई है

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 ग़ज़ल

दर्द  है ,  हिज्र  है  जुदाई  है ।

ये मुहब्बत की पारसाई है ।1


नींद शब भर नहीं मयस्सर अब ।

एक आफ़त ये आशनाई है ।।2


ख़ाक हो जाये हर सकूँ यारो 

आग उसने तो यूँ लगाई है ।।3


याद उसकी भी आज देखो तो

एक अरसे के बाद आई है ।4


कैसे मैं मान लूँ तुझे अपना 

तेरी नस नस मे बेवफ़ाई है ।।5


अब तो जीना है बेख़ुदी में ही।।

होश में रहना जब बुराई  है ।।6


चूक कैसे हुई ये मत पूछो ।

अब तो चुप रहने में भलाई है ।।7


       -नवीन

ग़ज़ल

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जीस्त की हर जंग में बस ज़ख्म खाता रह गया ।

उम्र भर यूँ ही मुकद्दर आजमाता रह गया ।।


है ख़बर हमको नहीं , आयीं बहारें कब यहां ।

जुल्म कोई बारहा गुलशन पे ढाता रह गया ।। 


सिलसिले तूफ़ान के ठहरे नहीं ताउम्र जब ।

आफतों के दौर में खुद को बचाता रह गया ।।


था भरोसा जिसको अपनी दौलतों पर बेसुमार । 

वक्त आने पर वही आंसू बहाता  रह गया ।।


पुतलियों को फेर कर जाने लगे जब घर से वो।

फिर उन्हें सारा ज़माना बस बुलाता रह गया ।।


उनसे दूरी कामयाबी की बढ़ी है दिन ब दिन ।

जो सदा इल्ज़ाम गैरों पर लगाता रह गया ।।


घर उसी का फिर लुटा है दिन दहाड़े दोस्तों ।

जो हवा में तीर सारा दिन चलाता रह गया ।।


दोस्ती को छोड़ कर मंजिल तलक पहुँचे हैं लोग ।

फँस गया वह शख्स जो यारी निभाता रह गया ।।


जब तरक़्क़ी आलिमों के नाम कर दी आपने ।

फ़िर क़ज़ा आई तो क्यों दोषी विधाता रह गया ।।


         - नवीन

जा रहे आप भी उधर शायद

 ग़ज़ल 


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दिल  मे  बैठा  है कोई डर  शायद ।

हो   गए  आप  बाख़बर  शायद ।।1


झोलियां भर के जा नहीं  सकते ।

आप पर है कड़ी  नज़र  शायद ।।2


लोग जुमलों को अब नहीं सुनते । 

वक्त उनका गया ठहर शायद  ।।3


हर   कदम  पर  तमाम  धोखे  हैं ।

मिलना मुश्किल है मोतबर शायद ।।4


अब तो चेहरे की चमक गायब है । 

दर्द  कोई   गया  उभर  शायद ।।5


आपके  तो  करम  कुछ ऐसे  हैं । 

याद  रक्खेंगे  उम्र  भर  शायद ।।6


खो  न   जाए  कहीं   मेरी   कुर्सी ।

फ़िक्र का हो चुका असर शायद ।।7


छूट जाता है तख़्त ओ ताज़ जिधर ।

जा  रहे  आप  भी  उधर  शायद ।।8


       -- नवीन

आती है उसकी याद बुलाये बगैर ही

 ग़ज़ल

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जाती  है  नींद  ख़्वाब  के  आये  बगैर   ही ।

आती  है  उसकी  याद   बुलाये  बगैर   ही ।।1


उसको  हमारी  तिश्नगी  से  दुश्मनी थी  यूँ ।

 भेजा  वो  मैक़दे  से  पिलाये  बगैर   ही ।।2


बादल में है जुनून जमीं की तपिश को देख ।

बरसेगा  क्या  ये अब्र  भी  छाए  बग़ैर  ही ।। 3


गहरे यकीं  के साथ  हों  गर हौसले बुलंद ।

झुकती  है  कायनात   झुकाए  बग़ैर   ही ।।4


किस किस का इंतजाम करेंगे यहाँ हुजूर ।

जब  आ  रहे  हैं  लोग  बताए  बगैर  ही ।। 5


क़ातिल का शातिराना ये अंदाज  देखिए ।

करता है कत्ल  नजरें  उठाये  बग़ैर  ही ।। 6


उम्मीद  जिन से थी कि वो शब भर रुकेंगे आज ।

वो जा रहे हैं हाथ मिलाए बग़ैर ही ।।7


ऐसी सजा मिली है मुझे आशिकी में यार ।

मैं  जी  रहा  हूँ  उसको  भुलाए  बग़ैर ही ।।8


ये खासियत  या  ऐब है इस  हुस्न का  तेरे ।

जलते  तमाम  दिल  हैं  जलाए  बगैर   ही ।। 9


                - नवीन

नव सृजन दीप बनना होगा

 नव सृजन दीप बनना होगा 

जीवन पथ पर चलना होगा


दो अंकुर हृदय वाटिका  के 

पोषित तुम रक्त कर्णिका के

तुम  हो भविष्य  मेरे  घर के 

सहयोगी हो  जीवन  भर के 

तुम मीत रहोगे पल पल  के 

लाठी  हो  तुम  मेरे  कल के 


कर्मों  की  उच्च  श्रृंखला  से 

उर   अंधकार   हरना   होगा 

नव सृजन दीप  बनना  होगा

जीवन पथ पर चलना होगा 


जब व्यथित हृदय हो जाये कभी 

मन की क्यारी मुरझाए कभी 

जब तेज मन्द हो जाये कभी 

साँसों का स्वर खो जाए कभी 

यह अहंकार बढ़ जाये कभी 

नीरसता मन मे छाए कभी 

जब राह नहीं मिल पाए कभी 


उस पावन जगत नियंता से

 तब आत्म शक्ति भरना होगा 

नव सृजन दीप बनना होगा

 जीवन पथ पर  चलना होगा


कुछ कंटकमय पल आएंगे 

नित अनुभव नया कराएंगे 

कुछ दृष्टिकोण मिल जाएंगे 

हर पंथ स्वतः खुल जाएंगे 

मन में प्रकाश  भर  जाएंगे 

तम  तुमको छू ना पाएंगे 


हर संघर्षों की धारा के 

प्रतिकूल तुम्हे बहना होगा 

नव सृजन दीप बनना होगा 

जीवन पथ पर चलना होगा


अभिलाषाओं का मान रहे 

सुंदर कर्मो का ध्यान रहे 

आध्यात्म चेतना ज्ञान रहे

मनावता का सम्मान रहे 

उत्कृष्ट लक्ष्य संज्ञान रहे 

सर्वदा दूर मदपान रहे 


चारित्रिक श्रेष्ठ कसौटी पर 

सोना बनकर ढलना होगा

नव सृजन दीप बनना होगा 

जीवन पथ पर चलना होगा 


यह सत्य यथावत निश्चित है 

आना जाना अनुबंधित है 

जीवन, निर्वाण से परिचित है

संशय इसमें ना  किंचित है 

आत्मा ईश्वर से  सिंचित  है 

सन्देश   सदा  ये  इंगित  है 

नव जीवन पुनः सुनिश्चित है 


उस मृत्यु के विश्रामालय से 

नव वस्त्र पहन उठना होगा 

नव सृजन दीप बनना होगा 

जीवन पथ पर चलना होगा


        -नवीन मणि त्रिपाठी


नोट - यह रचना 2005 में 20 वर्ष पहले विनीत -पुनीत के लिए लिखी थी ।