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जलता है कोई दिल जो किसी का यहीं कहीं ।
दिखता धुआँ है दूर से उठता यही कहीं ।।
इस जात धर्म वाली सियासत के बीच में ।
खोता रहा है देश का मुद्दा यहीँ कहीं ।।
कैसे मैं कह दूँ पाक है बस्ती मेरे अज़ीज ।
मुझसे मेरा खुदा भी तो रूठा यहीँ कहीं ।।
सरकार की नजर में यहाँ जो गरीब हैं।
निकला उन्हीं के पास खज़ाना यहीं कहीं ।।
कायम रहेगी कैसे .हंसी .अब लबों पे यार ।
जब ख़ाब कोई टूट के बिखरा यहीँ कहीं ।।
पाबंदियों के दौर के जिन्दा ख़याल हैं ।
लगता मुहब्बतों पे है पहरा यहीं कहीं।।
ये तिश्नगी बुझेगी तेरी ढूढ़ तो उसे ।
बहता है तेरे वास्ते दरिया यहीं कहीं ।।
अक्सर मुसीबतों में वो आया करीब है ।
शायद ख़ुदा भी पास ही रहता यहीं .कहीँ ।।
देखा जो उसको आज रकीबों के साथ में ।
मेरा यकीं भी शान से टूटा यहीँ .कहीं ।।
इतना. बता रही हैं मेरी हिचकियाँ .मुझे ।
महबूब . मेरा शह्र में .ठहरा यहीं कहीं।।
दीदारे हुस्न की ज़रा बेताबियां तो देख ।
शायद जमीं पे चाँद है उतरा यहीं कहीं ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
I
जलता है कोई दिल जो किसी का यहीं कहीं ।
दिखता धुआँ है दूर से उठता यही कहीं ।।
इस जात धर्म वाली सियासत के बीच में ।
खोता रहा है देश का मुद्दा यहीँ कहीं ।।
कैसे मैं कह दूँ पाक है बस्ती मेरे अज़ीज ।
मुझसे मेरा खुदा भी तो रूठा यहीँ कहीं ।।
सरकार की नजर में यहाँ जो गरीब हैं।
निकला उन्हीं के पास खज़ाना यहीं कहीं ।।
कायम रहेगी कैसे .हंसी .अब लबों पे यार ।
जब ख़ाब कोई टूट के बिखरा यहीँ कहीं ।।
पाबंदियों के दौर के जिन्दा ख़याल हैं ।
लगता मुहब्बतों पे है पहरा यहीं कहीं।।
ये तिश्नगी बुझेगी तेरी ढूढ़ तो उसे ।
बहता है तेरे वास्ते दरिया यहीं कहीं ।।
अक्सर मुसीबतों में वो आया करीब है ।
शायद ख़ुदा भी पास ही रहता यहीं .कहीँ ।।
देखा जो उसको आज रकीबों के साथ में ।
मेरा यकीं भी शान से टूटा यहीँ .कहीं ।।
इतना. बता रही हैं मेरी हिचकियाँ .मुझे ।
महबूब . मेरा शह्र में .ठहरा यहीं कहीं।।
दीदारे हुस्न की ज़रा बेताबियां तो देख ।
शायद जमीं पे चाँद है उतरा यहीं कहीं ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
I
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