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मुहब्बत की ख़ातिर ज़िगर कीजिये ।
अभी से न यूँ चश्मे तर कीजिये ।।
गुजारा तभी है चमन में हुजूऱ ।
हर इक ज़ुल्म को अपने सर कीजिये ।।
करेगी हक़ीक़त बयां जिंदगी ।
मेरे साथ कुछ दिन सफ़र कीजिये ।।
पहुँच जाऊं मैं रूह तक आपकी ।
ज़रा थोड़ी आसां डगर कीजिये ।।
वो पढ़ते हैं जब खत के हर हर्फ़ को ।
तो मज़मून क्यूँ मुख़्तसर कीजिए ।।
लगे मुन्तज़िर गर मेरा दिल सनम ।
तो नज़रे इनायत इधर कीजिये ।।
ज़रूरत बहुत रोशनी की यहां ।
तबस्सुम से शब को सहर कीजिए ।।
है उतरा जमीं पर अगर चाँद वो ।
तो रुख आप भी अब उधर कीजिये ।।
मुक़द्दर में जो शख्स है ही नहीं ।।
उसे याद क्यूँ रात भर कीजिये ।।
शिक़ायत खुदा से भी क्या बारहा ।
मिला जितना उसमें बसर कीजिये ।।
मैं हाज़िर हूँ मक़तल में बेख़ौफ़ आज ।
मेरे कातिलों को ख़बर कीजिये ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
मुहब्बत की ख़ातिर ज़िगर कीजिये ।
अभी से न यूँ चश्मे तर कीजिये ।।
गुजारा तभी है चमन में हुजूऱ ।
हर इक ज़ुल्म को अपने सर कीजिये ।।
करेगी हक़ीक़त बयां जिंदगी ।
मेरे साथ कुछ दिन सफ़र कीजिये ।।
पहुँच जाऊं मैं रूह तक आपकी ।
ज़रा थोड़ी आसां डगर कीजिये ।।
वो पढ़ते हैं जब खत के हर हर्फ़ को ।
तो मज़मून क्यूँ मुख़्तसर कीजिए ।।
लगे मुन्तज़िर गर मेरा दिल सनम ।
तो नज़रे इनायत इधर कीजिये ।।
ज़रूरत बहुत रोशनी की यहां ।
तबस्सुम से शब को सहर कीजिए ।।
है उतरा जमीं पर अगर चाँद वो ।
तो रुख आप भी अब उधर कीजिये ।।
मुक़द्दर में जो शख्स है ही नहीं ।।
उसे याद क्यूँ रात भर कीजिये ।।
शिक़ायत खुदा से भी क्या बारहा ।
मिला जितना उसमें बसर कीजिये ।।
मैं हाज़िर हूँ मक़तल में बेख़ौफ़ आज ।
मेरे कातिलों को ख़बर कीजिये ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
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