2122 2122 2122 212
जीस्त की हर जंग में बस ज़ख्म खाता रह गया ।
उम्र भर यूँ ही मुकद्दर आजमाता रह गया ।।
है ख़बर हमको नहीं , आयीं बहारें कब यहां ।
जुल्म कोई बारहा गुलशन पे ढाता रह गया ।।
सिलसिले तूफ़ान के ठहरे नहीं ताउम्र जब ।
आफतों के दौर में खुद को बचाता रह गया ।।
था भरोसा जिसको अपनी दौलतों पर बेसुमार ।
वक्त आने पर वही आंसू बहाता रह गया ।।
पुतलियों को फेर कर जाने लगे जब घर से वो।
फिर उन्हें सारा ज़माना बस बुलाता रह गया ।।
उनसे दूरी कामयाबी की बढ़ी है दिन ब दिन ।
जो सदा इल्ज़ाम गैरों पर लगाता रह गया ।।
घर उसी का फिर लुटा है दिन दहाड़े दोस्तों ।
जो हवा में तीर सारा दिन चलाता रह गया ।।
दोस्ती को छोड़ कर मंजिल तलक पहुँचे हैं लोग ।
फँस गया वह शख्स जो यारी निभाता रह गया ।।
जब तरक़्क़ी आलिमों के नाम कर दी आपने ।
फ़िर क़ज़ा आई तो क्यों दोषी विधाता रह गया ।।
- नवीन
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